UNIT 3
भारत का अन्य देशों के साथ संबंध
3. भारत-अमेरिका सम्बन्ध
संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत न तो वास्तव में दोस्त हैं और न ही दुश्मन। दोनों देशों के बीच संबंधों में लगातार उतार-चढ़ाव आया है, जो भारत के तटस्थ N.A.M रुख से शुरू होकर कोल्ड वार के दौरान अलग-अलग रास्तों तक और अंतत: रणनीतिक अभिसरण के वर्तमान समय तक चला आया है। 21 वीं शताब्दी में, भारत अमेरिकी भू-राजनीति और वैश्विक रणनीतियों के लिए महत्वपूर्ण है। दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच बढ़ते संबंधों को "21 वीं शताब्दी की एक परिभाषित साझेदारी" के रूप में देखा जा सकता है। यह साझेदारी अमेरिका में बढ़ती भारत की सॉफ्ट पॉवर के रूप में और भी मजबूत हो गई है। जैसा कि जॉन अर्किला ने बिलकुल सही कहा था, कि वर्तमान के वैश्विक युग में विजय ज़्यादातर इस बात पर निर्भर करती है कि किसकी कहानी जीतती है, ना कि इस बात पर की किसकी सेना जीतती है। इस दावे को 1990 में जोसेफ जी नी अपनी “बाउंड टू लीड: द चैलेंजिंग नेचर ऑफ अमेरिकन पॉवर” नामक किताब में “सॉफ्ट पॉवर” की अवधारणा के माध्यम से उद्घृत किया था। सॉफ्ट पॉवर किसी देश की आकर्षण और सहयोग के माध्यम से और ना कि ज़बरदस्ती से अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर इच्छित परिणाम प्राप्त करने की क्षमता को दर्शाती है, जो अंतर्राष्ट्रीय मामलों के क्षेत्र में एक निर्णायक वास्तविकता है। सॉफ्ट पॉवर की मुद्रा सांस्कृतिक प्रभाव, राजनीतिक मूल्य और विदेशी नीतियां हैं। इसी तरह, भारत की सॉफ्ट पॉवर अमेरिकी धरती पर भारतीय प्रवासियों का बढ़ता प्रभाव है।
भारत की सॉफ्ट पॉवर का ज़रिया इसके प्रवासी हैं, जो इसकी संपत्ति हैं। भारतीय प्रवासियों का अमेरिका में तीन चरणों में विकास हुआ है, पहला शिक्षा और रोजगार की तलाश, दूसरा, प्रेषण का प्रमुख स्रोत और तीसरा यू.एस की गतिशीलता को प्रभावित करने वाले प्रभावी खिलाड़ियों के रूप में। अमेरिका के भीतर, भारतीय प्रवासी एक प्रभावी सार्वजनिक कूटनीति उपकरण हैं और अपने नैतिकता, अनुशासन, हस्तक्षेप ना करने और स्थानीय लोगों के साथ शांतिपूर्वक जीवन बिताने के लिए माने जाते हैं। ये यू.एस में भारतीयों की पहचान बनाने, छवि प्रक्षेपण और छवि बनाने में योगदान करते हैं।
संस्कृति - अमेरिका में कई हिंदी रेडियो स्टेशन उपलब्ध हैं जैसे कि आर.बी.सी रेडियो, इजी96 रेडियो, रेडियो हमसफर, देसी जंक्शन, रेडियो सलाम नमस्ते, फनएशिया रेडियो और संगीत।
भारतीय केबल चैनल जैसे कि सोनी टीवी, ज़ी टीवी, स्टार प्लस, कलर्स और क्षेत्रीय चैनल भी प्रसारित होते हैं। कई भारतीय मूल के कलाकार हॉलीवुड का हिस्सा हैं। अधिकांश भारतीय त्योहार उसी उत्साह और जोश के साथ मनाए जाते हैं विशेष रूप से सार्वजनिक समारोहों और बॉलीवुड नृत्य के माध्यम से दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है।
धार्मिक- भारत के हिंदू (51%), सिख (5%), जैन (2%), मुस्लिम (10%) और ईसाई (18%) समुदायों ने संयुक्त राज्य अमेरिका में दृढ़ता के साथ अपने धर्म को स्थापित किया है। हिंदू भारतीयों ने यू.एस में हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन का गठन किया है। ये भारतीय धार्मिक समुदाय दान कार्य में सहायता करते हैं जब भी अमेरिका में आवश्यकता पड़ती है।
शिक्षा- भारतीय प्रवासियों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है| यू.एस में 25 साल तक की उम्र तक बैचलर्स डिग्री पूरा करने वाले 31% लोगों की तुलना में 79% भारतीय प्रवासी 25 साल की उम्र तक बैचलर्स डिग्री पूरा करते हैं। 166,000 भारतीय अप्रवासियों को अमेरिका के उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला दिया गया था|
घरेलू आय- भारतीय प्रवासी अमेरिका में सबसे अमीर जातीय समुदायों में से एक है। सभी भारतीय वंशजों की औसत वार्षिक आय लगभग $ 89,000 है, जो कि अमेरिकी नागरिकों की औसत वार्षिक आय $ 50,000 से अधिक है।
राजनीति में भागीदारी- नवंबर 2016 में 5 भारतीय अमेरिकी उम्मीदवारों रो खन्ना, राजा कृष्णमूर्ति, प्रमिला जयपाल और कमला हैरिस को यू.एस कांग्रेस में चुना गया, ऐसा करके उन्होंने एक नया इतिहास गढ़ा जबकि एमी बेरा को दूसरी बार चुना गया था। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में जीत हासिल करने के बाद, डोनाल्ड ट्रम्प ने उनका धन्यवाद करते हुए हिंदुओं की प्रशंसा करके भारतीय अमेरिकी लोगों की राजनीतिक भागीदारी पर प्रकाश डाला।
