UNIT 2
पाठ्यांश-
कबीर-
कबीर भक्तिकाल के निर्गुण संत काव्य-धारा के प्रतिनिधि कवि थे। इतिहासकारों के मतानुसार कबीर का जन्म 1398 ई. में काशी (वाराणसी) के लहरतारा में हुआ था। ऐसी किंवदंती है कि कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। लोकापवाद के कारण उसने लहरतारा नामक स्थान पर नवजात कबीर को फेंक दिया था। नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपत्ति कबीर को अपनी संतान की तरह पाला।
कबीर की रचनाओं को लेकर विद्वानों के बीच तीखा मतभेद है। कबीर के शिष्य धर्मदास ने उनकी रचनाओं का संकलन ‘बीजक’ नाम से किया। बीजक के तीन अंग हैं – साखी, सबद और रमैनी। ‘साखी’ में दोहे, ‘रमैनी’ में चौपाइयाँ और ‘सबद’ में पद हैं।
कहा जाता है कि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन उन्हें लोक का व्यापक ज्ञान था। कबीर ने अपनी कविताई में शास्त्र ज्ञान की जगह अनुभव किए गए ज्ञान पर बल दिया है। कबीर ने अपनी कविता द्वारा धार्मिक आडंबरों, जाति-प्रथा, बलि-प्रथा, अंधविश्वास, छुआछुत, धार्मिक भेद आदि सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। कबीर ने हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मों की कुरीतियों पर करारा प्रहार किया और ‘राम-रहीम की एकता’ का प्रतिपादन किया।
कबीर के यहाँ ‘निर्गुण ब्रह्म’ यानी ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति भाव मिलता है। कबीर किसी पंथ या धर्म से बंधे नहीं थे, इस कारण उनके यहाँ गुरु की महिमा का बखान भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि कबीर के गुरु रामानंद थे। कबीर कहीं भी रामानंद का अपने गुरु के रूप में उल्लेख नहीं करते हैं लेकिन उनकी कविताओं से स्पष्ट है कि उन्हें हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों के धार्मिक प्रतीकों की पूरी जानकारी थी। कबीर के यहाँ ‘एकेश्वरवाद’ और ‘अद्वैतवाद’ का मिलाजुला रूप मिलता है। कहीं-कहीं उन्होंने सगुण वैष्णव प्रतीकों का भी प्रयोग किया है लेकिन उनका उपयोग उन्होंने अवतारवाद और धार्मिक कर्मकांडों का विरोध करने के लिए ही किया है।
कबीर ने अपनी कविता द्वारा मानव-मात्र की एकता का प्रतिपादन किया। कबीर की काव्य भाषा बहुत व्यवस्थित नहीं है लेकिन मारक है। हालिया शोधों के अनुसार उनकी भाषा मूलतः भोजपुरी है, जिसपर ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी, अवधी, छत्तीसगढ़ी आदि का भी प्रभाव है। रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को ‘पंचमेल खिचड़ी’ या ‘सधुक्कड़ी भाषा’ कहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा है।
पाठ्यांश के आधार पर कबीर की काव्य-संवेदना या काव्य वैशिष्ट्य या काव्यगत-विशेषता
कबीर की कविता के विविध आयाम हैं। कबीर इस संसार को सद्गुरु द्वारा दिए गए और अपने द्वारा अनुभव किए गए ज्ञान के आधार पर तौलते हैं। कबीर के ईश्वर अजन्में, अगोचर और घट-घट में व्यापी हैं। वे किसी गिरिजा, मंदिर या मस्जिद में निवास नहीं करते हैं। कबीर के ईश्वर हरेक के भीतर व्याप्त हैं। कबीर अपने ईश्वर को अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। कबीर का प्रिय नाम राम है लेकिन यह राम दशरथ के पुत्र नहीं हैं। कबीर स्वयं कहते हैं –
दसरथ सुत तिहु लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना।।
कबीर किसी धर्म या पंथ में दीक्षित संत नहीं थे। वे व्रत, पूजा, नमाज, तीर्थयात्रा आदि धार्मिक कर्मकांडों को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग नहीं मानते हैं। कबीर इस शरीर को ही भगवान की प्राप्ति का साधन मानते हैं, तभी तो वे कहते हैं –
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।
दसवां द्वारा देहुरा, तामैं जोति पिछाणि ॥
यानी यह मन ही मथुरा है और दिल द्वारिका तथा यह शरीर ही काशी है। दसवाँ द्वार वह मंदिर है , जहाँ आत्म-ज्योति को पहचाना जाता है। कबीर इस दोहे के द्वारा कहना चाहते हैं कि मथुरा, द्वारिका, काशी जैसे तीर्थस्थानों पर जाने का कोई लाभ नहीं। यह शरीर ही मंदिर और तीर्थस्थान है तथा इसके द्वारा किये गए सत्कर्मों एवं भगवान् के प्रति अन्य-भक्ति से ही मुक्ति संभव है।
चूँकि कबीर के राम सर्वव्यापी हैं और अगोचर हैं इसलिए वे रहस्यमयी भी हैं। निर्गुण ब्रह्म को कबीर ने अपनी प्रेम भावना का विषय बनाया है। इस कारण उनकी कविता में रहस्यवाद है। कबीर अज्ञात सत्ता के प्रति तीव्र विरहानुभूति को प्रकट करते हैं। उनके यहाँ परमात्मा से मिलन की उत्कंठा है। इस तीव्र उत्कंठा की अभिव्यक्ति इस दोहे में हुई है –
विरह भुवंगम तन बसै मंत्र न लागे कोय।
राम वियोगी ना जिए जिवै तो बौरा होय।।
कबीर की विरहानुभूति एक प्रेमिका की विरहानुभूति के समान है, वे लिखते हैं –
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछुटे राम सूं, ते दिन मिले न राति।।
अर्थात् चकवी अपने जोड़े से यानी चकवे से रात में बिछड़कर दिन में मिल जाती है परंतु जो व्यक्ति राम से बिछुड़ जाता है वह न फिर उनसे दिन में मिल पाता और न रात में। यानी ईश्वर विमुख व्यक्ति की मुक्ति संभव नहीं है।
कबीर के इसी रहस्यवादी भावना के कारण योग साधना, कुंडलिनी जागरण, षट्चक्रों आदि का उल्लेख भी मिलता है। चूँकि कबीर के राम घट-घट व्यापी होते हुए भी आसानी से प्राप्त नहीं होते इस कारण इनके यहाँ सद्गुरु या सतगुरु की महिमा का भी खूब वर्णन हुआ है। कबीर कहते हैं कि सद्गुरु ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बता सकते हैं और हमें सही राह दिखा सकते हैं। इस कारण गुरु की महिमा का जितना बखान कबीर के यहाँ हुआ है, उतना भक्तिकाल के किसी और कवि के यहाँ नहीं। कबीर सद्गुरु के बारे में कहते हैं कि उनकी महिमा अनंत है क्योंकि भगवान् जो अनंत हैं उसके दर्शन भी गुरु ने ही करवाये हैं –
सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार।।
कबीर इस कारण गुरु-गोविंद में कौन बड़ा है, इसका भी निर्धारण नहीं कर पाते हैं। वे इस बात को लेकर द्वन्द्व में हैं कि गुरु और गोविंद दोनों के खड़े होने पर किसके पैर को पहले छुआ जाए- ‘गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूँ पाँए’ । इस द्वन्द्व का समाहार उन्होंने दोनों को एक बताकर किया है –
गुरु गोविन्द तो एक है दूजा यहु आकार।
आपा मेट जीवत मरै तो पावे करतार।।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कबीर की एक सच्चे गुरु भक्त, ईश्वर भक्त और समाज-सुधारक संत के साथ-साथ एक ऐसे कवि भी थे, जिनके यहाँ विरह की तीव्र अनुभूति का मार्मिक चित्रण हुआ है।
सूरदास –
सूरदास कृष्णभक्ति धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। सूरदास का जन्म सन् 1478 ई. में दिल्ली के पास स्थित सीही में हुआ था। कुछ विद्वान इनका जन्म आगरा के पास रुनकता में भी मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे जन्मांध थे। लेकिन सूरदास ने जितनी तन्मयता से अपने काव्य में प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन किया है, उससे कुछ विद्वान सूरदास को जन्मांध नहीं मानते हैं। सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य थे। वल्लभाचार्य ‘शुद्धाद्वैतवाद’ के प्रवर्तक थे। इनके द्वारा प्रतिपादित भक्ति मार्ग को ‘पुष्टि मार्ग’ भी कहा जाता है। पुष्टि से तात्पर्य है, भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहना। पुष्टिमार्ग में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन ‘सख्य भाव’ से किया जाता है। सूरदास की कविताओं पर भी पुष्टि मार्ग का स्पष्ट प्रभाव है। सूरदास की तीन प्रामाणिक रचनाएँ मानी जाती हैं – ‘सूरसागर’, ‘सूरसारावली’ और ‘साहित्य लहरी’।
वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने इन्हें ‘अष्टछाप’ में स्थान दिया था। सूरदास की प्रसिद्धि का मुख्य आधार ‘सूरसागर’ है। सूरदास ने श्रीनाथ जी के मंदिर में भजन-कीर्तन केलिए जिन पदों की रचना की थी, उन्हीं का संकलन ‘सूरसागर’ में किया गया है। ‘सूरसागर’ ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ को आधार बनाकर लिखा गया है। ‘सूरसागर’ में सूरदास ने कृष्ण के जीवन की विभिन्न लीलाओं संबंधित पद लिखे हैं। सूरदास ने मुख्यतः कृष्ण की राधा और गोपियों के साथ लीलाओं एवं कृष्ण के बालरूप का वर्णन किया है। सूरदास इसी कारण वात्सल्य एवं श्रृंगार रस के सम्राट कहे जाते हैं। सूरसागर का ही एक अंग है- ‘भ्रमरगीतसार’, जिसके द्वारा सूरदास ने निर्गुण भक्ति पर सगुण भक्ति को स्थापित किया है। उद्धव-गोपी संवाद द्वारा सूर ने गोपियों की विरह-पीड़ा एवं उनकी वाक्-चतुराई को अभिव्यक्त किया है।
सूरदास की भक्ति-भावना मूलतः सख्य-भाव की है। इस भक्ति भावना के तहत उन्होंने कृष्ण के प्रति नंद-यशोदा के वात्सल्य भाव की तथा राधा एवं गोपियों के दाम्पत्य एवं माधुर्य भाव की सुंदर व्यंजना की है।
सूरदास की भाषा ब्रज है। इनके यहाँ ब्रज भाषा का काव्य-सौंदर्य पूरी तरह निखरकर सामने आता है। सूर के पद गेय हैं और राग-रागिनियों पर आधारित हैं। संगीतात्मकता सूर की काव्य-भाषा का एक प्रमुख गुण है।
सूरदास ने कृष्ण जीवन के सिर्फ वात्सल्य एवं श्रृंगार पक्ष का ही वर्णन किया है लेकिन रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में वे बंद आँखों से इनका कोना-कोना झाँक आये थे।
पाठ्यांश के आधार पर सूरदास की काव्य-संवेदना या काव्य वैशिष्ट्य या काव्यगत-विशेषता
सूरदास वात्सल्य और श्रृंगार के सम्राट कहे जाते हैं। पाठ्यक्रम में सूरदास के वात्सल्य भावना से परिपूर्ण पद दिए गए हैं। सूरदास हिंदी साहित्य के संभवतः पहले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने वात्सल्य भावना के हर पक्ष का चित्रण किया है। बाल मनोविज्ञान और बालक के साथ माता-पिता की जुड़ी भावना का मार्मिक वर्णन सूरदास ने अपने काव्य में किया है। सूर के वात्सल्य वर्णन के बारे में रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है – “बाल सौंदर्य एवं स्वभाव के चित्रण में जितनी सफलता सूर को मिली है, उतनी किसी अन्य को नहीं। वे अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए हैं।”
सूर ने बाल कृष्ण का अत्यंत ही मोहक चित्र खींचा है। सूर के काव्य में वर्णित बाल कृष्ण किसी अवतारी बालक की तरह बल्कि हमारे आसपास के एक प्यारे और नटखट बालक की तरह लगते हैं। सूर के बालक कृष्ण अत्यंत सुंदर हैं –
शोभित कर नवनीत लिए।
घुटरुन चलत रेनु तन-मंडित, मुख-दधि-लेप किए।
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिए।
लट-लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिं पिए।
कठुला-कंठ, बज्र केहरि-नख, राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।।
वे हाथ में मक्खन लेकर घुटनों के बल चलते हैं। इससे उनके शरीर में धूल लगा गया है। मुँह पर दही लगा हुआ है। उनके गाल इस कारण सुंदर दिखाई दे रहे हैं और आँखों में बाल-सुलभ चंचलता है। यह चंचलता बालक द्वारा हर वस्तु को देखने और समझने की जिज्ञासा वाली मनोवृत्ति के कारण पैदा होती है। कृष्ण के घुंघराले बाल इस तरह से लग रहे हैं जैसे भौरों का झुंड हो। सूरदास का कहना है कि जिसने कृष्ण के इस बाल रूप को एक पल भी देख लिया, उसका सुख सौ कल्प जीने के सुख से भी अधिक है। अर्थात् करोड़ों वर्षों का जीवन भी कृष्ण के इस बाल रूप के दर्शन के सामने तुच्छ है।
सूरदास ने वात्सल्य के एक अन्य पक्ष बाल-हठ और बाल-सुलभ जिज्ञासा वृत्ति का भी वर्णन किया है। बच्चों की एक खूबी होती है कि वे हर चीज के बारे में प्रश्न करते हैं और उसका उत्तर जानने की इच्छा रखते हैं। उनके भीतर कौतुहल की भावना प्रधान होती है। अगर बड़े बच्चों को बहलाते या फुसलाते हैं तो बच्चा उसे सत्य मानकर बाद में प्रश्न करता है, जैसे बालक कृष्ण यशोदा से करते हैं –
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी!
