UNIT 1
गद्य खंड
बंग महिला का साहित्यिक जीवन परिचय
इस कहानी की लेखिका बंग महिला हैं। बंग महिला का पूरा नाम श्रीमती राजेंद्रबाला घोष था। इनका जन्म अगस्त 1881 ई. में हुआ था। बंग महिला का नाम हिन्दी कहानी के में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। जिस समय बंग महिला ने हिन्दी में कहानियाँ लिखनी शुरू की थीं, उस समय हिन्दी कहानी अपने पैरों पर खड़ी ही हो रही थी। यानी हिन्दी कहानी भाव और शिल्प दोनों दृष्टियों से अपने आरंभिक अवस्था में थी।
बंग महिला के हिन्दी कहानी के विकास में योगदान की चर्चा सबसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में किया है। इनकी कहानियों एवं अन्य रचनाओं का संपादन आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘कुसुम-संग्रह’ में किया है। ‘दुलाईवाली’ के अतिरिक्त इनकी दूसरी प्रमुख कहानी ‘कुंभ में छोटी बहू’ है। हालाँकि इसे उन्होंने अपनी माँ के नाम से प्रकाशित किया था। भवदेव पांडेय ने इस कहानी की लेखिका बंग महिला को ही माना है। जिस वक्त बंग महिला ने कहानी लिखना शुरू किया था, उस वक्त कहानी लिखने को समाज में अच्छा काम नहीं माना जाता है। इस कारण उन्होंने बंग महिला के नाम से कहानियाँ लिखीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई पाश्चात्य एवं बांग्ला कहानियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया है।
बंग महिला बंगाली मूल की थीं लेकिन इनका निवासस्थान उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर जिला था। इस वजह से इनकी हिन्दी भाषा पर पकड़ अच्छी थी। मिर्जापुर उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में अवस्थित है और यह भोजपुरी भाषी क्षेत्र है। इस कारण इनकी कहानियों में भोजपुरी का प्रभाव भी देखने को मिलता है। इनकी कहानियों में आंचलिकता का पुट भी है लेकिन यह अपने आरंभिक अवस्था में ही है। इन्होंने ‘दुलाईवाली’ कहानी में हास्य-व्यंग्य के द्वारा पर्दा-प्रथा की विसंगतियों को दिखाया है तो ‘कुंभ में छोटी बहू’ में धार्मिक अंधविश्वास पर प्रहार किया है।
बंग महिला की कहानियाँ शिल्प एवं भाव के दृष्टिकोण से बहुत ही प्रौढ़ नहीं हैं लेकिन हिन्दी कहानी के विकास में इनकी कहानी कला का अमूल्य योगदान है।
दुलाईवाली कहानी का सारांश/कथावस्तु
दुलाईवाली एक हास्य-व्यंग्य प्रधान कहानी है। इस कहानी का प्रकाशन सन् 1907 में हुआ था। रेलयात्रा के माध्यम से इस कहानी में लेखिका ने हास्य के कई रंग उकेरे हैं। इस कहानी की शुरुआत बनारस (अब वाराणसी) के गौदोलिया इलाके से होती है। कहानी के आरंभ में ही एक हैरान-परेशान और हड़बड़ी में आते एक व्यक्ति से पाठक का परिचय होता है। यह व्यक्ति अपने ससुराल से अपनी पत्नी को विदा करवाने की हड़बड़ी में है। अचानक से अपने एक प्रिय मित्र का तार आने के कारण वह बनारस से तुरंत इलाहाबाद जाने के लिए व्यग्र हो जाता है। इस व्यक्ति का नाम वंशीधर है और उसकी पत्नी का नाम जानकी है। जानकी पहले इस तरह हड़बड़ी में अपने मायके से विदा होने के लिए मना करती है। लेकिन बाद में पति वंशीधर की बैचेनी देखकर वह रोते-धोते तैयार होती है। वंशीधर को उसके मित्र नवलकिशोर ने तार भेजकर यह आग्रह किया था कि वंशीधर भी अपनी पत्नी के साथ मुगलसराय से इलाहाबाद उनके साथ चलें। नवलकिशोर भी अपनी नई नवेली पत्नी के साथ कलकत्ते से आ रहे थे। नवलकिशोर वंशीधर के दूर के ममरे भाई लगते थे परंतु दोनों में भाई से अधिक मित्र का संबंध था।