⮚ यू.एस में माइक्रोसॉफ्ट के 34% कर्मी भारतीय मूल के लोग हैं
⮚ यू.एस.ए में 12% वैज्ञानिक भारतीय हैं
⮚ ज़ेरॉक्स के 13% कर्मी भारतीय हैं
⮚ यू.एस में नासा के 36% वैज्ञानिक भारतीय हैं
⮚ आई.बी.एम के 28% कर्मी भारतीय मूल के लोग हैं
⮚ यू.एस.ए में 38% डॉक्टर्स भारतीय हैं
⮚ इंटेल के 17% वैज्ञानिक भारतीय हैं
अमेरिका में भारतीय प्रवासी दोनों देशों के बीच संबंधों की पुनः रचना में योगदान दे रहे है। भारत दो कारणों के आधार पर भारतीय-अमेरिकियों के अविर्भाव को एक प्रतिष्ठित समुदाय के रूप में मान्यता देता है।
भारत-अमेरिका व्यापार सौदा: व्यापार भारत और अमेरिका के बीच विवाद की एक प्रमुख हड्डी रहा है। भारत को अमेरिका द्वारा “हाइ टैरिफ किंग” के रूप में संदर्भित किया गया है जो अमेरिका से आने वाले उतपदों पर जबरदस्त रूप से उच्च आयात शुल्क लगाता है। डोनाल्ड ट्रम्प ने आर्थिक आयाम पर अमेरिका की पहली नीति तैयार की, इसका मकसद भारत सहित प्रमुख व्यापारिक साझेदारों के साथ अमेरिका के व्यापार घाटे को कम करना हैं।
इसके अनुसार-
● जून 2019 में, ट्रम्प प्रशासन ने भारत के लाभों को सामान्यीकृत प्रणाली वरीयताएँ (GSP) योजना के तहत समाप्त करने का निर्णय लिया, GSP के तहत ये देश अमेरिका में $ 6 बिलियन से अधिक मूल्य के उत्पादों का निर्यात बिना कोई सीमा शुल्क दिये करते थे।
● बढ़ते व्यापार तनावों के बीच जीएसपी सूची से हटाने से भारत को अंततः कई अमेरिकी आयातों पर जवाबी शुल्क लगाने के लिए प्रेरित किया गया।
● ऐसा होने पर अमेरिका को भारत के खिलाफ विश्व व्यापार संगठन में अपनी शिकायत दर्ज कारवाने हेतु मजबूर किया|
● यूएस ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव (यूएसटीआर) के कार्यालय ने भारतीय कंपनियों को डिजिटल व्यापार के लिए अपने नागरिकों के व्यक्तिगत डेटा भेजने से रोकने के लिए भारत के कार्यवाही को डिजिटल व्यापार के राह में मुख्य बंधा के रूप में रेखांकित किया है।
● इसके अलावा, अमेरिका ने लंबे समय से अमेरिकी कृषि और डेयरी उत्पादों तक अधिक अधिकार की मांग की है। भारत के लिए, अपने घरेलू कृषि और डेयरी हितों की रक्षा RCEP समझौते से बाहर निकलने का एक प्रमुख कारण था।
अमेरिका-पाकिस्तान समीकरण: अमेरिका ने पाकिस्तान पर पिछले सात महीनों में अपनी स्थिति नरम कर दी है| 29 फरवरी, 2020 को अफगानिस्तान (अमेरिका और तालिबान के बीच) समझौते में पाकिस्तान ने जिस भूमिका को निभाया है, उसके कारण अमेरिका ने अपने रुख में नरमी दिखाई हैं| बदले में, पाकिस्तान चाहता है कि अमेरिका भारत को कश्मीर मुद्दे पर (कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण) कर दे। जबकि भारत का मानना है कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय मुद्दा है और कोई भी तीसरा पक्ष इसमें शामिल नहीं हो सकता है।
भारत में आंतरिक मुद्दे: भारत-अमेरिका मजबूत रणनीतिक साझेदारी भी लोकतंत्र के "साझा मूल्यों", कानून के शासन, धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के संरक्षण के विचार पर आधारित है। हालाँकि, अनुच्छेद 370 का निरसन, नया नागरिकता कानून और NRC इस "साझा मूल्यों" सिद्धांत का परीक्षण कर रहा है
हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि ये मामले भारत के लिए आंतरिक हैं, अमेरिकी कांग्रेस की आलोचना और अमेरिकी नागरिक समाज के कुछ हिस्से अमेरिकी प्रशासन पर जोर दे रहे हैं ताकि भारत को कश्मीर में वातावरण सामान्य बनाने के लिए कहा जा सके और नए नागरिकता कानून (NRC) को आगे ना बढ़ाया जा सके|
शीत-युद्ध के बाद के युग में, रक्षा और रणनीतिक मुद्दों पर अमेरिका के साथ भारत के संबंध मजबूत हुए हैं। यह निम्नलिखित बिन्दुओं से परिलक्षित हो सकता है:
❖ अमेरिका व भारत के मध्य एक मूलभूत सैन्य समझौता जो एन्क्रिप्टेड संचार और उपकरण (COMCASA- संचार संगतता और सुरक्षा समझौते) को साझा करने की अनुमति देता है।
❖ अमेरिकी निर्यात नियंत्रण कानूनों में बदलाव जो भारत को नाटो और गैर-नाटो अमेरिकी सहयोगियों के विशेषाधिकार प्राप्त श्रेणी में रखता है।
❖ अमेरिका व भारत के मध्य एक औद्योगिक सुरक्षा अनुबंध पर हस्ताक्षर करना, जो दोनों देशों के निजी रक्षा उद्योगों के बीच अधिक सहयोग की अनुमति देगा।
❖ द्विपक्षीय रणनीतिक ऊर्जा साझेदारी अप्रैल 2018 में शुरू की गई थी, जिसके तहत भारत ने अमेरिका से कच्चे तेल और एलएनजी का आयात शुरू कर दिया है। अब, भारत कच्चे तेल के आयात और हाइड्रोकार्बन का छठा सबसे बड़ा स्रोत है।