किती बार मोंहि दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं ह्वै है लाँबी मोटी।
यहाँ प्रसंग यह है कि यशोदा बालक कृष्ण को हर दिन यह कहकर दूध पिला रही हैं कि इससे तुम्हारी चोटी बड़ी होगी और जैसी बलराम की चोटी मोटी और लंबी है। कृष्ण बालसुलभ जिज्ञासा में यह पूछ रहे हैं कि मेरी चोटी कब बढ़ेगी? जबकि मैं कितने दिनों से दूध पी रहा हूँ, फिर भी यह छोटी ही है। कृष्ण को दूध पीना पसंद नहीं है और यशोदा इसी बहाने से उन्हें अबतक दूध पिलाती आ रही थीं। बालक कृष्ण दूध पीना चाहते नहीं हैं और इसीलिए वे माता यशोदा से प्रश्न कर रहे हैं।
निष्कर्षतः सूरदास ने सिर्फ बाललीला का ही वर्णन नहीं किया है बल्कि इसके द्वारा उन्होंने बच्चों की मनोवृत्तियों को सूक्ष्मता से पकड़ा भी है। इस कारण सूरदास का वात्सल्य वर्णन संसार में अद्वितीय माना जाता है। सूर वात्सल्य के सिद्धहस्त कवि हैं।
तुलसीदास –
तुलसीदास भक्तिकाल के रामभक्ति धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। तुलसीदास की जीवनी के बारे में विवाद है। फिर भी अधिकतर विद्वानों का मानना है कि उनका जन्म सन् 1532 ई. में उत्तरप्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान इनका जन्मस्थान सोरों मानते हैं। कहा जाता है कि इनके माता-पिता ने इन्हें बचपन में ही त्याग दिया था। बड़े होने पर इनका विवाह रत्नावली से हुआ। एक बार रत्नावली की फटकार से इनके भीतर वैराग्य की भावना का जन्म हुआ। इसके बाद ये घर छोड़कर बाबा नरहरिदास के शिष्य हो गये। यहीं उन्होंने गहन अध्ययन किया।
तुलसीदास के नाम से कई रचनाएँ प्रचलित हैं लेकिन सिर्फ 12 ग्रंथों को ही विद्वानों ने प्रामाणिक और तुलसीदास द्वारा रचित माना है। इनमें ‘रामचरतिमानस’, ‘विनय पत्रिका’, ‘कवितावली’, ‘गीतावली’ और ‘दोहावली’ सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। ‘रामचरितमानस’ इनकी प्रसिद्धि का मूल आधार है। आज भी ‘रामचरितमानस’ का घर-घर में पाठ होता है और लोग इसके दोहे और चौपाइयों का उदाहरण देते रहते हैं। ‘रामचरितमानस’ अवधी भाषा में रचित रामकथा पर आधृत महाकाव्य है। इसमें कुल सात कांड हैं। इस ग्रंथ की रचना लगभग 2 वर्ष और 7 माह में पूरी हुई थी। ‘रामचरितमानस’ के विभिन्न भागों को तुलसीदास ने अयोध्या, चित्रकूट एवं काशी में लिखा था।
तुलसी के राम सगुण और साकार हैं। वे विष्णु के अवतार हैं और ‘लोकरक्षा’ एवं ‘लोकमंगल’ के लिए उन्होंने मनुष्य का रूप धारण किया है। वे शक्ति, शील और सौन्दर्य के प्रतीक हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और एक आदर्श भाई, आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श स्वामी और आदर्श पति हैं। तुलसी ने राम एवं ‘रामचरितमानस’ के आधार पर अपने समय के समाज में एक आदर्श स्थापित करने प्रयास किया।
राम के प्रति तुलसी की अनन्य भक्ति है। वे राम को ही अपने जीवन का आधार मानते हैं। अपने समय की समस्याओं एवं सामाजिक दुखों को दूर करने के लिए वे राम को बार-बार पुकारते हैं। कवितावली एवं विनयपत्रिका में भी तुलसीदास की भक्ति-भावना प्रकट हुई है। तुलसीदास का अवधी के साथ-साथ ब्रज भाषा पर भी समान अधिकार था। ‘विनयपत्रिका’, ‘कवितावली’ और ‘दोहावली’ की रचना उन्होंने ब्रज भाषा में किया है। तुलसीदास ने अपने काव्य द्वारा तत्कालीन समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों के बीच समन्वय करने का प्रयास किया। वर्णाश्रम के समर्थक होते हुए वे शबरी, केवट, निषादराज गुह की राम के प्रति भक्ति द्वारा ये दिखाते हैं कि भक्ति में सब बराबर हैं। वैष्णव होते हुए भी शिव के प्रति आदर का भाव उनके काव्य में मिलता है। जबकि इस समय शैव एवं वैष्णवों के बीच काफी झगड़ा था।
‘रामचरितमानस’ एवं कवितावली’ के द्वारा उन्होंने ऐसे ‘रामराज’ की कल्पना की है, जिसमें सभी बराबर होंगे। रामराज में किसी भी व्यक्ति को शारीरिक, आर्थिक और दैविक कष्ट नहीं होगा। सभी अपने-अपने धर्मानुसार आचारण करते हुए प्रेम से रहेंगे। इस ‘रामराज’ की कल्पना तुलसी ने इसलिए की क्योंकि उन्होंने देखा कि उनके चारों ओर अधर्म का बोलबाला है, समाज और परिवार टूट रहे हैं। ईर्ष्या, अहंकार, लालच और गरीबी का बोलबाला है।
तुलसीदास हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य के महान साहित्यकार हैं। उनका काव्य गहरी जीवनदृष्टि, लोकचेतना एवं अनुपम कला का प्रमाण है।
पाठ्यांश के आधार पर तुलसीदास की काव्य-संवेदना या काव्य वैशिष्ट्य या काव्यगत-विशेषता
‘रामचरितमानस’ और ‘कवितावली’ के अतिरिक्त तुलसीदास के जिस ग्रंथ की सर्वाधिक चर्चा होती है, वह है ‘विनयपत्रिका’। यह मुक्तक पदों पर आधारित गीतिकाव्य है। ‘विनयपत्रिका’ का अर्थ है – प्रार्थनापत्र यानी अर्जी। कलियुग के दुखों एवं अत्याचारों से पीड़ित होकर तुलसीदास ने अपने आराध्य राम के दरबार में अपनी दुःख भरी जीवनगाथा प्रस्तुत की है। इस ग्रंथ के पदों में तुलसीदास आम जन को भी संबोधित कर इस संसार की नश्वरता बताते हुए उन्हें राम की भक्ति में ध्यान लगाने को कहते हैं।
‘केसव! कहि न जाइ का कहिये’ पद में तुलसीदास इस संसार के मायावी रूप का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि हे प्रभु इस संसार के बारे में आपसे क्या कहूँ क्योंकि यह भी तो आपकी लीला द्वारा ही रचित है। आपकी यह रचना विचित्र है। इस चित्र यानी संसार को आपने माया रूपी दीवार पर बिना रंग के यानी बिना संकल्प के ही बना दिया है। यह संसार एक मृगमरीचिका है, जिसमें फँसकर मनुष्य बिना मुख वाले मगर के समान काल की गाल में समा जाता है। तुलसीदास भगवान से फरियाद करते हैं कि कोई आपके द्वारा बनाए इस संसार को सत्य कहता तो कोई मिथ्या तो कोई इसे इसका मिला-जुला रूप। लेकिन इससे वही मुक्त हो पाता है जो इन तीनों भ्रमों से परे हो जाता है।
इसी तरह ‘मन पछितैहैं अवसर बीते’ पद में भी तुलसीदास संसार के लोगों को यह कहते हैं कि यह दुर्लभ शरीर मिला है तो इसका उपयोग मन, कर्म और वचन से प्रभु की भक्ति में करो। जब सहस्त्रबाहु और रावण जैसे पराक्रमी राजा भी काल से नहीं बच पाए तो हम साधारण मनुष्यों की औकात ही क्या है। तुलसीदास कहते हैं कि हम घर बनाते हैं, धन संचय करते हैं लेकिन अंत में तो खाली हाथ ही इस दुनिया से चले जाते हैं। संतान और पत्नी अपने-अपने स्वार्थवश हमसे प्रेम करते हैं। इन सबसे नेह करके यानी प्रेम करके कोई लाभ नहीं है। अगर तुम इनका त्याग नहीं करोगे तो एक दिन ये तुम्हारा त्याग कर देंगे। तुलसीदास संसार की निस्सारता बताते हुए कहते हैं कि अब भी समय है कि राम से नाता जोड़ लो। कितने भी भोग-विषय में लिप्त रहो, यह कभी समाप्त नहीं होने वाला। इस सांसारिक भोगों में अपना समय नष्ट न करो।
तुलसीदास ने इन पदों में संसार की निस्सारता को अभिव्यक्त करते हुए राम की भक्ति करने का संदेश दिया है। विनयपत्रिका के इन पदों में तुलसीदास के भक्ति संबंधी दार्शनिक दृष्टिकोण प्रकट हुए हैं। वे इस संसार को मायारूपी मानते हैं। वे इसे ईश्वर की ही लीला मानते हैं लेकिन यह कहते हैं कि जो ईश्वर द्वारा रचित इस मायारूपी संसार को त्याग देता है, वही मोक्ष का अधिकारी होता है। ‘विनयपत्रिका’ ब्रजभाषा में रचित है। इसके पद गेय हैं और इनमें ब्रजभाषा का सहज प्रवाह है।
रहीम –
रहीम का पूरा नाम अब्दुर्ररहीम खानखाना थे। रहीम का जन्म सन् 1556 में लाहौर में हुआ था। इनके पिता का नाम बैरम खाँ था। बैरम खाँ मुगल शासक हूमायूँ का सेनापति था और बाद में अकबर का संरक्षक बना। बाद में मनमुटाव होने के कारण अकबर ने बैरम खाँ को हज पर जाने का आदेश दिया और रास्ते में ही उसकी हत्या कर दी गई। ऐसा कहा जाता है कि अकबर ने ही बैरम खाँ की हत्या करवाई थी। बैरम खाँ ने अकबर की बड़ी सेवा की थी, इस कारण अकबर ने उसके बेटे रहीम को अपने दरबार में उच्च पद पर आसीन किया। रहीम की योग्यता से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें खानखाना की उपाधि दी। वे अकबर के नवरत्नों में शामिल थे। अकबर बाद जहाँगीर के दरबार में भी रहीम का दबदबा बना रहा लेकिन जहाँगीर और शाहजहाँ के बीच की लड़ाई में उन्हें जेल भी जाना पड़ा। अपनी दानप्रियता के लिए प्रसिद्ध अब्दुर्रहीम खानखाना का आखिरी वक्त दरिद्रता एवं कष्टों में बीता। सन् 1626 में उनकी मृत्यु हो गई।
दरबार में प्रभावशाली पद पर रहते हुए भी रहीम ने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। अपने जीवन के इन्हीं उतार-चढ़ावों को उन्होंने कविता में पिरोया और नीतिपरक दोहे रचे। वे अरबी-फारसी के साथ-साथ खड़ी बोली, ब्रज और अवधी के भी जानकार थे। व्यापक जीवन अनुभव एवं गहन का अध्ययन का प्रभाव उनके काव्य में नजर आता है। मुसलमान होते हुए भी उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं की स्तुति में दोहे लिखे हैं। रहीम न तो सूफी थे और न ही वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित, फिर भी उन्हें भारतीय संस्कृति से गहरा प्रेम था। राम, कृष्ण, गंगा, लक्ष्मी आदि के अनेक संदर्भ उनकी कविताओं में मिलते हैं। यह भी एक आश्चर्य का विषय है कि दरबार में रहते हुए भी दरबारीपन उनकी कविता में नहीं है। साधारण जीवन के अनुभव ही उनकी काव्य का विषय रहा है। रामचंद्र शुक्ल ने रहीम के बारे में लिखा है – “रहीम का हृदय द्रवीभूत होने के लिए कल्पना की उड़ान की अपेक्षा नहीं रखता था। वह संसार के सच्चे और प्रत्यक्ष व्यवहारों में ही द्रवीभूत होने के लिए पर्याप्त स्वरूप पा जाता था।”
‘रहीम दोहावली’ या ‘सतसई’, ‘नगर शोभा’, ‘बरवै नायिका भेद’, ‘बरवै’, ‘मदनाष्टक’, ‘श्रृंगार सोरठा’, ‘रहीम काव्य’, ‘खेल कौतुकम्’, ‘दीवाने फारसी’, ‘रासपंचाध्यायी’ आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। भक्ति, नीति, श्रृंगार, उपदेश, धर्म, स्वाभिमान, ज्ञान, वैराग्य आदि सभी विषयों को इन्होंने अपने काव्य में स्थान दिया है। रहीम की भाषा सहज और प्रवाहमयी है।