वंशीधर जब अपनी पत्नी के साथ मुगलसराय स्टेशन आए तो उन्होंने ड्योढ़े दर्जे की टिकट ली। रेलगाड़ी के आने के बाद उन्होंने अपनी पत्नी को जनाना डिब्बे में बैठाया और अपने मित्र को खोजने लगे। लेकिन वंशीधर को नवलकिशोर गाड़ी के किसी डिब्बे में नहीं मिले। ड्योढ़े दर्जे में वंशीधर भीड़ देखकर तीसरे दर्जे में बैठ गए। रेलगाड़ी जब मिर्जापुर स्टेशन पर रूकी तो उन्हें भूख लगी तो एक खोमचे वाले से उन्होंने पूड़ी और मिठाई खरीदकर खाई। इसके बाद उन्हें जानकी के भूखे होने का एहसास हुआ तो वे जानकी से पूछने गए लेकिन जानकी ने कुछ भी खाने से मना कर दिया।
मिर्जापुर से रेलगाड़ी के चलने पर एक अलग ही तरह की परिस्थिति डिब्बे में पैदा हो गई। दरअसल हुआ यह कि वंशीधर के पास में बैठी एक भद्र महिला रोने लगी क्योंकि रेलगाड़ी खुल चुकी थी और उस महिला का पति अभी तक आया नहीं था। रेलगाड़ी अपनी गति पकड़ चुकी थी। उसी डिब्बे में तीन-चार प्रौढ़ ग्रामीण महिलाएँ भी बैठी हुई थीं। वे महिलाएँ भोजपुरी में उस महिला से यह पूछने लगी कि वह कहाँ चढ़ी है और उसे कहाँ जाना है। उस भद्र महिला को सिर्फ इतना पता है कि उसे इलाहाबाद जाना है। इलाहाबाद में किस गाँव या किस जगह जाना है उसे यह नहीं पता है। डिब्बे में बैठे अन्य महिला और पुरुष इस तरह की अन्य घटनाओं का जिक्र करने लगे। इससे उस भद्र महिला की घबराहट और बढ़ जाती है। वंशीधर यह सब देखकर उस भद्र महिला को सांत्वना देते हैं और मदद करने का आश्वासन भी देते हैं। वंशीधर यह देखते हैं कि उसी डिब्बे में दुलाई ओढ़कर बैठी एक महिला बार-बार उनकी ओर देख रही है। वंशीधर को उस महिला का यह व्यवहार बहुत अटपटा लगता है। भद्र महिला की मदद करने के कारण कुछ सहयात्री वंशीधर को सशंकित निगाहों से भी देखते हैं। एक व्यक्ति से तो वंशीधर की झड़प भी हो जाती है।
इलाहाबाद में वंशीधर उतरते हैं और अपनी पत्नी के साथ-साथ उस भद्र महिला को भी उतारते हैं। उसी डिब्बे से उतरी एक प्रौढ़ महिला को उन दोनों महिलाओं के साथ रहने को कहते हैं। वंशीधर इस बीच स्टेशन मास्टर से यह पता करने जाते हैं कि उस महिला के पति ने कोई तार तो नहीं भेजा है। परंतु उस महिला के लिए कोई तार नहीं आया था। वंशीधर जब लौटकर आते हैं तो देखते हैं कि वहाँ कोई स्त्री नहीं है। वह परेशान हो जाते हैं और सोचते हैं कि न जाने कैसी मुसीबत में फँस गए। तभी वह दुलाईवाली स्त्री को वहाँ देखते हैं जो उनके ही डिब्बे में बैठी थी और बार-बार वंशीधर को घूर रही थी। वंशीधर उस दुलाईवाली को आते देखते ही उससे कहते हैं कि तुम ही उन स्त्रियों को कहीं ले गई हो। इतना सुनते ही दुलाई से मुँह हटाकर नवलकिशोर खिलाखिला उठे। वंशीधर के सामने यह भेद खुलता है कि यह सारा हँसी-मजाक नवलकिशोर का किया कराया था। मित्रवत् नाराजगी के साथ वंशीधर कहते हैं कि उन्हें इस तरह का मजाक पसंद नहीं। नवलकिशोर के इस मजाक के कारण उनकी पत्नी भी काफी परेशान रहीं। इस पर वंशीधर की पत्नी ने नवलकिशोर की पत्नी को कहा कि तुम जाने दो इन लोगों की हँसी ही ऐसी होती है। इसके बाद खुशी-खुशी दोनों मित्र अपनी-अपनी पत्नियों को लेकर अपने-अपने घर चले गए।
कहानी का उद्देश्य/भाव/भावना