❖ पहले भारत-अमेरिका त्रि-सेवा सैन्य अभ्यास का उद्घाटन और मौजूदा सैन्य अभ्यास का विस्तार।
❖ अमेरिकी समुद्री सुरक्षा पहल में भारत और दक्षिण एशिया का समावेश।
❖ इन गहन जुड़ावों ने आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका से मजबूत समर्थन हासिल करने में मदद की है। पुलवामा हमले के बाद यह बात स्पष्ट हो गया था, जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1267 के तहत जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी बनाया गया था। इसके अलावा, पाकिस्तान को फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की सूची में शामिल किया गया है।
❖ अमेरिका अपनी पिवट टू एशिया पॉलिसी के तहत भारत को चीन के आक्रामक उदय की जांच करने के लिए एक आदर्श बैलेंसर के रूप में देखता है। इसलिए, अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में चीन का मुकाबला करने के लिए इंडो-पैसिफिक की अवधारणा तैयार की है।
ऐतिहासिक परमाणु समझौते (2008) के बावजूद, असैन्य परमाणु सहयोग बंद नहीं हुआ है, लेकिन छह परमाणु रिएक्टर बनाने के लिए वेस्टिंगहाउस के साथ समझौता से यह तो तय हो गया कि आखिरकार भारतीय मिट्टी पर अमेरिका परमाणु ऊर्जा लाएगा|
समुद्री क्षेत्र में चीन का मुकाबला करने के लिए, भारत को नेविगेशन की स्वतंत्रता और नियम-आधारित आदेश को संरक्षित करने के लिए भारत-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और अन्य भागीदारों के साथ पूरी तरह से संलग्न होने की आवश्यकता है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में, कोई भी स्थायी दोस्त और कोई स्थायी दुश्मन नहीं होते हैं, ऐसे परिदृश्य में भारत को अपनी स्थायी हित के लिए “प्रतिरक्षा रणनीति” की अपनी विदेश नीति को जारी रखना चाहिए।
21 वीं सदी में विश्व व्यवस्था को आकार देने के लिए भारत-अमेरिका संबंध महत्वपूर्ण है। संबंधों की पूर्ण क्षमता का एहसास करने के लिए, दोनों सरकारों को अब अपूर्ण समझौतों को पूरा करने और एक व्यापक रणनीतिक वैश्विक साझेदारी के लिए कार्यप्रणाली निर्धारित करने का प्रयास करना चाहिए।
3.b. भारत रूस सम्बन्ध
भारत और सोवियत संघ (USSR)- ट्रस्ट और आपसी हित, पूर्व सोवियत संघ/रूसी संघ के साथ भारत के संबंधों के आधाrर हैं।
अपनी स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में, भारत ने यूएसएसआर(USSR) से औद्योगिक रूप से प्राप्त किया जिसने अपने भविष्य के विकास के लिए एक आधार प्रदान किया। 1950 के दशक से शुरू होकर, भारत को सोवियत संघ से अपने औद्योगीकरण के लिए उदार सहायता मिली। रक्षा, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्रों में इसके विकास में सोवियत संघ उत्कृष्ट और ज्ञानी था। भारत के पास पूंजी, विदेशी मुद्रा और प्रौद्योगिकी की कमी थी; सोवियत संघ ने भारत की विकास की कहानी में इस अंतराल को भर दिया, जिससे भारत को एक विशेष व्यवस्था के माध्यम से परियोजनाओं के लिए रुपये में भुगतान करने की सुविधा प्राप्त हुआ|
भारत को विश्वसनीय, सस्ती और अच्छी गुणवत्ता वाली सैन्य-आपूर्ति, तेल उत्पाद, उर्वरक, धातु इत्यादि जैसे महत्वपूर्ण उत्पाद मिले। भारत की उभरती हुई सार्वजनिक क्षेत्र (PSUs) को सोवियत मदद से लिपिबद्ध किया गया था। यूएसएसआर के साथ भारत के संबंधों ने भारत को और अधिक आत्मनिर्भर बनने में मदद की।
शीत युद्ध और गुटनिरपेक्ष दशकों के दौरान, भारत, जम्मू और कश्मीर समस्या जैसे रणनीतिक मुद्दों पर, यूएसएसआर(USSR) पर निर्भर था। सोवियत संघ का समर्थन भारत की अंतरिक्ष, तकनीकी और परमाणु प्रगति के साथ बना रहा है। 1971 की भारत-सोवियत मित्रता संधि (1971 के भारत-पाक युद्ध के मद्देनजर जहां रूस ने भारत का समर्थन किया, वहीं अमेरिका और चीन ने पाकिस्तान का समर्थन किया) ने सहयोग को गहरा करने के लिए रूपरेखा तैयार की। सैन्य-तकनीकी सहयोग वास्तव में इस द्विपक्षीय संबंध के केंद्र में रहा है।
1990 के दशक में, यूएसएसआर के विघटन और रूसी विदेश नीति अभिविन्यास में बढ़ते अटलांटिकवाद के मद्देनजर, रूस ने पश्चिम की ओर देखा और अपनी तीसरी दुनिया की व्यस्तताओं में कटौती की। पश्चिमी देशों की तरह ’सामान्य’, ’पूंजीवादी’ राष्ट्र बनने के लिए बाजार अर्थव्यवस्था के लिए एक कठिन परिवर्तन काल से इसकी शुरुआत हुई। सोवियत सैन्य-औद्योगिक परिसर की गिरावट, भू-राजनीतिक घटनाक्रमों द्वारा मजबूर पूंजीवाद के विकास के लिए इसकी ’शॉक थेरेपी’ द्विपक्षीय संबंधों की सामग्री में बदलाव का कारण बनी और दोनों देश कुछ समय के लिए अलग हो गए। हालाँकि, 90 के दशक और बाद के अशांत दशक के दौरान दोनों देश मित्र बने रहे।