पाठ्यांश के आधार पर रहीम की काव्य-संवेदना या काव्य वैशिष्ट्य या काव्यगत-विशेषता
रहीम की प्रसिद्धि का मुख्य आधार इनका ‘सतसई’ या ‘दोहावली’ के नीतिपरक दोहे हैं। रहीम ने अपने दोहों की रचना सूक्ति-शैली में की है। इसमें उन्होंने विविध विषय उठाये हैं जो प्रत्यक्ष जीवन अनुभव के अंग हैं। रहीम पूरी भारतीय संस्कृति के कवि हैं। किसी भी काव्य को शुरू करने से पहले ईश्वर-स्तुति की परंपरा लगभग पूरे विश्व में रही है। रहीम मुसलमान थे वे चाहते तो अल्लाह की स्तुति से अपने ग्रंथ की शुरुआत कर सकते थे लेकिन दोहावली के पहले दो दोहों में उन्होंने कृष्ण और गंगा की स्तुति की है। गंगा भारतीय संस्कृति के अनुसार पवित्रता की प्रतीक है। गंगा-स्तुति और भी कवियों ने की है लेकिन रहीम ने गंगा की स्तुति करके सामासिक संस्कृति को अभिव्यक्त किया है। सांप्रदायिकता रहीम के काव्य से कोसों दूर है। रहीम का काव्य मानव-हृदय के एक होने का प्रतीक है। गंगा को अपने सिर पर धारण की इच्छा व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं –
अच्युत-चरण-तरंगिणी, सिव-सिर-मालति-माल।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल।।
रहीम को जीवन का व्यापक अनुभव था। यही अनुभव उनकी कविता में अभिव्यक्त हुआ है। रहीम अपने दोहों द्वारा लोगों को सच्चाई और अच्छाई के मार्ग पर चलने की सीख देते हैं। रहीम यह मानते हैं कि जैसी हमारी संगति होती है, हम वैसे ही बनते हैं। इसका उदाहरण वे स्वाति नक्षत्र की पड़ने वाली बूँद से देते हैं –
कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगति बैठिये, तैसोई फल दीन।।
जिस प्रकार स्वाति नक्षत्र का बूँद एक ही होता है लेकिन अगर यह केले में गिरे तो सुगंध देने वाला कपूर बनता है, सीप के मुँह में जाकर मोती बनता है और साँप के मुँह में जाकर जहर बनता है। उसी प्रकार जिस तरह के लोगों के साथ हमारी मित्रता होती है, हम वैसे ही बन जाते हैं। यानी सज्जन से मित्रता होने पर सज्जन और दुर्जन से मित्रता होने पर हम दुर्जन बन जाते हैं।
इसी तरह रहीम लघुता, प्रभुता, संपत्ति, मान-सम्मान पर भी अपने दोहों द्वारा उपदेश देकर मनुष्य को हर परिस्थिति में एक जैसा व्यवहार करने के लिए कहते हैं। स्वाभिमान को रहीम ने बहुत महत्त्व दिया है। अपने स्वाभिमान के लिए रहीम को स्वयं यातना झेलनी पड़ी थी। रहीम ने लिखा है –
मान सहित विष खायके, संभु भए जगदीश।
बिना मान अमृत पिए, राहु कटाये सीस।।
वे कहते हैं कि स्वाभिमान के साथ विष पीने के बावजूद शिव पूरे संसार के ईश्वर हो गए जबकि अमर कर देने वाली अमृत को पीने पर राहू को अपना सिर कटवाना पड़ा क्योंकि उसने अपने मान की परवाह किए बगैर चोरी से अमृत का पान किया था।
इसी तरह रहीम कहते हैं कि बड़े को अगर छोटा कहे फिर भी वह छोटा नहीं हो जाता है। यानी अच्छे कर्म करने वाले किसी की निंदा से छोटे नहीं हो जाते। उन्होंने लिखा है –
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि॥
उपर्युक्त दोहे में रहीम कहते हैं कि बड़े व्यक्ति को कोई छोटा कह दे तो उसे इस बात का फर्क नहीं पड़ना चाहिए। जैसे कृष्ण को कोई गिरधर यानी पहाड़ को धारण करने वाले की जगह मुरलीधर यानी बाँसुरी को धारण करने वाला कह देता है, फिर भी वे इससे दुखी नहीं होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि महान व्यक्ति का हर कर्म महान ही होता है।
इसी तरह रहीम विचारों से छोटे एवं क्षुद्र लोगों की भी पहचान करवाते हैं –
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय।।
रहीम कहते हैं कि जब ओछे लोग तरक्की करते हैं तो कुछ ज्यादा ही घमंड करते हैं, जैसे शतरंज के खेल में छोटा सा प्यादा जब फरजी बन जाता है तो टेढ़ा चाल ही चलता है। यानी नीच प्रवृत्ति वाले लोग उन्नति करने पर घमंडी हो जाते हैं।
इसी तरह रहीम सच्चे मित्र की कसौटी भी बताते हैं। वे कहते हैं कि धनवान और सामर्थ्यवान होने पर तो बहुत से लोग आपके हितैषी या संबंधी बन जाते हैं, लेकिन विपत्ति यानी संकट के समय जो आपका साथ दे वही सच्चा मित्र होता है –
कहि ‘रहीम’ संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।
बिपति-कसौटी जे कसे, सोई सांचे मीत॥
रहीम के दोहे सच्चे मनुष्य की परख करना सिखाते हैं। मानव जीवन के सीधे पर्यवेक्षण से रहीम ने अपने सूक्तिपरक दोहों की रचना की है। इससे पता चलता है कि रहीम को भारतीय शास्त्र परंपरा और लोक परंपरा का गहरा ज्ञान था। वे उन उदाहरणों को उठाते हैं, जिनसे लोक का सीधा परिचय है। कम शब्दों में गहरी से गहरी और भेदक बात को कह देना रहीम के काव्य की विशेषता है। रहीम अपने दोहों से मनुष्य के हृदय और मस्तिष्क दोनों पर गहरा असर डालते हैं। हिंदू धर्म के प्रतीकों का प्रयोग रहीम के धर्मनिरपेक्ष एवं जातीय कवि होने का प्रमाण है। यही कारण है कि रहीम के दोहे आज भी आमजन की जुबान पर है।
रहीम का अवधी एवं ब्रज दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। आवश्यकतानुसार इन्होंने संस्कृत एवं अरबी-फारसी शब्दों का भी प्रयोग अपने काव्य में किया है, जो लोकभाषा के प्रवाह में सहजता से ढली हुई हैं।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र –
हिंदी साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चंद्र को आधुनिकता का प्रवर्तक माना जाता है। 35 वर्ष की बहुत ही छोटी जीवन अवधि में उन्होंने हिंदी साहित्य के विभिन्न विधाओं को जो दिशा दी, उसका हिंदी समाज हमेशा ऋणी रहेगा। इनका जन्म 9 सितंबर, 1850 को हुआ था और 1885 ई. में इनकी मृत्यु हो गई। इतनी अल्प जीवनावधि में ही भारतेंदु ने निबंध, नाटक, कविता, इतिहास, आत्मकथा, उपन्यास, यात्रा-वर्णन आदि विधाओं में साहित्य रचा। भारतेंदु के पिता गोपालचंद्र काशी के एक प्रतिष्ठित अमीर व्यक्ति होने के साथ-साथ साहित्यकार भी थे और गिरधरराय के नाम से लिखा करते थे। भारतेंदु को साहित्य की परंपरा विरासत में मिली थी। सिर्फ 18 साल की उम्र में उन्होंने बँगला से ‘विद्यासुंदर’ नामक नाटक का अनुवाद हिंदी में किया। सन् 1868 में ही इन्होंने ‘कविवचन सुधा’ नामक पत्रिका निकाली। इसमें साहित्य के साथ-साथ राजनीतिक टिप्पणियाँ भी होती थीं। 1873 ई. में उन्होंने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ निकाली। इसमें उन्होंने लिखा – ‘हिन्दी नई चाल में ढली’। उन्होंने बाद में इस पत्रिका नाम बदलकर ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ कर दिया। अपने नाटकों एवं निबंधों के गद्य से भारतेन्दु ने खड़ी हिन्दी गद्य को नई दिशा दी। उनके इर्द-गिर्द लेखकों की एक मंडली तैयार हुई, जिसे भारतेंदु मंडल कहा गया। भारतेंदु एवं उनके साथियों न सिर्फ खड़ी बोली हिन्दी के गद्य एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं को दिशा दी बल्कि तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर जमकर लिखा।
1857 की क्रांति कुछ वर्ष पहले ही हुई थी। भारतेंदु की लेखनी पर इस विद्रोह का गहरा प्रभाव है। उन्होंने अपने साहित्य में अंग्रेजी शासन का विरोध किया। मातृभाषा, भारतीय संस्कृति, स्वाधीनता, विधवा विवाह, बाल विवाह, स्त्री अशिक्षा जैसे सामाजिक समस्याओं आदि मुद्दों पर खुलकर अपने विचार व्यक्त किए। अपने नाटकों जैसे ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेर नगरी’, ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ आदि द्वारा राजनीतिक एवं सामाजिक भ्रष्टाचार पर व्यंग्य के माध्यम से गहरा प्रहार किया। भारतेंदु अपने साहित्य में अंग्रेजी शासन की कठोर आलोचना करते हैं, कहीं-कहीं वे अंग्रेजी शासन की प्रशंसा भी करते हैं।
भारतेंदु के साहित्य में परंपरा एवं आधुनिकता का द्वन्द्व है। यह द्वन्द्व उनके युग का द्वन्द्व था। भारतेंदु ने साहित्य और समाज के लिए जो किया है उसके लिए उन्हें हिंदी नवजागरण का अग्रदूत कहा जाता है। हिंदी क्षेत्र के जनमानस के भीतर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति विरोध का भाव भारतेंदु एवं उनके साथियों ने ही साहित्य के माध्यम से बोया था, जिसका परिणाम बाद में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान देखने को मिलता है।
‘भारत-दुर्दशा’ कविता का भावार्थ –
‘भारत-दुर्दशा’ कविता भारतेंदु द्वारा सन् 1875 में रचित ‘भारत-दुर्दशा’ नामक ही नाटक से ली गई है। यह इस नाटक का पहला अंक है और एक योगी इसमें भारत की दुर्दशा के बारे में यह कविता कहता है। भारतेंदु इस कविता के माध्यम से भारतीयों को उनकी वर्तमान स्थिति के बारे में जागरूक कर रहे हैं। जिस समय यह कविता लिखी गई थी, तब भारत गुलाम था। यहाँ अंग्रेजों का राज था। भारत की यह गुलामी और दुर्दशा कवि से देखी नहीं जा रही है। वह सभी भारतवासियों को मिलकर रोने को कहता है। भारत के गौरवमय अतीत को याद करते हुए कवि कहता है कि ईश्वर ने सबसे पहले धन, बल और सभ्यता इसी देश को दिया था। यह देश हर दृष्टिकोण से विश्व के अन्य देशों से कहीं आगे था। परंतु आज यह सबसे पीछे है। प्राचीन भारत के राम, युधिष्ठिर, कृष्ण, भीम, अर्जुन, हरिश्चंद्र, नहुष, ययाति जैसे महान पुरुषों को याद करके कवि कहता है कि अब इस देश में सिर्फ मूर्खता, कायरता, कलह और अज्ञानता का राज है। कवि गौरवमय अतीत का स्मरण कर भारतवासियों को उनके बल से परिचित करवाना चाहता है। जिससे वे गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए एकजुट होकर प्रयास करें।
कवि कहता है कि हमें आपसी धार्मिक झगड़ों के कारण अपने गौरव को खो दिया है। हमारी आपसी लड़ाइयों के कारण ही विदेशी हम पर शासन कर रहे हैं। इन विदेशियों के शासन ने हमारी विद्या, बुद्धि, बल और धन को कई बार नष्ट किया है। अब हर जगह भारतीयों में आलस और कलह का ही वास है। कवि आगे कहता है कि हम भारतवासी गरीब और कमजोर हो गए हैं। लगता है जैसे हम लोग लूले-लंगड़े और अंधे हो गए हैं क्योंकि इस दुर्दशा से निकलने के लिए हमलोग प्रयास नहीं कर रहे हैं।