दुलाईवाली कहानी का रचनाकाल सन् 1907 है। बंगमहिला हास्य-व्यंग्य के माध्यम से तत्कालीन समाज में महिला की दशा का चित्रण किया है। रेलयात्रा के माध्यम से यह दिखाया है कि बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशक में नई-नवेली दुल्हनों को सही से अपने ससुराल का पता भी मालूम नहीं होता था। वह हर काम के लिए पुरुषों खासकर अपने पति पर निर्भर थी। ग्रामीण महिलाओं की बातचीत के माध्यम से बंग महिला तत्कालीन समाज में स्त्रियों की अज्ञानता पर भी प्रकाश डाला है।
जिस समय यह कहानी लिखी गई थी, तब सन् 1905 के बंगाल विभाजन का विरोध अपनी चरम सीमा पर था। बंगाल समेत पूरे देश में स्वदेशी आंदोलन का जोर था। इस कहानी में एक-दो पंक्तियों के माध्यम से इस आंदोलन का प्रभाव भी दिखाया गया है। वंशीधर को इस बात का अफसोस है कि उन्होंने विलायती धोती पहनी है और उनके मित्र नवलकिशोर स्वदेशी के पक्षधर हैं। उन्हें यह डर है कि विलायती धोती देखकर नवलकिशोर उन्हें उलाहना देंगे। वंशीधर भी इस बात से सहमत दिखते हैं कि भले ही विलायती धोती सस्ती है और स्वदेशी धोती महँगी लेकिन इससे देश का धन देश में ही रहता है। बंग महिला ने इस प्रसंग को बहुत अधिक नहीं बढ़ाया है, परंतु वह यहाँ स्वदेशी आंदोलन का समर्थन करने के लिए इसका जिक्र किया है। जिस समय यह कहानी लिखी थी उस समय अंग्रेजों द्वारा भारतीयों का दमन चरम पर था। अंग्रेजी सरकार अपने विरोध में लिखे साहित्य को जब्त कर लिया करती थी। इस बंग महिला ने इस प्रसंग को बहुत ही चालाकी से पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।
इस कहानी के माध्यम से उन्होंने हास्य-व्यंग्य के माध्यम से स्त्रियों व्याप्त अशिक्षा को भी उजागर कर स्त्री शिक्षा के महत्व को दर्शाया है। इस कहानी में परोक्ष रूप से स्त्री-स्वालंबन की भी वकालत की गई है, जिसकी जरूरत आज के अति आधुनिक युग में भी महसूस की जाती है।
प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन परिचय
प्रेमचंद सिर्फ हिन्दी साहित्य के ही वरन् विश्व के महान साहित्यकारों की श्रेणी में गिने जाते हैं। प्रेमचंद को कथा-सम्राट और उपन्यास सम्राट भी कहा जाता है। प्रेमचंद हिंदी के साथ-साथ उर्दू साहित्य के भी बड़े कथाकारों में शुमार किए जाते हैं। प्रेमचंद के लगभग सारे उपन्यास और कहानियाँ हिंदी के साथ-साथ उर्दू में प्रकाशित हैं। वे दोनों भाषाओं में लिखा करते थे। इस कारण प्रेमचंद को गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतिनिधि भी माना जाता है।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, सन् 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में हुआ था। इनका वास्तविक नाम धनपत राय था और बचपन का नाम नवाब राय था। प्रेमचंद ने अपनी शुरुआती रचनाएँ नवाबराय के नाम से ही लिखीं थी। प्रेमचंद का पहला उपन्यास सन् 1903 में उर्दू में प्रकाशित हुआ था, जिसका नाम असरारे मआबिद (हिन्दी में देवस्थान रहस्य) था। प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानियाँ ज़माना नाम की उर्दू पत्रिका में प्रकाशित हुईं। इन कहानियों में देशभक्ति की भावना प्रबल थी। इन कहानियों का संग्रह सन् 1907 में सोज़े वतन के नाम से प्रकाशित हुआ, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त करके जला दिया। बड़ी मुश्किल से प्रेमचंद गिरफ्तार होने से बचे। इसके बाद वे प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे। प्रेमचंद के नाम से इनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ सन् 1910 में प्रकाशित हुई।