भारत और रूस के बीच एक विशिष्ट और विशेषाधिकार प्राप्त साझेदारी हैं। दोनों देशों ने 2019 में 71 साल के राजनयिक संबंधों को चिह्नित किया। आर्थिक क्षेत्र में रणनीतिक साझेदारी को फिर से जीवंत करने के लिए भारत और रूस सहयोग के कई रास्ते तलाश रहे हैं। 2017 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 10.17 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया। 2018 में 19 वें वार्षिक शिखर सम्मेलन के दौरान दोनों देश के नेताओं, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा इसे सकारात्मक परिणाम के रूप में देखा गया था। शिखर सम्मेलन के दौरान दोनों देशों के बीच आर्थिक क्षेत्र में सहयोग को और बढ़ावा देने के लिए प्रथम भारत-रूस रणनीतिक आर्थिक वार्ता आयोजित किया जाना सक्रियता का एक बिंदु था।
वार्षिक शिखर सम्मेलन के तुरंत बाद प्रथम भारत-रूस रणनीतिक आर्थिक वार्ता (IRSED) का आयोजन हुआ। IRSED का आयोजन सेंट पीटर्सबर्ग में 25-26 नवंबर 2018 को हुआ था। वार्ता में भारत और रूस का प्रतिनिधित्व नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया (NITI) आयोग्रांड मिनिस्ट्री ऑफ इकोनॉमिक्स डेवलपमेंट ऑफ दि रसियन फाडरेशन द्वारा किया गया। जिन प्रमुख क्षेत्रों पर चर्चा की गई थी और जो संयुक्त वक्तव्य में उल्लिखित थे; वे इस प्रकार है:
● परिवहन आधारभूत संरचना और प्रौद्योगिकियों का विकास
इस क्षेत्र में दोनों पक्ष INSTC ढांचे में जहाजी माल के गमनागमन की निगरानी के लिए डिजिटल दस्तावेजीकरण और इसके अबाधित और सुरक्षित सीमा पार जाने के लिए उपग्रह प्रौद्योगिकियों की एक प्रणाली को विकसित करने पर सहमत हुए।
● कृषि और कृषि प्रसंस्करण क्षेत्रों का विकास
आर्थिक वार्ता के दूसरे प्रमुख क्षेत्र में, दोनों पक्षों ने पाया कि कृषि विश्वविद्यालयों में नामांकित छात्रों की संख्या में कमी आई है। इस पर ध्यान देने के लिए, वे छात्रों के आदान-प्रदान और कृषि क्षेत्र में उच्च योग्य कर्मियों, संयुक्त परियोजनाओं के कार्यान्वयन और संयुक्त अनुसंधान के क्षेत्र में सहयोग को मजबूत करने पर सहमत हुए| भारत और रूस ने अपने व्यापार की मात्रा बढ़ाने के लिए ब्यूटाइल रबड़ संयंत्रों पर ध्यान केंद्रित किया है। 2017 में एक ब्यूटाइल रबर संयंत्र जामनगर में स्थापित किया गया। ब्यूटिल रबर प्लांट के उत्पादन से होने वाली अनुमानित पूंजी 2.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर है। इससे दोनों देशों के बीच व्यापार की मात्रा को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
● लघु और मध्यम व्यापार सहायता
भारत और रूस का ध्यान केंद्रित करने का एक और क्षेत्र है लघु और मध्यम व्यापार समर्थन। फरवरी 2019 को वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार, रूसी संघ के उद्योग और व्यापार मंत्रालय के अधीन रूसी निर्यात केंद्र और भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) ने लघु और मध्यम उद्यमों (SMEs) के बीच बातचीत पर रूस-भारत फोरम का आयोजन किया।
● डिजिटल परिवर्तन और सीमांत प्रौद्योगिकियां
ब्लॉक चेन, प्रौद्योगिकियों, वित्तीय प्रौद्योगिकियों और क्वांटम क्रिप्टोग्राफी के अलावा आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस फोकस का एक और क्षेत्र है। दोनों देशों के बीच (AI) और औद्योगिक इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) के क्षेत्र में सहयोग करने के लिए बातचीत चल रही है। रूस का मानना है कि दोनों देश क्रेता-विक्रेता संबंध से परे जा सकते हैं और संयुक्त रूप से सर्वोत्तम प्रथाओं, ज्ञान और नवाचार को साझा करेंगे; और तीसरे देशों में भी एक साथ मिल कर काम कर सकते हैं। वे कंप्यूटर विजन और डीप लर्निंग संचालित समाधानों पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, भारत-रूस परिवहन क्षेत्र में AI के अनुप्रयोग का उपयोग करने के बारे में भी सोच सकते हैं, जिसका उद्देश्य बढ़ती चली जा रही यात्रा मांग, कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन, सुरक्षा चिंताओं और पर्यावरण संबंधी दुर्दशा की चुनौतियों पर काबू पाने के लिए हो सकता है।
● औद्योगिक सहयोग और व्यापार