कवि कहता है कि अंग्रेजों के राज में कुछ सुख-सुविधाओं का आगमन हुआ तो है लेकिन हमारे देश का धन ब्रिटेन जा रहा है। इसके अलावा महँगाई, मृत्यु, रोग आदि दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं। ईश्वर हर दिन हमारे दुखों को बढ़ा रहा है। सबको अब टैक्स यानी कर देना होता है, अंग्रेजी राज के कारण यह एक नई मुसीबत हमारे सामने आ गई है। एक समय महान एवं समृद्ध रहे भारतवर्ष की ऐसी हालत अब देखी नहीं जाती है।
प्रस्तुत कविता नवजागरण की भावना को अभिव्यक्त करती है। इसमें भारतवासियों को उनके गौरवमयी अतीत का स्मरण कराके अंग्रेजी शासन के खिलाफ आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित किया जा रहा है। भारतेंदु इसमें अंग्रेजी शासन के साथ-साथ भारत की तत्कालीन दुर्दशा के लिए भारतीयों को भी जिम्मेदार मानते हैं। आलस्य और आपसी कलह को वे भारत की दुखद स्थिति का मुख्य कारण मानते हैं। भारतेंदु का मानना है कि अगर प्राचीन गौरव की स्थापना करनी है और भारतवर्ष को फिर से श्रेष्ठ बनाना है तो सभी भारतीयों को एकजुट होना होगा। सभी भारतीयों को उनका आलस्य छोड़ना होगा, तभी हम सब स्वर्णिम भविष्य की स्थापना कर पाएँगे।
माखनलाल चतुर्वेदी –
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं। इनका जन्म 4 अप्रैल, 1889 ई. को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में हुआ था। एक कवि के साथ-साथ उन्होंने एक पत्रकार तथा स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी राष्ट्रीय आंदोलन में अपना योगदान दिया। उन्होंने ‘कर्मवीर’, ‘प्रभा और ‘प्रताप’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। इन पत्रिकाओं में वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ लेख लिखकर देशवासियों को आजादी के आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित करते थे।
माखनलाल चतुर्वेदी ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से राष्ट्रीय कविताएँ लिखा करते थे। इनकी कविताओं में राष्ट्रीयता का भाव प्रमुख था। इन्होंने ओजपूर्ण शैली में ऐसी कई कविताएँ लिखीं जो आमजन में लोकप्रिय हुईं। ‘पुष्प की अभिलाषा’ भी ऐसी ही कविता है। ‘हिम-किरीटनी’, ‘हिम-तरंगिनी’, ‘माता’, ‘समर्पण’ और ‘युगचरण’ इनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ हैं। इनकी कविताओं पर छायावादी शैली का भी प्रभाव है। इन्होंने राष्ट्रीयता के साथ-साथ प्रकृति एवं प्रेम पर भी कविताएँ लिखी हैं। इनकी प्रकृति एवं प्रेम संबंधी कविताओं में रहस्य भावना है।
सन् 1955 में माखनलाल चतुर्वेदी को उनके काव्य-संग्रह ‘हिम-किरीटनी’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। साहित्य एवं सामाजिक जीवन में उल्लेखनीय कार्य के लिए 1963 ई. में उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। माखनलाल चतुर्वेदी एक ऐसे कवि थे जो साहित्य और राजनीति को साथ-साथ चलने वाला मानते थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उनकी कविताओं ने उत्साह भरने का कार्य किया था, वहीं आजादी के बाद देश के नेताओं की पदलोलुपता के क्षुब्ध होकर उन्होंने ‘अब तुम पदलोलुप देशभक्त अनदेखे’ जैसी कविताएँ भी लिखीं।
माखनलाल चतुर्वेदी की राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कविताओं की भाषा सहज एवं प्रवाहमयी है। इन्होंने ओजपूर्ण भावों के अनुकूल भाषा का चयन किया है।
पुष्प की अभिलाषा कविता का भावार्थ
इस कविता में कवि ने एक पुष्प के माध्यम से देश के लिए सर्वस्व त्याग की भावना को अभिव्यक्त किया है। जिस समय यह कविता लिखी गई थी, उस समय देश गुलाम था और आजादी का आंदोलन चल रहा था। देशवासियों को इस स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित करने हेतु कवि ने इस कविता की रचना की थी।
इसमें एक पुष्प की यह अभिलाषा है यानी इच्छा है कि वह किसी सुंदर स्त्री या अप्सरा के गहनों में गूँथा न जाए। वह प्रेमी की माला का भी हिस्सा नहीं बनना चाहता है। वह न तो सम्राटों के शवों पर चढ़ाना चाहता है और न ही देवताओं के सिर पर चढ़कर अपने भाग्य पर इठलाना चाहता है। इस पुष्प की सिर्फ यही इच्छा है कि वनमाली उसे तोड़कर उस पथ पर फेंक दे जिस रास्ते से राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए आजादी के मतवाले जा रहे हैं। पुष्प के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि हमें देश की आजादी के लिए हर प्रकार के त्याग के लिए तैयार होना होगा। हमें यथाशक्ति इस स्वाधीनता आंदोलन या तो हिस्सा लेना चाहिए या फिर स्वाधीनता सेनानियों की मदद करनी चाहिए।
इस कविता का आशय यही है कि राष्ट्र के लिए सर्वस्व त्याग के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। राष्ट्र के लिए किया गया कोई भी त्याग छोटा नहीं होता है।
सुभद्रा कुमारी चौहान –
सुभद्रा कुमारी चौहान राष्ट्रीय काव्यधारा की प्रतिनिधि कवयित्री हैं। इनका जन्म 16 अगस्त, 1904 ई. को प्रयागराज के निहालपुर में हुआ था। इनके पिता जमींदार थे। 15 वर्ष की उम्र में उनकी शादी खंडवा (मध्यप्रदेश) के लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ हुई। शादी के बाद भी इन्होंने अपनी पढ़ाई-लिखाई जारी रखी। बाद में इन्होंने असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया और जेल भी गईं। माखनलाल चतुर्वेदी के साथ इन्होंने कुछ दिन ‘कर्मवीर’ पत्रिका का भी संपादन किया। माखनलाल चतुर्वेदी की प्रेरणा से ही इन्होंने राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कविताएँ लिखनी शुरू कीं।
सुभद्रा कुमारी चौहान कवयित्री के साथ-साथ कहानीकार भी थीं। ‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’ इनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। ‘बिखरे मोती’, ‘उन्मादिनी’ और ‘सीधे-सादे चित्र’ इनके कहानी-संग्रह हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान का मुख्यतः कवयित्री के रूप में ही स्वाधीनता आंदोलन के दौरान प्रसिद्ध हुईं। इनके द्वारा रचित ‘झांसी की रानी’ कविता अत्यंत प्रसिद्ध है। यह एक वीर काव्य है। इसके अतिरिक्त ‘वीरों का हो कैसा वसंत’, ‘जलियाँवाला बाग में वसंत’ आदि में भी ओजपूर्ण राष्ट्रीय चेतना का भाव अभिव्यक्त हुआ है। देशभक्तिपूर्ण कविताओं के अलावे सुभद्रा कुमारी चौहान ने प्रेम, प्राकृतिक सौंदर्य, दाम्पत्य जीवन, पारिवारिक जीवन, वात्सल्य भावना आदि को भी काव्य का विषय बनाया है। ‘ठुकरा दो या प्यार करो’, ‘प्रियतम से’, ‘प्रथम दर्शन’, ‘प्रतीक्षा’ आदि कविताओं में उन्होंने प्रेम के सुकोमल भावनाओं को व्यक्त किया है। इन कविताओं पर छायावाद का भी हलका प्रभाव परिलक्षित होता है।
आधुनिक युग में पारिवारिक संबंधों एवं वात्सल्य प्रेम को विषय बनाने वाले कवि-कवयित्रियों में सुभद्रा कुमारी चौहान का स्थान प्रथम है। ‘मेरा बचपन’, ‘बालिका का परिचय’, ‘भैया कृष्ण’, ‘यह कदम्ब का पेड़’ आदि इसी श्रेणी की कविताएँ हैं। इनके यहाँ शैशव और यौवन के सौंदर्य का सजीव एवं स्वाभाविक चित्रण मिलता है। राष्ट्रीय भावना के परिपूर्ण कविताओं में जहाँ ओज है, वहीं प्रकृति, प्रेम, वात्सल्य आदि पर लिखी कविताओं मार्मिकता और भावुकता की प्रधानता है। इनमें कवयित्री का नारी-सुलभ हृदय प्रकट होता है।
सुभद्रा कुमारी चौहान की भाषा सरल और सहज है। इनके यहाँ खड़ी बोली हिंदी में संस्कृत के साथ-साथ आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले अरबी-फारसी शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। इनकी भाषा में सजीवता है जो पाठक से सीधा संवाद करती है।
‘मेरा बचपन’ कविता का भावार्थ
प्रस्तुत कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान ने बचपन की मधुर स्मृतियों को व्यक्त किया है। कवयित्री सयानेपन यानी जवानी के महत्वहीन नहीं कहती बल्कि बचपन को उससे ज्यादा महत्वपूर्ण पड़ाव मानती हैं। प्रस्तुत कविता का भाव यह है कि बचपन में हमें किसी तरह की चिंता नहीं रहती। हमें हर किसी से प्यार मिलता है। बचपन में एक खास तरह की पवित्रता होती है, जिसमें किसी तरह का भेद नहीं होता है। बच्चे के लिए कोई ऊँच-नीच नहीं होता है। बच्चे का रूदन भी घर को खुशियों से भर देता है। कभी उसे माँ का प्यार मिलता है तो कभी दादा का। कवयित्री यह कहती हैं कि बड़े होने पर उन्हें प्रियतम का प्रेम मिला। जवानी का उत्साह मिला। इसके साथ ही साथ एक निराला जीवन मिला, जिसमें इच्छा-आकांक्षा और ज्ञान का उदय हुआ। परंतु कवयित्री इसे जवानी को एक फंदा मानती हैं। सांसारिक भागदौड़ में वह आनंद नहीं जो बचपन की बेफिक्री में था।
कवयित्री फिर से बचपन में लौटना चाहती हैं, उसी वक्त उनकी बेटी वहाँ आ जाती है। बेटी की बालसुलभ चेष्टाओं एवं तोतली बोली से कवयित्री को लगता है कि उसका बचपन फिर से लौट आया है। माता का हृदय अपनी बेटी के भोलेपन पर रीझ गया और उसे ऐसा लगा कि जैसे बेटी के रूप में फिर से उसका बचपन वापस आ गया है।
प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने जीवन के विभिन्न पड़ावों में बचपन की महत्ता को बताया है। यह एक ऐसा पड़ाव होता है, जहाँ सांसारिक झंझटों से हम परे होते हैं। जवानी में तरह-तरह के आनंद का भोग हम भले ही करते हैं परंतु बदले में हमें भी अपना बहुत कुछ देना होता है। बचपन के साथ ऐसी बात नहीं। अब बचपन तो दुबारा लौटकर नहीं आ सकता तो हमें अपने बच्चों में ही अपने बचपन को देखना होगा। यही जीवन का सार है। कभी हम बच्चे होकर बचपन का आनंद लेते हैं और जवानी में बच्चों के माता-पिता बनकर इस बचपन को एक बार फिर से जीते हैं।
पंडित रामनरेश पाठक