सन् 1936 में अपनी मृत्यु से पहले तक प्रेमचंद ने लगभग 300 कहानियाँ और लगभग 12 उपन्यास लिखे। ‘सेवासदन’ प्रेमचंद का पहला उपन्यास है। इसके अलावा प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन, कर्मभूमि और गोदान इनके प्रमुख उपन्यास हैं। ‘गोदान’ प्रेमचंद की प्रसिद्धि का मूल आधार है। प्रेमचंद ने इसमें कृषक जीवन की आशा-आकांक्षाओं और शासन-तंत्र द्वारा उसके शोषण का पूरी सहृदयता से चित्रण किया है। किसानों और स्त्रियों की समस्या को प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में प्रमुखता से उठाया है। मंगलसूत्र इनका अपूर्ण उपन्यास है। इस उपन्यास को पूरा करने से पहले ही प्रेमचंद की मृत्यु हो गई थी।
उपन्यासों की तरह कहानियों में भी प्रेमचंद ने ग्राम-जीवन से अपने विषय चुने हैं। ईदगाह, बड़े घर की बेटी, पंच-परमेश्वर, नमक का दरोगा, पूस की रात, सवा सेर गेहूँ, सद्गति, दूध का दाम, घासवाली, कफन आदि। प्रेमचंद अपनी कहानियों में स्त्री जीवन, किसान जीवन, दलित जीवन की कठिनाइयों के साथ-साथ जीवन के अनेक पहलुओं एवं समस्याओं को उठाया है। प्रेमचंद की शुरुआती रचनाएँ आदर्शवादी हैं। इन कहानियों या उपन्यासों में प्रेमचंद ने पात्रों का हृदय परिवर्तन होते हुए दिखाया है। बाद की रचनाओं में प्रेमचंद अधिक यथार्थवादी नजर आते हैं। पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा, बड़े घर की बेटी जैसी कहानियों में वे पात्रों का हृदय-परिवर्तन कर सामाजिक-समस्याओं का समाधान दिखाते हैं लेकिन बाद की कहानियों प्रेमचंद ऐसा नहीं करते हैं। प्रेमचंद की बाद की कहानियों को पढ़कर ऐसा लगता है वे व्यक्ति नहीं समाज के परिवर्तन के हिमायती थे।
कथा-साहित्य के अलावा प्रेमचंद ने अनेक सामाजिक मुद्दों पर निबंध भी लिखे हैं। अपने जीवन-काल में इन्होंने मर्यादा, माधुरी, हंस, जागरण आदि कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
प्रेमचंद की भाषा सहज और प्रवाहपूर्ण है। वे पात्रानुकूल भाषा शैली का प्रयोग करते हैं। प्रेमचंद की कहानियों या उपन्यासों के पात्रों की भाषा से ही उनके निवास-स्थान, शिक्षा-दीक्षा, उम्र, व्यवसाय आदि का पता चल जाता है। प्रेमचंद खड़ी बोली हिन्दी में ग्रामीण देशज शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं। इससे पाठक ग्रामीण परिवेश या उस पात्र के साथ से जुड़ाव महसूस करता है।
हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद के महत्व का पता इसी तथ्य से लग जाता है कि जिस काल में वे लिख रहे थे, उसे हिंदी साहित्य के कहानी और उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद युग के नाम से जाना जाता है। प्रेमचंद हिंदी साहित्य के साथ-साथ पूरे भारतीय साहित्य के एक अनमोल रतन हैं।
‘बड़े घर की बेटी’ कहानी का सारांश/कथावस्तु
‘बड़े घर की बेटी’ कहानी एक जमींदार परिवार को केंद्र में रखकर लिखी गई है। यह कहानी गौरीपुर गाँव के जमींदार बेनीमाधव के घर की है। बेनीमाधव के दादा किसी समय बहुत बड़े जमींदार थे और काफी रईस भी थे। उनके दरवाजे पर कभी हाथी झूमता था लेकिन बेनीमाधव की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अपनी आधी से अधिक संपत्ति मुकदमों के कारण वे वकीलों को भेंट कर चुके हैं। अब उनके दरवाजे पर अब एक मरियल सी भैंस है। यह भैंस दूध काफी देती थी। बेनीमाधव के दो बेटे हैं – श्रीकंठ सिंह और लालबिहारी सिंह। श्रीकंठ सिंह बड़े बेटे हैं और बी.