अप्रैल 2019 को बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (BSE) और इंडिया इंटरनेशनल एक्सचेंज (IFSC) लिमिटेड (India INX) ने मॉस्को एक्सचेंज (MOEX) के साथ एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किए। MoU से निवेशकों और कंपनियों को एक-दूसरे के एक्सचेंज मार्केट में आपस में जुड़ने में मदद मिलने की उम्मीद है। यह भी माना जाता है कि यौगिक उत्पादों, एक्सचेंज ट्रेडेड फंड्स (ईटीएफ), दोहरी लिस्टिंग और निश्चित आय उत्पाद सहयोग की क्रॉस-लिस्टिंग में एक्सचेंज को आगे बढ़ाने की संभावना तलाशने के लिए एक्सचेंज कंपनियां एक साथ काम करेंगी।
शीत युद्ध द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ एवं उसके आश्रित देशों (पूर्वी यूरोपीय देश) और संयुक्त राज्य अमेरिका एवं उसके सहयोगी देशों (पश्चिमी यूरोपीय देश) के बीच भू-राजनीतिक तनाव की अवधि (1945-1991) को कहा गया| द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो महाशक्तियों – सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्चस्व वाले दो शक्ति समूहों में विभाजित हो गया था। यह पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका और साम्यवादी सोवियत संघ के बीच वैचारिक युद्ध था जिसमें दोनों महाशक्तियाँ अपने-अपने समूह के देशों के साथ संलग्न थीं।
"शीत" (Cold) शब्द का उपयोग इसलिये किया जाता है क्योंकि दोनों पक्षों के बीच प्रत्यक्ष रूप से बड़े पैमाने पर कोई युद्ध नहीं हुआ था। इस शब्द का पहली बार इस्तेमाल अंग्रेज़ी लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने 1945 में प्रकाशित अपने एक लेख में किया था। शीत युद्ध सहयोगी देशों (Allied Countries), जिसमें अमेरिका के नेतृत्व में यू|के|, फ्रांस आदि शामिल थे और सोवियत संघ एवं उसके आश्रित देशों (Satellite States) के बीच शुरू हुआ था।
सोवियत संघ:
सोवियत संघ को आधिकारिक तौर पर यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (USSR) के रूप में जाना जाता था।यह विश्व का पहला साम्यवादी (Communist) राज्य था जिसकी स्थापना वर्ष 1922 में की गई थी।
द्वितीय विश्व युद्ध में सहयोगी देश (अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस) और सोवियत संघ ने धुरी शक्तियों (Axis Powers) (नाज़ी जर्मनी, जापान, ऑस्ट्रिया) के विरुद्ध साथ मिलकर संघर्ष किया था। लेकिन विभिन्न कारणों से यह युद्धकालीन गठबंधन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साथ नहीं रह सका।
पॉट्सडैम सम्मेलन
पॉट्सडैम सम्मेलन का आयोजन वर्ष 1945 में बर्लिन में अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ के बीच निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार करने के लिये किया गया था:
पराजित जर्मनी में तत्काल प्रशासन की स्थापना।
पोलैंड की सीमाओं का निर्धारण।
ऑस्ट्रिया का आधिपत्य।
पूर्वी यूरोप में सोवियत संघ की भूमिका।
सोवियत संघ चाहता था कि पोलैंड के एक भाग (सोवियत संघ की सीमा से लगा क्षेत्र) को बफर ज़ोन के रूप में बनाए रखा जाए किंतु संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन इस मांग से सहमत नहीं थे। इसके साथ ही अमेरिका ने सोवियत संघ को जापान पर गिराए गए परमाणु बम की सटीक प्रकृति के बारे में कोई सूचना नहीं दी थी। इसने सोवियत संघ के अंदर पश्चिमी देशों की मंशा को लेकर एक संदेह पैदा किया जिसने गठबंधन संबंध को कटु बनाया।
ट्रूमैन सिद्धांत
ट्रूमैन सिद्धांत की घोषणा 12 मार्च, 1947 को अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी.एस. ट्रूमैन द्वारा की गई थी। ट्रूमैन सिद्धांत सोवियत संघ के साम्यवादी और साम्राज्यवादी प्रयासों पर नियंत्रण की एक अमेरिकी नीति थी जिसमें दूसरे देशों को आर्थिक सहायता प्रदान करने जैसे विविध उपाय अपनाए गए। उदाहरण के लिये अमेरिका ने ग्रीस एवं तुर्की की अर्थव्यवस्था और सेना के समर्थन के लिये वित्तीय सहायता का अनुमोदन किया।
आयरन कर्टेन
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ द्वारा स्वयं को और उसके आश्रित पूर्वी एवं मध्य यूरोपीय देशों को पश्चिम एवं अन्य गैर-साम्यवादी देशों के साथ खुले संपर्क से अलग रखने के लिये एक राजनीतिक, सैन्य और वैचारिक अवरोध खड़ा किया गया जिसे ‘आयरन कर्टेन’ कहा गया। ‘आयरन कर्टेन’ शब्दावली का प्रयोग सर्वप्रथम ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल द्वारा किया गया था। इस आयरन कर्टेन के पूर्व में वे देश थे जो सोवियत संघ से जुड़े थे या उससे प्रभावित थे जबकि पश्चिम में वे देश थे जो अमेरिका और ब्रिटेन के सहयोगी थे या लगभग तटस्थ थे।