रामनरेश पाठक हिंदी नवगीत परंपरा के प्रमुख कवि हैं। इनका जन्म 12 नवंबर, 1929 ई. को बिहार के औरंगाबाद जिले के केताकी गाँव में हुआ था। इनकी मुख्य पहचान ‘नवगीत’ के कवि के रूप में है। हिंदी साहित्य में ‘नवगीत आंदोलन ‘नयी कविता’ के समानांतर चलने वाला काव्य-आंदोलन था। हिन्दी में ‘नवगीत’ की विशुद्ध चर्चा पहली बार राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा संपादित एवं सन् 1950 में प्रकाशित ‘गीतांगिनी’ में हुई। शंभुनाथ सिंह ने ‘नवगीत’ काव्य-आंदोलन को व्यवस्थित किया और वे ही इसके प्रवर्तक भी माने जाते हैं। 80 के दशक में ‘नवगीत दशक’ के तीन भागों का प्रकाशन हुआ जिसमें ‘नवगीत’ से जुड़े विभिन्न कवियों की कविताओं का संकलन किया गया है।
‘नवगीत’ में ‘नयी कविता’ की गद्यात्मकता की जगह गीतात्मकता पर बल दिया गया। नवगीतकारों ने छंद की जगह तुक और लय के आधार पर कविताएँ लिखीं। रामनरेश पाठक भी एक प्रमुख नवगीतकार थे। 'अनामा' ,'क्वार की सांझ', 'प्रक्रिया के एक कवि', 'अपूर्वा', 'एक गीत लिखने का मन', 'मैं अथर्व हूँ' आदि इनके काव्य-संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त ‘नवगीत’ की विशेषताओं को लेकर इन्होंने कई आलोचनात्मक लेख भी लिखें हैं। इनके अनुसार ‘नवगीत’ लय और गति से जुड़ा काव्यांदोलन है। इसमें ‘नयी कविता’ की जटिलता की जगह परिवेश की सहजता है। इसमें ‘नयी कविता’ की चित्रात्मकता की जगह ध्वनि की प्रधानता है। ‘नवगीत’ की एक और विशेषता यह है कि इसमें लोकसंस्कृति, लोकभाषा और लोकतत्व का समावेश है।
रामनरेश पाठक की कविताओं में भी ध्वनि, लय और गति का समावेश है। लोकतत्त्व की प्रधानता इनके काव्य का प्रमुख विषय है। ‘मेरा गाँव’, ‘यह शहर’ जैसी कविताओं में इनके यहाँ पलायन की पीड़ा की गीतात्मक अभिव्यक्ति हुई है। पलायन बिहार के समाज की कड़वी सच्चाई है। इन्होंने इस सच्चाई के पीछे दर्द को स्वर दिया है –
एक लम्बे अरसे से मेरा घर
जब छोड़ रहा हूँ तो
मैं उतना ही उदास हूँ जितना
नैहर छोडती हुई कोई लड़की
उदास हो जाती है
या कोई परदेशी गाँव छोड़ते हुए
अपनी उदासी के समंदर में डूब जाता है
‘गुलाब के गीतों में’, ‘महुए के पीछे से झाँका है चाँद’ जैसी कविताओं में ग्रामीण परिवेश के प्राकृतिक सौंदर्य का बड़ा सुंदर चित्रण इन्होंने किया है। इनकी भाषा में ग्राम्य संस्कृति की मादकता है। साहित्यिक हिंदी में इन्होंने मगही जैसी लोकभाषा के शब्दों का सधा प्रयोग किया है। इनकी मृत्यु 22 अक्टूबर, 1999 ई. को हुई। नवगीत परंपरा के विकास में रामनरेश पाठक का अमूल्य योगदान है।
‘हम न बोलेंगे’ कविता का भावार्थ
प्रस्तुत कविता में प्राकृतिक रमणीयता का वर्णन किया गया है। कवि यह कहता है कि प्राकृतिक सौंदर्य के बारे में वह क्या बोलेगा। कमल के पत्ते स्वयं इस प्राकृतिक सुंदरता और छटा के बारे में बोलेंगे। कमल कीचड़ में पैदा होता है और वही इस कीचड़ के रंग के बारे में बता सकता है। वह जेठ की गर्मी सह रहा है और भादो की बारिश का आनंद भी ले रहा है। किसी वन या रेगिस्तान से हवा क्या लाई है? जूही की खुशबू कैसी है? इन सब प्रश्नों का उत्तर कमल के पत्ते ही देंगे क्योंकि वही इनका अनुभव कर रहा है। कवि इस कविता में अनुभव की प्रामाणिकता पर जोर दे रहा है। पत्तों पर गिरने वालों पत्तों का क्या अर्थ है, या भविष्य में क्या होगा? इन सबका उत्तर कमल के पात ही देंगे। वही रावी नदी के किनारे के जुड़े इतिहास और मिथक की सच्चाई बताएगा। कमल का पात इस कविता में जमीन से जुड़े मनुष्य का प्रतीक है, जो सबकुछ भोग रहा है। अपने संघर्षों से भविष्य भी वही तय करेगा और अपने इतिहास तथा मिथक की पुनर्रचना करेगा। इस कविता में प्राकृतिक सौंदर्य के बहाने जमीन से जुड़े व्यक्ति की दास्तान कही गई है।
सद्गति (कहानी) – प्रेमचंद
प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन परिचय
प्रेमचंद सिर्फ हिन्दी साहित्य के ही वरन् विश्व के महान साहित्यकारों की श्रेणी में गिने जाते हैं। प्रेमचंद को ‘कथा-सम्राट’ और ‘उपन्यास सम्राट’ भी कहा जाता है। प्रेमचंद हिंदी के साथ-साथ उर्दू साहित्य के भी बड़े कथाकारों में शुमार किए जाते हैं। प्रेमचंद के लगभग सारे उपन्यास और कहानियाँ हिंदी के साथ-साथ उर्दू में प्रकाशित हैं। वे दोनों भाषाओं में लिखा करते थे। इस कारण प्रेमचंद को गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतिनिधि भी माना जाता है।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, सन् 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में हुआ था। इनका वास्तविक नाम धनपत राय था और बचपन का नाम नवाब राय था। प्रेमचंद ने अपनी शुरुआती रचनाएँ नवाबराय के नाम से ही लिखीं थी। प्रेमचंद का पहला उपन्यास सन् 1903 में उर्दू में प्रकाशित हुआ था, जिसका नाम ‘असरारे मआबिद’ (हिन्दी में देवस्थान रहस्य) था। प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानियाँ ‘ज़माना’ नाम की उर्दू पत्रिका में प्रकाशित हुईं। इन कहानियों में देशभक्ति की भावना प्रबल थी। इन कहानियों का संग्रह सन् 1907 में ‘सोज़े वतन’ के नाम से प्रकाशित हुआ, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त करके जला दिया। बड़ी मुश्किल से प्रेमचंद गिरफ्तार होने से बचे। इसके बाद वे प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे। प्रेमचंद के नाम से इनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ सन् 1910 में प्रकाशित हुई।
सन् 1936 में अपनी मृत्यु से पहले तक प्रेमचंद ने लगभग 300 कहानियाँ और लगभग 12 उपन्यास लिखे। ‘सेवासदन’ प्रेमचंद का पहला उपन्यास है। इसके अलावा ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ इनके प्रमुख उपन्यास हैं। ‘गोदान’ प्रेमचंद की प्रसिद्धि का मूल आधार है। प्रेमचंद ने इसमें कृषक जीवन की आशा-आकांक्षाओं और शासन-तंत्र द्वारा उसके शोषण का पूरी सहृदयता से चित्रण किया है। किसानों और स्त्रियों की समस्या को प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में प्रमुखता से उठाया है। ‘मंगलसूत्र’ इनका अपूर्ण उपन्यास है। इस उपन्यास को पूरा करने से पहले ही प्रेमचंद की मृत्यु हो गई थी।
उपन्यासों की तरह कहानियों में भी प्रेमचंद ने ग्राम-जीवन से अपने विषय चुने हैं। ‘ईदगाह’, बड़े घर की बेटी’, ‘पंच-परमेश्वर’, ‘नमक का दरोगा’, ‘पूस की रात’, ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘सद्गति’, ‘दूध का दाम’, ‘घासवाली’, ‘कफन’ आदि। प्रेमचंद अपनी कहानियों में स्त्री जीवन, किसान जीवन, दलित जीवन की कठिनाइयों के साथ-साथ जीवन के अनेक पहलुओं एवं समस्याओं को उठाया है। प्रेमचंद की शुरुआती रचनाएँ आदर्शवादी हैं। इन कहानियों या उपन्यासों में प्रेमचंद ने पात्रों का हृदय परिवर्तन होते हुए दिखाया है। बाद की रचनाओं में प्रेमचंद अधिक यथार्थवादी नजर आते हैं। ‘पंच परमेश्वर’, ‘नमक का दरोगा’, ‘बड़े घर की बेटी’ जैसी कहानियों में वे पात्रों का हृदय-परिवर्तन कर सामाजिक-समस्याओं का समाधान दिखाते हैं लेकिन बाद की कहानियों प्रेमचंद ऐसा नहीं करते हैं। प्रेमचंद की बाद की कहानियों को पढ़कर ऐसा लगता है वे व्यक्ति नहीं समाज के परिवर्तन के हिमायती थे।
कथा-साहित्य के अलावा प्रेमचंद ने अनेक सामाजिक मुद्दों पर निबंध भी लिखे हैं। अपने जीवन-काल में इन्होंने ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’, ‘हंस’, ‘जागरण’ आदि कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
प्रेमचंद की भाषा सहज और प्रवाहपूर्ण है। वे पात्रानुकूल भाषा शैली का प्रयोग करते हैं। प्रेमचंद की कहानियों या उपन्यासों के पात्रों की भाषा से ही उनके निवास-स्थान, शिक्षा-दीक्षा, उम्र, व्यवसाय आदि का पता चल जाता है। प्रेमचंद खड़ी बोली हिन्दी में ग्रामीण देशज शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं। इससे पाठक ग्रामीण परिवेश या उस पात्र के साथ से जुड़ाव महसूस करता है।
हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद के महत्व का पता इसी तथ्य से लग जाता है कि जिस काल में वे लिख रहे थे, उसे हिंदी साहित्य के कहानी और उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद युग के नाम से जाना जाता है। प्रेमचंद हिंदी साहित्य के साथ-साथ पूरे भारतीय साहित्य के एक अनमोल रतन हैं।
‘सद्गति’ कहानी का सारांश/उद्देश्य
‘सद्गति’ दलित जीवन की पीड़ा को अभिव्यक्त करने वाली कहानी है। दुखी चमार के माध्यम से प्रेमचंद ने इस कहानी में जाति-व्यवस्था की क्रूरता को उजागर किया है। जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है। प्रेमचंद जिस समय यह कहानी लिख रहे थे, उस समय जाति-व्यवस्था के बंधन और भी मजबूत थे। उस समय छुआछूत एवं जाति-प्रथा की समस्या को लेकर सामाजिक आंदोलनों की शुरुआत हो गई थी। एक तरफ महात्मा गाँधी दलितों के मंदिर प्रवेश का समर्थन कर रहे थे तो दूसरी तरफ भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में दलितों के पानी के हक के लिए महाड़ सत्याग्रह हो चुका था। ‘सद्गति’ भी इसी परिप्रेक्ष्य में लिखी गई कहानी है। इस कहानी को लिखने के पीछे का उद्देश्य जाति-व्यवस्था के अमानवीय पक्ष को उजागर करना था।
यजमानी प्रथा एक पुरानी प्रथा है। जाति-व्यवस्था को मानने वाले अपना हर शुभ कार्य ब्राह्मणों से करवाते हैं। सद्गति कहानी का मुख्य पात्र दुखी चमार भी अपनी बेटी के विवाह की मुहूर्त अपने गाँव के पंडित घासीराम से निकलवाना चाहता है। दुखी और उसकी पत्नी झुरिया की बातचीत से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में उस समय छुआछूत की भावना कितनी गहरी थी। दुखी बार-बार अपनी पत्नी को हिदायत देता है कि वह पंडित जी को दिए जाने वाले सीधे यानी दक्षिणा के वस्तुओं को न छुए।