ए. की डिग्री प्राप्त करके किसी दफ्तर में नौकरी करते हैं। उनका छोटा बेटा लालबिहारी सिंह मजबूत कदकाठी का है और भैंस का दो सेर दूध वह सुबह उठकर पी जाता है। श्रीकंठ सिंह को वैधक का शौक है। वे आयुर्वेद और भारतीय संस्कृति के पक्षधर हैं। अपने गाँव में उन्होंने ही रामलीला शुरू करवाई है। वे संयुक्त परिवार के समर्थक हैं। उनकी पत्नी का नाम आनंदी है। आनंदी श्रीकंठ के विपरीत एकल परिवार की समर्थक है। उसका विचार था कि आए दिन कलह से अच्छा है कि अलग रहकर सुखपूर्वक रहा जाए। श्रीकंठ सिंह अपने कई दोस्तों को परिवार तोड़ने पर उलाहना दे चुके थे।
आनंदी उँचे कुल की एक रूपवती स्त्री है। उसके पिता नाम भूपसिंह है। भूपसिंह एक छोटे से रियासत के ताल्लुकदार हैं। भूपसिंह की सात बेटियाँ हैं और आनंदी उनकी चौथी बेटी है। श्रीकंठ सिंह को समाज-सेवा से अत्यंत लगाव है। इसी लगाव के कारण भूपसिंह से उनकी मुलाकात होती है और भूपसिंह अपनी बेटी आनंदी का विवाह उनसे कर देते हैं। आनंदी को बचपन से ही बहुत विलास में रही थी। परंतु ससुराल में इस तरह की सुविधा नहीं थी। आनंदी ने ससुराल की आर्थिक स्थिति के अनुसार अपने-आपको ढाल लिया है।
लालबिहारी सिंह कोई काम नहीं करते हैं। एक दिन वह कहीं से दो चिड़िया लिए हुए आए और अपनी भाभी से कहा कि इसे जल्दी बना दो। हाँड़ी में आनंदी ने देखा कि घी पावभर से अधिक नहीं था। बड़े घर की बेटी होने के कारण उसने कभी किफायत करना नहीं सीखा था, इस कारण उसने पूरा घी माँस में डाल दिया। जब लालबिहारी खाने बैठे तो उसने देखा कि दाल में घी नहीं है। लालबिहारी के पूछने पर आनंदी ने जवाब दिया कि उसने सारा घी माँस में डाल दिया है। लालबिहारी ने इस पर कहा कि आपके मायके में जैसे घी की नदियाँ बहती हो। आनंदी ने इस पर जवाब में कहा कि इतना घी वहाँ नाई-कहार खा जाते हैं। लालबिहारी ने अपने आपको इस बात से अपमानित महसूस किया। गुस्से में उसने थाली पटकी और आनंदी की ओर खड़ाऊँ दे मारा। आनंदी ने हाथ आगे किया जिससे सिर तो बच गया पर ऊँगली पर चोट लगी। लालबिहारी अपनी पत्नी के साथ भी अक्सर मारपीट किया करता था। उसकी पत्नी साधारण जमींदार की बेटी थी लेकिन आनंदी बड़े घर की बेटी थी। आनंदी को भी अपमान महसूस हुआ और वह श्रीकंठ सिंह के आने का इंतजार करने लगी।
श्रीकंठ सिंह शनिवार को घर आते थे। आनंदी ने इन दो दिनों में कुछ न खाया था। जब श्रीकंठ सिंह आए तो खाने के समय लालबिहारी ने कहा कि भैया आप भाभी को समझा दें कि वह मुँह संभालकर बात करें। बेनीमाधव ने भी लालबिहारी का पक्ष लिया। श्रीकंठ सिंह जब खाना खाकर आनंदी के पास पहुँचे तो उन्होंने कहा कि तुमने यह क्या तमाशा लगा रखा है। तब आनंदी ने उनसे कहा कि लालबिहारी ने उन्हें खड़ाऊँ फेंककर मारा है। इसके बाद पूरी घटना बताकर वह रोने लगी। आनंदी के रोने से श्रीकंठ का धैर्य जवाब दे गया। अगले दिन वह सुबह उठकर बेनीमाधव के पास गए और कहा कि मुझे अलग कर दीजिए। श्रीकंठ सिंह अपने कई मित्रों को इस बात केलिए फटकार चुके थे लेकिन आज खुद वे अलग होने की बात कह रहे थे। बेनीमाधव श्रीकंठ सिंह का समझाने की पूरी कोशिश करते हैं लेकिन वे नहीं मानते हैं। जिन लोगों ने भी यह बात सुनी, वे ईर्ष्या के कारण खुश हुए।