बर्लिन की घेराबंदी 1948
सोवियत संघ और सहयोगी देशों के बीच तनाव बढ़ा सोवियत संघ ने वर्ष 1948 में बर्लिन की घेराबंदी शुरू कर दी। सहयोगी देशों (अमेरिका, यू.के, फ्रांस) और सोवियत संघ ने साथ मिलकर द्वितीय विश्व युद्ध में नाज़ी जर्मनी को पराजित किया था जिसके बाद सोवियत संघ और सहयोगी देशों के बीच जर्मनी के क्षेत्रों के भाग्य का फैसला करने के लिये याल्टा और पोट्सडैम सम्मेलन (1945) आयोजित किये गए थे।
सम्मेलन में जर्मनी को रूसी, अमेरिकी, ब्रिटिश और फ्रांसीसी प्रभाव वाले क्षेत्रों में विभाजित किया गया था।
जर्मनी का पूर्वी भाग सोवियत संघ को प्राप्त हुआ, जबकि पश्चिमी भाग संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस को मिला।
राजधानी के रूप में बर्लिन को भी इसी प्रकार पूर्वी और पश्चिमी भाग में विभाजित किया गया था, यद्यपि बर्लिन रूसी हिस्से वाले जर्मन क्षेत्र के मध्य में स्थित था।
सहयोगी देशों के नियंत्रण वाले क्षेत्रों के आपसी विलय से फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी (FRG) या पश्चिमी जर्मनी का निर्माण हुआ, जबकि सोवियत नियंत्रण वाला क्षेत्र जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (GDR) या पूर्वी जर्मनी बन गया।
बर्लिन का विभाजन सोवियत संघ और सहयोगी देशों के बीच विवाद का मुख्य कारण बना क्योंकि पश्चिमी बर्लिन साम्यवादी पूर्वी जर्मनी के अंदर स्थित एक द्वीप बन गया था। बर्लिन की दीवार 9 नवंबर, 1989 को ढहा दी गई जिसने शीत युद्ध के प्रतीकात्मक अंत को चिन्हित किया।
मार्शल योजना:
वर्ष 1947 में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉर्ज मार्शल ने यूरोपीय पुनर्निर्माण कार्यक्रम का अनावरण किया जिसमें आवश्यकतानुसार आर्थिक और वित्तीय मदद की पेशकश की गई।
ERP का एक उद्देश्य यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण को प्रोत्साहन देना था। हालाँकि यह ट्रूमैन सिद्धांत का ही आर्थिक विस्तार था।
कमिनफॉर्म:
सोवियत संघ ने मार्शल योजना के संपूर्ण विचार की 'डॉलर साम्राज्यवाद' के रूप में भर्त्सना की। मार्शल योजना पर सोवियत प्रतिक्रिया के रूप में वर्ष 1947 में कमिनफॉर्म की नींव पड़ी। यह मुख्य रूप से पूर्वी यूरोप के देशों को एक साथ रखने के लिये एक संगठन था।
नाटो बनाम वारसा संधि:
(उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन)
सोवियत संघ द्वारा बर्लिन की घेराबंदी ने पश्चिम की सैन्य कमज़ोरी को प्रकट किया था जिससे वे निश्चित तौर पर सैन्य तैयारी करने को प्रेरित हुए। परिणामस्वरूप वर्ष 1948 में मुख्य रूप से पश्चिमी यूरोप के देशों ने युद्ध के मामले में सैन्य सहयोग का वादा करते हुए ब्रुसेल्स रक्षा संधि पर हस्ताक्षर किये। बाद में ब्रुसेल्स रक्षा संधि में अमेरिका, कनाडा, पुर्तगाल, डेनमार्क, आइसलैंड, इटली और नॉर्वे भी शामिल हो गए तथा अप्रैल 1949 में नाटो (NATO) का गठन हुआ। नाटो देश इनमें से किसी एक पर भी हमले को सभी देशों पर हमले के रूप में देखने और अपने सैन्य बलों को एक संयुक्त कमान के तहत रखने पर सहमत हुए।
वारसा संधि
नाटो में पश्चिम जर्मनी के शामिल होने के तुरंत बाद ही सोवियत संघ और उसके आश्रित राज्यों के बीच वारसा संधि 1955 पर हस्ताक्षर किये गए। यह एक पारस्परिक रक्षा समझौता था जिसे पश्चिमी देशों ने पश्चिमी जर्मनी की नाटो सदस्यता के विरुद्ध सोवियत प्रतिक्रिया के रूप में देखा था।
अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्द्धा
शीत युद्ध की प्रतिद्वंद्विता में अंतरिक्ष अन्वेषण का एक और नाटकीय क्षेत्र के रूप में उभार हुआ। वर्ष 1957 में सोवियत संघ ने स्पुतनिक का प्रक्षेपण किया, यह विश्व का पहला मानव निर्मित कृत्रिम उपग्रह था जिसे पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया। वर्ष 1958 में अमेरिका ने एक्सप्लोरर नामक अपना पहला उपग्रह प्रक्षेपित किया। इस अंतरिक्ष प्रतिस्पर्द्धा में अंततः जीत अमेरिका की हुई जब इसने वर्ष 1969 में सफलतापूर्वक चंद्रमा की सतह पर पहला मानव (नील आर्मस्ट्रांग) भेजा।
हथियारों की प्रतिस्पर्द्धा
सोवियत संघ पर अमेरिकी नियंत्रण रणनीति ने संयुक्त राज्य अमेरिका को वृहत पैमाने पर हथियारों का संग्रहकर्त्ता बना दिया और प्रतिक्रिया में सोवियत संघ ने भी यही किया। वृहत पैमाने पर परमाणु हथियारों का विकास हुआ और विश्व ने परमाणु युग में प्रवेश किया।