दुखी अपनी पत्नी को सारा इंतजाम करने के लिए कह पंडित घासीराम के घर उन्हें बुलाने जाता है। गरीब दुखी के पास पंडितजी को भेंट देने केलिए कुछ नहीं है इसलिए वह घास ले जाता है। दुखी दूर से ही पंडित जी को दण्डवत् प्रणाम करता है। पंडित जी उससे आने का कारण पूछते हैं और कहते हैं कि शाम में वे उसके यहाँ जाएँगे। इसी बीच वे दुखी से घर के कई काम करने को कहते हैं और एक लकड़ी की गाँठ फाड़ने को कहते हैं। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। लेकिन उसे डर था कि अगर वह खाने चला गया तो पंडित जी फिर उसके यहाँ नहीं आएँगे। इससे उसकी बेटी के विवाह का मुहूर्त नहीं निकल पाएगा। दुखी पंडित जी का सारा काम करता है। बीच में वह जब चिलम के लिए आग माँगने जाता है तो पंडिताइन उसे काफी बुरा भला कहती है। वह कहती है कि – “चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाए घर में चला आता है। हिंदू का घर न हुआ, कोई सराय हुई।” इस कथन से स्पष्ट है कि अछूत जातियों को तब सर्वण हिन्दू नहीं मानते थे। प्रेमचंद ने यहाँ जाति-व्यवस्था की उस विडंबना को भी दिखाया है जहाँ दलित अपने कष्टों को नियति मानता है। जाति-व्यवस्था की नींव पुनर्जन्म और पूर्व जन्म में किए गए पापों के बारे में फैलाई गई मान्यताओं पर टिकी है। सवर्ण ही नहीं बल्कि दलित वर्ग के लोग भी इन मान्यताओं को मानते हैं। दुखी बार-बार कहता है कि ब्राह्मण का रुपया दबाने वाले के घर का सत्यानाश हो जाता है, ब्राह्मण की रोटी उसे नहीं पचेगी या ब्राह्मण के घर को अपवित्र करने का फल मिल गया।
प्रेमचंद दुखी के मनोविज्ञान से यह कहना चाहते हैं कि जाति-व्यवस्था इसलिए भी टिकी हुई है कि इसमें निचले पायदान पर अवस्थित जातियों के लोग इसे अपनी नियति या भगवान की मर्जी मानते हैं।
दुखी पंडित घासीराम का सारा काम कर देता सिर्फ लकड़ी नहीं चीर पाता है। उसी गाँव में एक गोंड भी रहता है। गोंड दुखी को पंडित घासीराम से खाना माँगने को कहता है पर दुखी ऐसा नहीं करता है। वहीं घासीराम भी अपनी तरफ से दुखी को कुछ खाने को नहीं देते हैं। दुखी भूख और थकान के कारण लकड़ी की गांठ को नहीं फाड़ पाता है। जब पंडित घासीराम आराम करके निकलते हैं तो दुखी को वहाँ सोया हुआ देखते हैं। वे दुखी को कहते हैं कि जैसा काम करोगे उसी तरह की साइत निकलेगी। दुखी फिर से लकड़ी की गाँठ चीरने में लग जाता है। पंडित घासीराम भी उसका उत्साह बढ़ाते हैं। लकड़ी की गाँठ को दम लगाकर दुखी फाड़ता है और वहीं बेहोश होकर गिर जाता है। थकान, कठोर परिश्रम और भूख के कारण दुखी की वहीं मौत हो जाती है। दुखी की मौत की खबर सब जगह फैल जाती है। गोंड दुखी की बस्ती में जाकर कहता है कि यह पुलिस का मामला इसलिए कोई लाश नहीं उठायेगा। चमारों की बस्ती से कोई भी दुखी की लाश उठाने नहीं जाता है। पंडित घासीराम भी चमारों को समझा-बुझाकर थक जाते हैं। दुखी की पत्नी और बेटी भी उसकी लाश के पास जाकर रो-धोकर रात में लौट जाते हैं। दुखी चमार जाति का था इसलिए कोई ब्राह्मण उस रास्ते से नहीं जा रहा था। पंडित घासीराम अलगे दिन सुबह एक रस्सी का फंदा बनाकर उसे दुखी चमार के पैरों में फंसाकर उसकी लाश को गाँव की सीमा के बाहर घसीटकर ले जाते हैं। आने के बाद वे गंगाजल से अपने घर को पवित्र करते हैं। उधर दुखी की लाश को कुत्ते, सियार, गिद्ध आदि नोंच-नोंचकर खा रहे होते हैं।
दुखी का यह अंत जाति-व्यवस्था की क्रूरता को दिखाता है। एक तरफ दुखी जैसे लोग हैं जो कठोर परिश्रम करने के बावजूद गरीबी और यातना में अपना जीवन बिताते हैं, दूसरी तरफ पंडित घासीराम जैसे लोग हैं जो दुखी जैसे लोगों के श्रम पर मौज कर रहे हैं। लेकिन इनमें थोड़ी भी मानवता नहीं है। प्रेमचंद इस अमानवीय व्यवस्था का अंत चाहते हैं। गोंड के द्वारा उन्होंने भावी समय की ओर इशारा भी किया है, जब लोग इस तरह की अमानवीयता का विरोध करेंगे। प्रेमचंद ने इस कहानी में यथार्थवादी दृष्टिकोण से जाति-व्यवस्था के स्याह पक्ष का चित्रण किया है।
नाखून क्यों बढ़ते हैं (ललित निबंध) – हजारीप्रसाद द्विवेदी
हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक जीवन परिचय
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त, 1907 ई. को उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के एक गाँव में हुआ था। हजारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ साहित्यकार हैं। वे एक सफल इतिहासकार, निबंधकार, संपादक, अन्वेषक, निबंध लेखक, उपन्यासकार, समीक्षक और चिंतक थे।
इतिहासकार और आलोचक के रूप में उन्होंने हिंदी साहित्य में कई नई मान्यताओं का प्रतिपादन किया। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका, ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’, ‘हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास’, ‘कबीर’, ‘सूर-साहित्य’, ‘नाथ-संप्रदाय’ जैसे इतिहास एवं आलोचना ग्रंथों के माध्यम से उन्होंने कई नई स्थापनाएँ दी। हिंदी साहित्य के आदिकाल में सिद्धों,नाथों एवं जैनों की रचनाओं का महत्व सर्वप्रथम हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ही पहचाना। भक्तिकाल के उदय को भी उन्होंने भिन्न दृष्टि से देखने की कोशिश की और इसे भारतीय चिंतन धारा का स्वाभाविक विकास कहा। कबीर की भाषा की शक्ति को हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ही पहचाना। आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल आदि पर द्विवेदीजी के विचारों की महत्ता आज भी है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्य को मनुष्य के दृष्टिकोण से देखने के हिमायती थे। वे मानते थे – ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’। मानवता यानी मनुष्यता को वे सर्वोपरि मानते थे। इतिहास एवं संस्कृति पर उनकी गहरी पकड़ थी। वे इतिहास पर इसलिए जोर देते थे ताकि पुराने में जो अच्छा है, उसे त्यागा न जाए और नए में जो अच्छा है, उसे परंपरा के नाम पर नकारा न जाए। इसी कारण इन्होंने इतिहास एवं पुराण की कहानियों को आधार बनाकर ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारु चंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ जैसे प्रसिद्ध उपन्यास लिखे। ऐतिहासिक आधार होते हुए भी इन उपन्यासों में आधुनिक जीवन की गुत्थियों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी एक सफल निबंधकार भी हैं। निंबध-लेखक के रूप में इन्होंने आत्म-व्यंजना के अनेक सफल प्रयोग किए हैं। इनके निबंधों को ललित निबंध की कोटि में रखा जाता है। यानी इनके निबंधों में लालित्य का गुण है। ललित निबंध की यह विशेषता होती है कि इसमें हलके-फुलके अंदाज में गंभीर से गंभीर बात कह दी जाती है। ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’, ‘विचार और वितर्क’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘कुटज’ और ‘आलोक-पर्व’ इनके निबंध संग्रह हैं। द्विवेदीजी निबंध को व्यक्ति की स्वाधीन चिंता की उपज मानते हैं। उनके निबंधों में मनुष्य की शक्ति में विश्वास प्रकट किया गया है। उन्होंने भाषा, संस्कृति, साहित्य, धर्म, इतिहास आदि अनेक विषयों के संबंध में विचार व्यक्त किए हैं। द्विवेदीजी पर रवींद्रनाथ ठाकुर के विचारों का गहरा प्रभाव है। सन् 1979 में हजारीप्रसाद द्विवेदी का निधन हुआ।
‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ निबंध का सारांश या उद्देश्य
प्रस्तुत निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध-संग्रह ‘कल्पलता’ में संग्रहीत है। अपनी बेटी के एक बाल सुलभ प्रश्न के माध्यम से द्विवेदी ने नाखून बढ़ने की सामान्य सी लगने वाली प्रवृत्ति से वैश्विक समस्या पर विचार किया है। हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि नाखून को हम इसलिए काटते हैं क्योंकि यह हमारी पशुता की निशानी है। किसी समय में इसी नाखून का उपयोग हम अस्त्र के रूप में करते थे लेकिन आज इसका बढ़ा होना अच्छा नहीं माना जाता। नाखून बढ़ने को अच्छा इस कारण नहीं माना जाता है क्योंकि यह हमारे पशु होने का प्रमाण है। द्विवेदीजी यहीं प्रश्न खड़ा करते हैं कि क्या अणु-परमाणु शक्ति एवं अन्य घातक हथियारों को बनाकर अपने पशु होने का प्रमाण तो नहीं दे रहे हैं। वे यह कहते हैं कि नाखून हम इसलिए काटते हैं क्योंकि ये हमारी बर्बरता की निशानी है लेकिन क्या इतने घातक हथियारों को बनाना हमारी बर्बरता की निशानी नहीं है। हिरोशिमा एवं नागासाकी पर गिराये गए परमाणु बमों एवं युद्धों को द्विवेदी जी बर्बरता की ही पहचान कहा है। उनका मानना है कि नाखून काटकर हम अपनी बर्बरता या पशुता को भले ही छिपा लें परंतु इतनी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद हममें पशुता का ही वास है।
द्विवेदी जी सामाजिक इतिहास और विज्ञान के माध्यम से नाखून की विशेषताओं को भी बताया है। वे सवाल खड़ा करते हैं कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं बर्बरता की ओर या मनुष्यता की ओर? भारतीय परंपरा से वे स्वाधीन शब्द के द्वारा यह बताते हैं कि स्वयं पर नियंत्रण करके ही मनुष्यता की ओर बढ़ा जा सकता है। भारत में समय-समय पर अनेक जातियाँ आईं और आज वे सब मिलजुलकर एक साथ रह रही हैं। मनुष्यता और पशुता में भेद करते हुए वे कहते हैं कि मनुष्य अपने अधिकतर काम जैसे सोना, खाना, पीना आदि पशुओं की ही तरह करता है परंतु दूसरों के प्रति संवेदना, करुणा, प्रेम जैसे गुण ही उसे मनुष्य बनाते हैं। प्रेम और सद्भाव ही मनुष्यता की निशानी है। यही मनुष्य का धर्म है। इसी संदर्भ में महात्मा गाँधी का स्मरण करते हैं।
हजारीप्रसाद द्विवेदी निबंध के अंत में यह आशा देखते हैं कि एक दिन मनुष्य अग्नेयास्त्रों की होड़ छोड़ देगा। उसी दिन मनुष्यता की जीत होगी। अपने को संयत रखना ही मनुष्य होने की पहचान है। एक वक्त ऐसा आएगा जब पशुता रूपी नाखून को सच्चे अर्थों में मनुष्य बढ़ने नहीं देगा।
बाबर की ममता (एकांकी) – आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा
देवेंद्रनाथ शर्मा का साहित्यिक जीवन परिचय –
आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा का जन्म 7 जुलाई, 1918 ई. को बिहार के गोपालगंज जिले के कृतपुरा गाँव में हुआ था। उनका निधन 17 जनवरी, 1991 ई. को पटना में हुआ। देवेंद्रनाथ शर्मा हिन्दी साहित्य में मुख्य ख्याति भाषाशास्त्र एवं काव्यशास्त्र के विद्वान के रूप में है। भाषा-विज्ञान एवं काव्यशास्त्र को इन्होंने आधुनिक दृष्टिकोण से देखा है। इन्होंने काव्यशास्त्र एवं भाषा-विज्ञान जैसे जटिल माने जाने विषयों को सरल एवं सुबोध भाषा में प्रस्तुत किया है। ‘अलंकार मुक्तावली’, ‘साहित्य-समीक्षा’, ‘भास विरचित काव्यालंकार का भाष्य’, ‘भाषा-विज्ञान की भूमिका’, ‘हिंदी भाषा का विकास’, ‘काव्य के तत्त्व’ आदि इनके प्रमुख ग्रंथ हैं।
हिंदी और संस्कृत के साथ-साथ वे बंगला, उर्दू, फ्रेंच, जर्मन, रूसी आदि भाषाओं के भी ज्ञाता थे। उन्होंने कई ग्रंथों का अनुवाद भी किया। इसके साथ-साथ उन्होंने रचनात्मक साहित्य भी लिखा है। ‘खट्टा-मीठा’, ‘आईना बोल उठी’ और ‘प्रणाम प्रदर्शनी’ इनके प्रमुख निबंध-संग्रह हैं। ‘पारिजात मंजरी’, ‘बिखरी स्मृतियाँ’ और ‘शाहजहाँ के आँसू’ इनके एकांकी-संग्रह हैं। दिनेश प्रसाद सिंह इनकी एकांकियों की विशेषता के बारे में लिखते हैं – “उनके अधिकांश एकांकी पौराणिक अथवा इतिहासाश्रित हैं, जिनमें मानवीय तत्त्वों को प्रमुखता से चित्रित किया गया है तथा नष्ट होते हुए नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना पर बल दिया गया है। एकांकियों में पात्र एवं देशकाल के अनुरूप भाषा का प्रयोग शर्माजी की खास विशेषता है।”
देवेंद्रनाथ शर्मा रचनात्मक लेखन में इतिहास के प्रवाह में विस्मृत हो गए तथ्यों एवं घटनाओं को आधुनिक कलेवर में प्रस्तुत करते हैं। ‘बाबर की ममता’ एकांकी इसी का उदाहरण है। इतिहास में बाबर एक क्रूर एवं निर्दयी शासक के रूप में जाना जाता है लेकिन देवेंद्रनाथ शर्मा ने इस एकांकी में उसके दूसरे पक्ष को पेश किया है, जिसमें बाबर एक बादशाह नहीं बल्कि एक असहाय पिता के रूप में पाठक के सामने आता है।
एकांकी एक अंक का नाटक होता, जिसमें जीवन, किसी विचार या भाव के एक पक्ष को अभिव्यक्त किया जाता है। एकांकी पठ्य, दृश्य एवं श्रव्य विधाओं का संगम है।
‘बाबर की ममता’ एकांकी का सारांश या उद्देश्य
आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा द्वारा रचित इस एकांकी में क्रूर माने जाने वाले मुगल बादशाह बाबर के मार्मिक पक्ष का उद्घाटन किया गया है। शक्तिशाली एवं अपराजेय माना जाने वाला बाबर अपने पुत्र हुमायूँ की बीमारी के कारण अपने-आपको असहाय पाता है। इस एकांकी में पाँच मुख्य पात्र हैं। बाबर इस एकांकी का मुख्य पात्र है जो भारत में मुगल साम्राज्य का संस्थापक है। माहम उसकी पत्नी, हिंदुस्तान की मलिका और हुमायूँ की माँ है। हुमायूँ बाबर एवं माहम का बेटा है, जो अत्यंत ही बीमार है। बाद में हुमायूँ ही बाबर के बाद मुगल साम्राज्य का बादशाह बनता है। मुर्तजा हकीम का नाम है जो हुमायूँ का इलाज कर रहा है। अबुल बका बाबर का वयोवृद्ध सेनापति है एवं सलाहकार है। एकांकी का स्थान आगरा शहर का चारबाग है, जो उस समय मुगल शासन का केंद्र था।
एकांकी की शुरुआत बाबर के आगमन से होती है। बाबर कहीं युद्ध करने गया हुआ था लेकिन अपने प्रिय पुत्र हुमायूँ की गंभीर बीमारी की खबर सुनकर आगरा लौट आया है। माहम से बाबर हुमायूँ के बारे में पूछता है। माहम बाबर से हर हाल में हुमायूँ को बचा लेने की फरियाद करती है। बाबर की कई पत्नियाँ थीं। उन पत्नियों से बाबर के और भी बेटे थे। माहम से भी बाबर को चार बेटे हुए थे लेकिन सभी एक-एक कर मर गए थे। सिर्फ हुमायूँ ही बच रहा था। बाबर भी हुमायूँ को काफी प्यार करता था क्योंकि हुमायूँ उसका सबसे बड़ा और होनहार बेटा था।
माहम और बाबर की बातचीत के बीच ही हकीम मुर्तजा आता है। हकीम से बाबर हुमायूँ के ठीक होने की उम्मीद के बारे में पूछता है। हकीम की बातों से बाबर को लगता है कि हुमायूँ का बचना अब मुश्किल है। बाबर का पितृ-हृदय इस आशंका से काँप उठता है। उसे अपनी सारी सफलता इस असफलता के सामने बौनी नजर आने लगती है।
इसी दौरान उसका सिपहसलार अबुल बका आता है। अबुल बका बाबर से कहता है कि अगर वह अल्लाह को हुमायूँ की जान की बदले अपनी सबसे कीमती चीज को देने का वादा करे तो शायद हुमायूँ ठीक हो जाए। बाबर को यह सलाह अच्छी लगती है और वह अल्लाह को हुमायूँ की जान के बदले अपनी जान पेश करने का फैसला लेता है। हकीम और अबुल बका बाबर के इस फैसले से काँप जाते हैं। अबुल बका कहता है कि जो हीरा आपने जीता है, वह आप अल्लाह को देने का वादा कर सकते हैं। लेकिन बाबर कहता है कि उसके लिए हुमायूँ के बाद सबसे प्यारी उसकी जान ही है। हर व्यक्ति केलिए उसकी जान किसी भी दौलत से बढ़कर होती है। बाबर हुमायूँ के पलंग के पास जाकर अल्लाह से दुआ करता है कि वह हुमायूँ की जान बख्श दे और बदले में उसकी जान ले ले। बाबर की यह दुआ तुरंत ही असर दिखाने लगती है, हुमायूँ धीरे-धीरे ठीक होने लगता है और बाबर बीमार। बाबर अंत में हुमायूँ को बादशाह बनाकर मर जाता है। मरते-मरते वह अपनी आखिरी ख्वाहिश में हुमायूँ से कहता है कि उसे काबुल में दफनाया जाए क्योंकि बाबर का मादरे वतन वही था।
इस एकांकी में यह दिखाया गया है कि जिस हम निर्मम व्यक्ति मानते हैं वह भी संतान के प्रेम करता है। सिर्फ माता के हृदय में ही ममता नहीं होती बल्कि पिता के हृदय में भी ममत्व का वास होता है। बाबर जिसे लोग निर्दयी मानते थे, जिसने कई लोगों की हत्या की थी। कई जंग लड़े थे, वह भी अपने पुत्र-मोह के आगे विवश हो जाता है। वह इतना विवश हो जाता है कि अपने पुत्र के बदले वह अपनी जान को खुदा के सामने पेश कर देता है। ‘बाबर की ममता’ की यह कहानी इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई थी, जिसे देवेंद्रनाथ शर्मा ने अपनी रचनात्मकता के सहारे पुनर्जीवित किया।
‘ठेले पर हिमालय’ (यात्रावृत्त) – धर्मवीर भारती
धर्मवीर भारती का साहित्यिक जीवन परिचय –
धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर, 1926 ई. को प्रयागराज (उत्तरप्रदेश) में हुआ था। हिंदी साहित्य में उनकी ख्याति एक कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, संपादक, गद्यकार एवं आलोचक के रूप में है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के लगभग हर प्रमुख विधा कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रावृत्त, निबंध आदि में लिखा है।
धर्मवीर भारती नई कविता और नई कहानी दोनों के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। ‘ठंडा लोहा’, सात गीत वर्ष’, ‘अंधा युग’, ‘कनुप्रिया’ इनके प्रमुख काव्य संग्रह है। ‘गुनाहों का देवता’ और ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ इसके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। ‘मुर्दों का गाँव’, ‘चाँद और टूटे हुए लोग’, ‘बंद गली का आखिरी मकान’ इत्यादि इनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं। ‘नदी प्यासी थी’, ‘कहनी अनकहनी’ और ‘पश्यंती’ इनके द्वारा रचित एकांकी हैं। ‘मुक्ति क्षेत्रे, युद्ध क्षेत्रे’ इनका रिपोर्ताज है। इसके अलावा इन्होंने कुछ आलोचना संबंधी पुस्तकें भी लिखीं हैं।
धर्मवीर भारती की रचनात्मक ख्याति ‘गुनाहों का देवता’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ और ‘अंधा युग’ के कारण है। ‘गुनाहों का देवता’ उपन्यास में सुधा और चंदर के माध्यम से प्रणय भावना की रोमांटिक अभिव्यक्ति हुई है। इसमें प्रेम के किशोर भावुकता का वर्णन है। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ अपने कथ्य और शिल्प दोनों कारणों से महत्त्वपूर्ण है। इसमें माणिक मुल्ला नामक पात्र के माध्यम से धर्मवीर भारती ने निम्नमध्यवर्गीय लोगों की पीड़ा, निराशा एवं अनिश्चितता को प्रस्तुत किया है। ‘अंधा युग’ एक काव्य-नाटक है। इसमें महाभारत के युद्ध के बाद की घटनाओं को कथा का आधार बनाया गया है। यह काव्य-नाटक अश्वथामा, कृष्ण, गांधारी, युयुत्सु आदि पात्रों के द्वारा युद्ध की विभीषिका का चित्रण करता है। ‘अंधा युग’ द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में लिखा गया नाटक है। इस कारण इसमें युद्ध की अनिवार्यता पर प्रश्न-चिह्न लगाया गया है। इसमें पौराणिक कथा के माध्यम से धर्मवीर भारती ने आधुनिक मनुष्य के वर्तमान जीवन-संघर्षों एवं पीड़ा पर विचार किया है।
धर्मवीर भारती अपनी पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं। धर्मयुग जैसी प्रसिद्ध पत्रिका का उन्होंने कुशल संपादन किया। धर्मवीर भारती की कहानियों में मुख्यतः निम्नवर्गीय एवं मध्यवर्गीय पात्रों के द्वारा प्रेम एवं काम संबंधों का चित्रण हुआ है। इनके द्वारा रचित ‘गुलकी बन्नो’ नयी कहानी के दौर की प्रसिद्ध कहानी है।
धर्मवीर भारती हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक सफल साहित्यकार के रूप में दर्ज हैं। हिंदी साहित्य के विकास में उनका अमूल्य योगदान है।
‘ठेले पर हिमालय’ यात्रावृत्त का सारांश या उद्देश्य
मनुष्य प्राचीन काल से ही यात्राएँ करता है। यात्राओं से लौटने के बाद उस मनुष्य के भीतर यह इच्छा होती है कि वह अपनी यात्रा के बारे में लोगों को बताए। उसके आसपास के लोगों की भी इच्छा होती है कि वे भी उस यात्री से उस देश के बारे में पूछें, जहाँ वह गया है। हिंदी साहित्य में यात्रा-वृतांत लिखने की परंपरा की शुरुआत भारतेंदु युग से मानी जाती है। यात्रा-वृतांत में लेखक अपनी यात्रा के दौरान देखे गए व्यक्तियों, वस्तुओ, परिवेश आदि से जुड़ी भावनाओं को कलात्मक रूप से अभिव्यक्त करता है। यात्रावृत्त या यात्रा-वृतांत में रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि के गुणों का भी समावेश होता है।