लालबिहारी दरवाजे के बाहर खड़े होकर पिता और भाई की बातें सुन रहा था। लालबिहारी अपने भाई का काफी आदर करता था। उसे इस बात से ठेस पहुँची कि भैया उसका मुँह तक नहीं देखना चाहते। वह आनंदी के पास गया और कहा कि अब वह भैया को मुँह नहीं दिखाएगा और घर छोड़कर चला जाएगा। जिस वक्त लालबिहारी आनंदी के द्वार पर खड़ा था, उसी समय श्रीकंठ सिंह भी आए और लालबिहारी की ओर बिना देखे अंदर चले गए। आनंदी भीतर से दयावान थी। उसे पश्चाताप हुआ कि उसने क्यों श्रीकंठ सिंह को यह बात बताई। आनंदी ने श्रीकंठ सिंह से कहा कि लालबिहारी को अंदर बुला लो वे रो रहे हैं। आनंदी ने अपने-आपको को भी बुरा-भला कहा। श्रीकंठ सिंह फिर भी नहीं पिघले। लालबिहारी जब जाने लगा तो आनंदी ने उसका पकड़कर रोक लिया। उसे सौगंध दी कि वह घर छोड़कर नहीं जाएगा। आनंदी ने कहा कि लालबिहारी को लेकर उसके मन में कोई मैल नहीं है। देवर-भाभी के इस स्नेह से श्रीकंठ सिंह का दिल भी पिघल गया और उन्होंने लालबिहारी को प्रेम से गले लगा लिया।
बेनीमाधव कहीं बाहर से आ रहे थे। यह दृश्य देखकर उन्होंने कहा कि बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं। गाँव में भी जिसने इस घटना को सुना उसने आनंदी की प्रशंसा की।
कहानी का उद्देश्य/भाव/भावना/ आनंदी का चरित्र-चित्रण
यह कहानी प्रेमचंद की आरंभिक कहानी है। इस कहानी का रचनाकाल 1910 ई. है। प्रेमचंद शुरुआत में आदर्शवादी दृष्टिकोण से कहानियाँ लिखते थे। घटना का वर्णन वे यथार्थवादी तरीके से करते थे लेकिन इसका एक आदर्शवादी समाधान देते थे। बड़े घर की बेटी भी ऐसी ही कहानी है। आनंदी इस कहानी की मुख्य पात्र है और वही बड़े घर की बेटी है। वह त्याग की प्रतिमूर्ति क्योंकि मायके में वह ऐशोआराम में रही है। वहाँ नौकर-चाकर उसका काम करते थे लेकिन ससुराल में वह बिना शिकायत सबका काम करती है। पूरे घर को उसने संभाल रखा है।
प्रेमचंद संयुक्त परिवार के समर्थक थे। इस कहानी को भी उन्होंने इसी के समर्थन में लिखा है। स्त्रियों के चरित्र को वे संयुक्त परिवार के बिखराव का मूल कारण मानते थे। प्रेमचंद जिस समय यह कहानी लिख रहे थे उस समय पाश्चात्य संस्कृति के कारण भारत के पारंपरिक संयुक्त परिवार का ढाँचा बिखर रहा था। लोग अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अलग रहना पसंद करने लगे थे। संयुक्त परिवार लोगों को एक बोझ लगने लगा था। इस कहानी में आनंदी के विचारों के बारे में भी प्रेमचंद यह लिखा है कि आनंदी भी एकल परिवार की समर्थक है। जबकि श्रीकंठ सिंह संयुक्त परिवार के समर्थक हैं। पति-पत्नी के बीच का यह वैचारिक मतभेद कहानी में दूसरे रूप में आता है। लालबिहारी के दुर्व्यवहार के बाद श्रीकंठ सिंह ही अलग होने का राग अलापते हैं और आनंदी परिवार को टूटने से बचाती है।
प्रेमचंद ने आनंदी को सेवा, त्याग और दया की मूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया है। इस कहानी में प्रेमचंद ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि घर के एकजुट रहने या बिखरने में स्त्रियों की ही प्रमुख भूमिका होती है। कहानी में भी पहले आनंदी के कारण ही घर में लड़ाई होती है और बात में आनंदी ही दोनों भाइयों के बीच मेल करवाती है।
प्रेमचंद की यह पहली कहानी है। इस कारण प्रेमचंद कुछ ढहते हुए सामंती मूल्यों जैसे संयुक्त परिवार आदि के प्रति इस कहानी में मोहग्रस्त दिखते हैं। प्रेमचंद ने अपने साहित्य में स्त्री के सेवा, त्याग, ममता और दया वाले रूप को ही अधिक चित्रित किया है। इस कहानी में भी आनंदी दया की मूर्ति है। लालबिहारी के आँसू से उसका हृदय पिघल जाता है। प्रेमचंद ने इस कहानी में हरेक पात्र का हृदय परिवर्तन किया है। प्रेमचंद यह मानते थे कि मनुष्य के हृदय को परिवर्तित किया जा सकता है। हर मनुष्य के भीतर चाहे वह कितना ही बुरा क्यों न हो, एक कोमल भावना रहती है। इसी कारण प्रेमचंद ने इस कहानी के हर पात्र की कोमल भावना को उभारकर संयुक्त परिवार के महत्व को स्थापित किया है।