क्यूबा मिसाइल संकट, 1962
क्यूबा भी तब इस शीत युद्ध में शामिल हो गया जब अमेरिका ने वर्ष 1961 में क्यूबा के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़ लिये और सोवियत संघ ने क्यूबा की आर्थिक सहायता में वृद्धि कर दी। वर्ष 1961 में अमेरिका ने क्यूबा में ‘बे ऑफ पिग्स’ आक्रमण की योजना बनाई जिसका उद्देश्य सोवियत समर्थित फिदेल कास्त्रो की सत्ता को उखाड़ फेंकना था किंतु अमेरिका का यह अभियान विफल रहा। इस घटना के बाद फिदेल कास्त्रो ने सोवियत संघ से सैन्य मदद की अपील की जिस पर सोवियत संघ ने क्यूबा में परमाणु मिसाइल लान्चर स्थापित करने का निर्णय लिया जिसका उद्देश्य अमेरिका को लक्ष्य बनाना था। क्यूबा मिसाइल संकट ने दोनों महाशक्तियों को परमाणु युद्ध के कगार पर पहुँचा दिया था। हालाँकि कूटनीतिक प्रयासों से इस संकट को टालने में सफलता मिली।
वर्ष 1991 में कई कारणों से सोवियत संघ का विघटन हो गया जिसने शीत युद्ध की समाप्ति को चिह्नित किया क्योंकि दो महाशक्तियों में से एक अब कमज़ोर पड़ गया था।
सोवियत संघ के विघटन के कारण
सोवियत संघ के विवघटन के मुख्य कारण इस प्रकार से हैं:-
सैन्य कारण
अंतरिक्ष और हथियारों की प्रतिस्पर्द्धा में सैन्य आवश्यकताओं को पूरा करने में सोवियत संघ के संसाधनों का बड़ा नुकसान हुआ था।
मिखाइल गोर्बाचेव की नीतियाँ
मृतप्राय होती सोवियत अर्थव्यवस्था में सुधार के लिये गोर्बाचेव ने ‘ग्लासनोस्त’(Openness) और ‘पेरेस्त्रोइका’ (Restructuring) नीतियों को अपनाया। ग्लासनोस्त का उद्देश्य राजनीतिक परिदृश्य का उदारीकरण था। पेरेस्त्रोइका का उद्देश्य सरकार द्वारा संचालित उद्योगों के स्थान पर अर्द्ध-मुक्त बाज़ार नीतियों को प्रस्तुत करना था। इसने विभिन्न मंत्रालयों को अधिक स्वतंत्रता से कार्य करने की अनुमति दी और कई बाज़ार अनुकूल सुधारों की शुरुआत हुई। इन कदमों ने साम्यवादी विचार में किसी पुनर्जागरण का प्रवेश कराने के बजाय संपूर्ण सोवियत तंत्र की आलोचना का मार्ग खोल दिया। राज्य ने मीडिया और सार्वजनिक क्षेत्र दोनों के ऊपर अपना नियंत्रण खो दिया तथा पूरे सोवियत संघ में लोकतांत्रिक सुधार आंदोलनों ने गति पकड़ ली। इसके साथ ही बदहाल होती अर्थव्यवस्था, गरीबी, बेरोज़गारी आदि के कारण जनता में असंतोष बढ़ रहा था और वे पश्चिमी विचारधारा एवं जीवनशैली की ओर आकर्षित हो रहे थे।
अफगानिस्तान का युद्ध
सोवियत-अफगान युद्ध (1979-89) सोवियत संघ के विघटन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण था क्योंकि इसने सोवियत संघ के आर्थिक और सैन्य संसाधनों को काफी क्षति पहुंचाई थी।
शीत युद्ध की समाप्ति ने अमेरिका की जीत को प्रतिबिंबित किया और द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था में बदल गई। हालाँकि पिछले एक दशक में विश्व के सबसे शक्तिशाली देश के रूप में अमेरिका की स्थिति में तेज़ी से अस्थिरता आई है। अफ़गानिस्तान और इराक पर अमेरिकी आक्रमण, गैर-पारंपरिक सुरक्षा खतरे, वैश्विक आर्थिक अस्थिरता, धार्मिक कट्टरवाद के प्रसार के साथ ही नई आर्थिक शक्तियों (जैसे-जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत, चीन आदि) के उदय ने विश्व को अधिक बहुध्रुवीय छवि प्रदान की है |
हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए थे जहाँ उन्होंने तमिलनाडु के महाबलीपुरम में भारतीय प्रधानमंत्री के साथ एक अनौपचारिक वार्त्ता में हिस्सा लिया। उल्लेखनीय है कि इस प्रकार की अनौपचारिक वार्ताओं की शुरुआत वर्ष 2018 में हुई थी और ये दोनों प्रतिनिधियों को द्विपक्षीय, क्षेत्रीय एवं वैश्विक महत्ता के अतिव्यापी मुद्दों पर चर्चा जारी रखने का अवसर प्रदान करती हैं।
d.1 राजनीतिक संबंध
भारत ने 1 अप्रैल, 1950 को चीन के साथ अपने राजनयिक संबंध स्थापित किये थे और इसी के साथ भारत पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने वाला पहला गैर-समाजवादी देश बन गया था। वर्ष 1962 में भारत और चीन के मध्य सीमा संघर्ष की शुरुआत दोनों देशों के संबंधों के लिये एक गहरा झटका था। परंतु वर्ष 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की ऐतिहासिक यात्रा ने दोनों देशों के मध्य संबंधों को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यदि वर्तमान संदर्भ में बात करें तो दोनों देशों के प्रतिनिधियों के मध्य समय-समय पर द्विपक्षीय वार्ताओं के साथ-साथ अनौपचारिक सम्मेलनों का आयोजन भी किया जा रहा है, जो यह दर्शाता है कि दोनों देश अपने दीर्घकालिक हितों को लेकर सजग हैं।