‘ठेले पर हिमालय’ धर्मवीर भारती द्वारा लिखा एक प्रसिद्ध यात्रावृत्त है। धर्मवीर भारती ने इसमें अपनी कोसानी यात्रा का वर्णन किया है। कोसानी उत्तराखंड में अवस्थित एक रमणीय जगह है जो हिमालय की गोद में अवस्थित है। हिमालय की गोद में अवस्थित स्थान प्राचीन काल से ही यात्रियों को अपनी रमणीयता के कारण आकर्षित करते रहे हैं। कोसानी भी एक ऐसा ही स्थान है। कोसानी को लेखक ने महात्मा गाँधी के हवाले से भारत का स्विट्जरलैंड भी कहा है।
इस यात्रावृत्त की शुरुआत में ही लेखक यह बताता है कि क्यों उसने ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक चुना। लेखक कोसानी जाने के लिए उत्तराखंड के ही एक जगह पर बस का इंतजार कर रहा था, जहाँ उसने ठेले पर बर्फ ले जाते हुए देखा। उसके मित्र ने कहा कि यह बर्फ ही हिमालय की शोभा है। तभी लेखक के मन में शीर्षक कौंधा ‘ठेले पर हिमालय’।
लेखक इस यात्रा में अपनी पत्नी एवं मित्रों के साथ हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों को देखने की इच्छा से कोसानी जा रहा है। लेखक को पता चला था कि कोसानी से हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियाँ नजर आती हैं। कोसानी के बारे में लेखक ने काफी प्रशंसा सुन रखी थी। कोसानी जाने के रास्ते में दिखने वाले नदी, खेत, गाँव, घाटी आदि लेखक को सुंदर तो लगते हैं लेकिन यह सुंदरता उसकी अपेक्षा से कहीं कम है। लेखक काफी अधीर हो जाता है। उसके भीतर एक क्षोभ और असंतोष का भाव इस आशंका से भी है कि शायद कोसानी उसकी अपेक्षाओं जितना सुंदर न हो। लेकिन कोसानी पहुँचते ही वह उसके सौंदर्य से अभिभूत हो जाता है। बस से उतरते ही वह कोसानी के दृश्यावलियों में खो जाता है। वह सोचता है प्राचीन समय में यक्ष और किन्नर यहीं रहते होंगे। कोसानी सोमेश्वर श्रेणी पर बसा एक सुंदर स्थान है।
कोसानी से हिमालय की सुंदरता देखते ही लेखक के भीतर बाल-स्वभाव जागृत हो गया। हिमालय की बर्फ से ढकी चोटी को क्षणभर देखते ही, वह बच्चों की तरह खुशी से चीख उठा। लेखक मित्रगण भी मंत्रमुग्ध थे। लेखक हिमालय के सौंदर्य को जीभर के निहारता है। शाम और रात्रि में भी हिमालय की खूबसूरती ने लेखक को अपने वश में कर लिया है। लेखक सोचता है कि हिमालय की सुंदरता को लेकर कितने लोगों ने काफी कुछ लिखा है। पर वह सौंदर्य में इतना डूबा है कि उसे एक शब्द भी सूझ नहीं रहा है।
अगले दिन लेखक और उसके मित्र बैजनाथ जाते हैं, जहाँ गोमती नदी बह रही थी। गोमती नदी में हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों का प्रतिबिंब काफी सुंदर लग रहा था। लेखक को लगता है कि वह उड़कर उन चोटियों तक पहुंच जाए।
लेखक को हिमालय की स्मृतियाँ हमेशा याद आती हैं। जब भी वह ठेले पर बर्फ देखता है तो उसे हिमालय और कोसानी यात्रा की याद आती है। वह कहता है कि भागदौड़ से भरे शहरों में ठेले पर बर्फ देखकर ही संतोष किया जा सकता है।
रूपा की आजी (रेखाचित्र) – रामवृक्ष बेनीपुरी
रामवृक्ष बेनीपुरी का साहित्यिक जीवन परिचय –
रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म 23 सितंबर, 1899 ई. को मुजफ्फरपुर के बेनीपुर गाँव में हुआ था। इनकी मृत्यु सन् 1968 में हुई थी। रामवृक्ष बेनीपुरी उन साहित्यकारों की श्रेणी में आते हैं, जिन्होंने साहित्य के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था। बचपन में इनके माता-पिता का निधन हो गया था। इस कारण इनका लालन-पालन इनके ननिहाल में हुआ था।
रामवृक्ष बेनीपुरी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और इन्होंने गद्य की विभिन्न विधाओं में लिखा। कहानी, उपन्यास, नाटक, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रावृत्त, ललित निबंध आदि विधाओं में इन्होंने जमकर लिखा है। इनकी शैली ओजस्वी है। अपनी लेखनी के द्वारा इन्होंने सामाजिक रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों पर प्रहार किया है। राजनीतिक एवं सामाजिक आंदोलनों को इन्होंने अपनी कलम की धार से तेज किया।
अपने व्यक्तिगत जीवन में भी ये क्रांतिकारी थे। इन्होंने अपने नाम से जातिसूचक उपाधि को हटा दिया और शिखा भी कटा ली थी। अपने आसपास के अंधविश्वासों से ये बहुत नफरत करते थे। रेखाचित्र और संस्मरण लेखन में रामवृक्ष बेनीपुरी को विशेष सफलता मिली है।
संस्मरण और रेखाचित्र दोनों से मिलती-जुलती विधाएँ हैं। संस्मरण में किसी प्रसिद्ध व्यक्ति, वस्तु या स्थान का जिक्र होता है, जिससे पाठक पहले से परिचित होता है। इसमें लेखक का स्व भी उपस्थित होता है। रेखाचित्र में तटस्थ भाव से चित्रण किया जाता है। इसमें चित्रित व्यक्ति, वस्तु या स्थान से पाठक परिचित नहीं होता है। रचनाकार इसमें शब्द-चित्र के माध्यम से इनका अंकन तटस्थ भाव से करता है। रेखाचित्र में शब्द रेखाएँ बोलती हैं। इन सूक्ष्म अंतरों के बावजूद संस्मरण और रेखाचित्र का जिक्र साहित्य के इतिहास में एक साथ किया जाता है। कई बार दोनों के बीच अंतर स्पष्ट कर पाना मुश्किल होता है। ‘माटी की मूरतें’ और ‘लाल तारा’ बेनीपुरी के प्रसिद्ध रेखाचित्र संग्रह हैं। ‘जंजीरे और दीवारें’ तथा ‘मील के पत्थर’ इनके संस्मरण ग्रंथ हैं।
रेखाचित्र एवं संस्मरण के अतिरिक्त बेनीपुरी की अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं – ‘चिता के फूल’ (कहानी-संग्रह), ‘पतितों के देश में’ (उपन्यास), ‘पैरों में पंख बाँधकर’, ‘उड़ते चलें’ (यात्रावृत्त), ‘गेहूँ और गुलाब’, ‘बंदे वाणी विनायकौ’, ‘मशाल’ (निबंध-संग्रह), ‘अंबपाली’, ‘सीता की माँ’, ‘रामराज्य’ (नाटक) आदि। इसके अतिरिक्त उन्होंने कार्ल मार्क्स, जयप्रकाश नारायण आदि की जीवनियाँ भी लिखी हैं। कुछ आलोचना ग्रंथ भी बेनीपुरी जी ने लिखे हैं।
इसके अलावा बेनीपुरी जी ने ‘तरुण भारत’, ‘किसान मित्र’, ‘बालक’, ‘युवक’, ‘लोकसंग्रह’, ‘कर्मवीर’, ‘नई धारा’ जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं का संपादन भी किया था।
बेनीपुरी जी ने कहानियों और रेखाचित्रों में जमीन से जुड़े लोगों को मुख्य पात्र बनाया है। मजदूर, किसान, हलवाहे, जेल के कैदी, चरवाहे, चौकीदार आदि उपेक्षित एवं हाशिये के लोगों के दर्द एवं जीवन-संघर्ष को उन्होंने रचनात्मक अभिव्यक्ति दी। बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित स्मृतिगंधा में बेनीपुरी जी की भाषा के बारे में लिखा है – “बेनीपुरी जी की भाषा सरल और रवानगी लिए हुए है। उनकी शैली सतह पर उर्मियों का प्रवाह छोड़नेवाली है। उनके विराम चिह्न बोलते हैं। बेनीपुरी के इस दावे को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उनके शब्द चित्रों में प्रतिभाषित चपलता और कौंध के कारण उन्हें कलम का जादूगर कहा गया है।”
‘रूपा की आजी’ रेखाचित्र का सारांश या उद्देश्य
‘रूपा की आजी’ कलम के जादूगर कहे जाने वाले रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित है। यह एक ऐसी औरत के बारे में लिखा गया रेखाचित्र है, जिसके भीतर ममत्व भरा हुआ है। दुर्भाग्य ने उसे लोगों की नजर में डायन बना दिया है। रेखाचित्र की शुरुआत में ही लेखक ने इस ओर संकेत करते हुआ लिखा कि उसकी मामी ने उसे भीतर जाकर खाना खाने को कहा। रूपा की आजी यानी दादी की नजर से बचाने केलिए उन्होंने लेखक को ऐसा आदेश दिया।
रामवृक्ष बेनीपुरी अंधविश्वासों के विरोधी थे। इस रेखाचित्र के माध्यम से भी उन्होंने अंधविश्वास के कारण पैदा होने वाली संवेदनहीनता के विषय को उठाया है। गाँव के लोगों की संवेदना रूपा की आजी की ओर नहीं है लेकिन लेखक की संवेदना रूपा की आजी की तरफ है। रूपा की आजी का रूपा के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है। रूपा की आजी के यहाँ एक-एक करके सब मर गए। पहले रूपा की आजी के ससुर मरे, फिर उसका पति, फिर जवान बेटा और बहू। इन सब की मौत का कारण गाँव के लोग रूपा की आजी को ही मानते थे। रूपा की आजी को वे लोग डायन मानते थे। इस कारण उसके बारे में तरह-तरह के सच्ची-झूठी कहानियाँ प्रचलित थीं। लेखक कहता है कि रूपा की आजी गाँव में रहती थी और उसका किसी न किसी तरह लोगों से मिलना-जुलना होता ही रहता था। गाँव बड़ा था और मनुष्य-जीवन बहुत ही अनिश्चित है। फिर भी लोग किसी भी तरह के होने वाले मौत के लिए रूपा की आजी को ङी दोषी मानते थे।
रूपा की आजी रेखाचित्र के बहाने लेखक ने भारतीय समाज के अंधविश्वासी चेहरे को उजागर किया है, जहाँ लोग डॉक्टर के इलाज कराने की जगह भगत-ओझा आदि के पास जाकर बीमारी का इलाज करवाते हैं। ऐसी स्थिति में मौत तो होना ही है। लेकिन दोष रूपा की आजी के मत्थे मढ़ा जाता है।
रूपा की आजी अंततः इस अंधविश्वास की भेंट चढ़ ही जाती है। उसने अपनी सारी पूँजी लगाकर, घर-द्वार बेचकर रूपा की शादी की। रूपा की विदाई के दिन ही शाम को वह घर छोड़कर कहीं चली जाती है। रूपा की आजी के अचानक गायब होने से गाँव के अंधविश्वासी लोग राहत की साँस लेते हैं।
कुछ वर्ष बाद की घटना का जिक्र करते हुए लेखक लिखता है कि दो सहेलियाँ मेला घूमने जाती हैं। वह युवती जो बाद में पता चलता है कि रूपा है अपने बच्चे को सखी की गोद में देकर कुछ खरीदने लगती है। सखी से बच्चा किसी तरह अलग हो जाता है। सखी देखती है कि उस बच्चे को एक बुढ़िया गोद में ली हुई है। बुढ़िया का हुलिया बहुत खराब है। सखी उस बुढ़िया को देखते ही डायन कहकर चिल्ला पड़ती है। बुढ़िया को लोग पीटने लगते हैं। बुढ़िया बचकर भागने की कोशिश करती है। भागमभाग में वह एक कुएँ में गिर जाती है। कोई भी उस बुढ़िया को बचाने की कोशिश नहीं करता है। बुढ़िया मर जाती है और जब लाश निकाली जाती है तो लोग उसे पहचानकर कहते हैं कि यह तो रूपा की आजी है। लेखक समाज के अंधविश्वास से क्षुब्ध होकर लिखता है कि समाज ही उसकी मौत का जिम्नेदार है। रूपा की आजी सिर्फ रूपा के बच्चे को देखने लौटी थी परंतु समाज के अंधविश्वास ने उसकी जान ले ली।