भीष्म साहनी का साहित्यिक जीवन परिचय
भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त, 1915 ई. को पंजाब प्रांत के रावलपिंडी शहर में हुआ था। देश विभाजन के बाद अब यह शहर पाकिस्तान में है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा यहीं हुई। बाद में भीष्म साहनी ने गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया और पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि ग्रहण की। विभाजन के बाद वे भारत आ गए और कुछ दिनों तक पत्रकारिता की। मार्क्सवाद की ओर झुकाव के कारण ये नाटक मंडली इप्टा से भी जुड़े। बाद में उन्होंने बहुत दिनों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक भी रहे। ये इस दौरान प्रगतिशील लेखक संघ तथा अफ्रो-एशियाई लेखक संघ भी सम्बद्ध रहे।
देश के विभाजन की विभीषिका को इन्होंने काफी करीब से देखा था और इसका अनुभव भी किया था। देश विभाजन की विभीषिका पर इन्होंने कई कहानियाँ लिखीं। देश विभाजन पर लिखा गया इनका उपन्यास ‘तमस’ भी काफी प्रसिद्ध हुआ। इस उपन्यास के लिए भीष्म साहनी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। भाग्यरेखा, भटकती राख, पहला पाठ, चीफ की दावत, वाड़्चू, गंगो का जाया, खून का रिश्ता आदि इनकी प्रमुख कहानियाँ हैं। इन्होंने तमस के अतिरिक्त मय्यादास की माड़ी, कड़ियाँ, बसंती आदि इनके प्रमुख उपन्यास हैं। इन्होंने हानूश और कबिरा खड़ा बाजार में जैसे प्रसिद्ध नाटक भी लिखें हैं।
भीष्म साहनी की कहानियों में जीवन के विविध पक्षों का चित्रण हुआ है। विभाजन की त्रासदी के अतिरिक्त इन्होंने मध्यवर्गीय जीवन, मजदूर जीवन एवं उपेक्षित लोगों की पीड़ा पर भी कहानियाँ लिखीं हैं। गंगो का जाया कहानी में मजदूर वर्ग के जीवन की कठिनाइयों का वर्णन है तो चीफ की दावत और खून का रिश्ता जैसी कहानियों में इन्होंने वृद्धों की उपेक्षा को केंद्र में रखा है।
उपेक्षित समुदाय को भीष्म साहनी ने अपने रचनाकर्म के केंद्र में रखा है। वे अपनी कहानियों में साम्प्रदायिकता, धार्मिक अंधविश्वास, राजनीतिक एवं सामाजिक पाखंड आदि कुरीतियों की जमकर धज्जी उड़ाते हैं। नई कहानी के दौर में जहाँ कहानीकार आत्मपरक कहानियाँ लिख रहे थे, वहीं भीष्म साहनी सामाजिक जीवन से अपनी कहानियों के विषय उठा रहे थे।
खून का रिश्ता कहानी का सारांश/कथावस्तु
खून का रिश्ता कहानी का मुख्य पात्र मंगलसेन है। कहानी की शुरुआत में मंगलसेन यह कल्पना कर रहा है कि वह अपने भतीजे की सगाई में गया है और वहाँ उसकी काफी आवभगत हो रही है। चिलम के तंबाकू से उसका यह सुखद स्वप्न भंग होता है। इसी घर का नौकर संतू आता है और कहता है कि उसे सगाई में नहीं ले जाएँगे। मंगलसेन संतू से कहता है कि उसे उसके घरवाले जरूर ले जाएँगे। इसपर संतू कहता है कि दो-दो रुपए की शर्त लगा लो तुम्हें नहीं ले जाएँगे।