d.2 वाणिज्यिक और आर्थिक संबंध
भारत और चीन ने वर्ष 1984 में एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये जिसके तहत उन्हें मोस्ट फेवर्ड नेशन (MFN) का दर्जा प्रदान किया गया। इसके पश्चात् वर्ष 1994 में दोनों देशों ने दोहरे कराधान से बचने के लिये भी एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। भारत और चीन के बीच व्यापार और आर्थिक संबंधों में पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी देखी गई है। वर्ष 2000 की शुरुआत में दोनों देशों के बीच 3 बिलियन डॉलर का व्यापार था, जो कि वर्ष 2017 में बढ़कर 84.5 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया।
d.3 सांस्कृतिक संबंध
भारत और चीन के मध्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान की शुरुआत कई शताब्दियों पहले हुई थी। कुछ ऐसे भी साक्ष्य मौजूद हैं जो भारत की प्राचीन वैदिक सभ्यता और चीन की शांग-झोउ सभ्यता के मध्य 1500-1000 ई.पू. के आस-पास वैचारिक और भाषायी आदान-प्रदान को दर्शाते हैं। पहली, दूसरी और तीसरी शताब्दी के दौरान कई बौद्ध तीर्थयात्रियों और विद्वानों ने ऐतिहासिक ‘रेशम मार्ग’ के माध्यम से चीन की यात्रा की। इसी तरह कई चीनी यात्री जैसे- इत्सिंग, फाह्यान और ह्वेनसांग आदि भी भारत की यात्रा पर आए। इसके अलावा शैक्षणिक आदान-प्रदान हेतु वर्ष 2003 में पेकिंग विश्वविद्यालय में भारतीय अध्ययन केंद्र की भी स्थापना की गई थी। चीन में भी योग तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है। उल्लेखनीय है कि 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में नामित करने हेतु संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव के सह-प्रायोजकों में चीन भी एक था। भारतीय फिल्में भी चीन में काफी लोकप्रिय हैं और वहाँ काफी अच्छी कमाई करती हैं।
d.4 शैक्षिक संबंध
भारत और चीन ने वर्ष 2006 में एजुकेशन एक्सचेंज प्रोग्राम (EEP) पर हस्ताक्षर किये, ज्ञातव्य है कि यह दोनों देशों के बीच शैक्षिक सहयोग को बढ़ाने हेतु किया गया एक समझौता है। इस समझौते के तहत भारत और चीन एक-दूसरे के देश में उच्च शिक्षा के मान्यता प्राप्त संस्थानों के 25 छात्रों को सरकारी छात्रवृत्ति प्रदान करते हैं। दोनों पक्षों के बीच शिक्षा क्षेत्र में सहयोग के परिणामस्वरूप चीन में भारतीय छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई है। आँकड़ों के अनुसार, शैक्षणिक वर्ष 2016-17 के दौरान चीन के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुल 18171 भारतीय छात्र विभिन्न विषयों में अध्ययनरत थे।
d.5 भारत और चीन- सहयोग क्षेत्र
दोनों देशों के मध्य प्रतिद्वंद्विता के बावजूद उन्होंने सांस्कृतिक स्तर पर काफी अच्छा सहयोग किया है, उल्लेखनीय है कि भारत में जन्मा बौद्ध धर्म चीन में काफी लोकप्रिय है।
दोनों ही देश दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समूह ब्रिक्स (BRICS) का हिस्सा हैं। ज्ञयातव्य है कि वर्ष 2014 में ब्रिक्स नेताओं ने न्यू डेवलपमेंट बैंक की स्थापना के लिये एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। न्यू डेवलपमेंट बैंक का मुख्यालय शंघाई (चीन) में है और इसके वर्तमान अध्यक्ष के वी कामथ (एक भारतीय) हैं।
ज्ञातव्य है कि भारत चीन समर्थित एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक का संस्थापक सदस्य भी था।
d.6 चीन का हॉन्गकॉन्ग संकट और भारत
भारत का रुख चीन की हॉन्गकॉन्ग नीति के प्रति उदासीन रहा है। भारत ने कभी भी प्रदर्शनकारियों का समर्थन नहीं किया है, जबकि अन्य देश खुलकर हॉन्गकॉन्ग के लोगों का समर्थन करते रहे हैं। चीन के साथ भारत पहले से उपस्थित मतभेदों को बढ़ाना नहीं चाहता है किंतु चीन का रुख कश्मीर जैसे विभिन्न मुद्दों पर भारत विरोधी ही रहा है| चीन हमेशा पाकिस्तान के समर्थन में खड़ा रहा है। एक ओर चीन कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना चाहता है, वहीं स्वयं उईगर तथा हॉन्गकॉन्ग के मामले में अमानवीय रुख अख्तियार करता है। भारत को भी चीन के रुख के अनुसार ही अपनी नीति का निर्माण करना चाहिये। यदि चीन कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ खड़ा होता है तो भारत को भी हॉन्गकॉन्ग का खुलकर समर्थन करना चाहिये।