बात दरअसल यह है कि मंगलसेन जिस घर में रहता है उसका मालिक उसके चाचा का बेटा है। उसी भाई के बेटे यानी मंगलसेन के भतीजे की सगाई होने वाली है। भतीजे का नाम वीरजी है। मंगलसेन एक रिटायर फौजी है और अपने चचेरे भाई के घर में रहता है। इस घर में उसकी हैसियत काफी छोटी है। मंगलसेन का उसका चचेरा भाई बार-बार अपमान करता है। मंगलसेन अपने चचरे भाई को बाबूजी कहता है। बाबूजी का ही बेटा वीरजी है जिसकी सगाई का शगुन जाना है। सगाई डलवाने के लिए करीबी रिश्तेदार जाते हैं लेकिन वीरजी की जिद है कि बाबूजी अकेले सगाई डलवाने जाएँ। वीरजी शादी-ब्याह में फिजूलखर्ची के विरोधी हैं। घर में इसी बात पर बहस हो रही है। सभी वीरजी को समझा रहे हैं कि बाबूजी के अकेले सगाई में जाने से संबंधी लोग यानी लड़की के घरवाले बुरा मान सकते हैं। वे इसे अपना अपमान समझेंगे। यह सारी बहस रसोईघर में चल रही है। इसी बीच मंगलसेन के रसोईघर की ओर आने की आहट से बहस रूक जाती है। वीरजी की माँ कहती है कि इस मुद्दे पर बात मंगलसेन के खाना खा लेने के बाद होगी।
मंगलसेन जिसकी उम्र करीब 50 वर्ष है और वह उचक-उचककर अपने पाँव घसीटते हुए चलता है। साइकिलवाला और इस तरह के लोग उससे मजाक किया करते हैं। मंगलसेन को अपने फौज में होने और अपने धनीमानी भाई के घर में रहने के कारण अपनी हैसियत पर नाज था। मंगलसेन के हुलिये के बारे में लेखक ने लिखा है कि खाकी पगड़ी पहनता था और उसकी खिचड़ी मूँछें तंबाकू पीने के कारण पीली हो गई थीं। उसकी दाईं आँख कुछ ज्यादा खुली हुई थी और बाईं आँख कुछ ज्यादा सिकुड़ी हुईं। साथ ही सामने के तीन दाँत गायब थे।
रसोईघर में जाने के बाद वीरजी ने मंगलसेन को नमस्ते किया। इसपर बाबूजी वीरजी को मंगलसेन के पैर छूने को कहा। वीरजी ने पैर छुए और मंगलसेन ने आशीर्वाद दिया। इस सम्मान को तुरंत ही बाबूजी ने अपमान में बदल दिया जब उन्होंने रुखाई से मंगलसेन को खुद चटाई लाने को कहा। मंगलसेन के प्रति इस व्यवहार से बाबूजी की पत्नी यानी माँजी थोड़ा रुष्ट हुईं और बाबूजी को कहा कि घर के नौकरों के सामने मंगलसेन से इस तरह का व्यवहार न करो, आखिर खून का रिश्ता है।
रसोईघर में वीरजी की बहन मनोरमा भी बैठी है। वह वीरजी और माँजी से बातचीत कर रही है। इसी बीच संतू चटाई लेकर आया। मंगलसेन के आगे थाली परोसी गई। उसने पहला ही कौर उठाया था कि बाबूजी ने उससे पूछा कि रामदास से किराया माँग कर लाए। जैसे ही मंगलसेन ने जवाब दिया कि रामदास घर पर मिलता ही नहीं है, बाबूजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा कि एक थप्पड़ तेरे मुँह पर लगाऊँगा। बाबूजी ने मंगलसेन को और भी बुरा-भला कहा। इस अपमान से मंगलसेन के दिल पर चोट पहुँची। वीरजी को भी बाबूजी का यह व्यवहार अनुचित लगा। उसे लगा कि चाचाजी गरीब हैं इसलिए उन्हें दुत्कारा जाता है। मंगलसेन ने और पराठे लेने से इंकार कर दिया। फिर बाबूजी को बोला कि वह आज ही हर-हाल में किराया ले आएगा।
मंगलसेन के अपमान से वीरजी को काफी बुरा लगा। जब घर में यह बहस फिर से होने लगी कि कौन-कौन बाबूजी के साथ सगाई में जाएगा तो वीरजी ने कहा कि बाबूजी मंगलसेन को साथ में ले जाएँ। इस प्रस्ताव का माँजी ने भी विरोध किया तो वीरजी ने कहा कि कहाँ गया खून का रिश्ता। बहस के बाद यह तय हो गया कि मंगलसेन ही बाबूजी के साथ जाएगा।
संतू से यह खबर सुनकर मंगलसेन सारा अपमान भूल गया। वह फिर से खुशी से फुदकने लगा। उसे घरवालों ने ढंग से तैयार किया। मंगलसेन इस सम्मान से अभिभूत हो गया। समधियों के घर में भी वह बीच-बीच में अपना रोब दिखाने लगा। बाबूजी को समधियों ने सगाई का थाल दिया। लाल रंग से ढके थाल में चाँदी की तीन कटोरियाँ, तीन चाँदी के चम्मच और चाँदी के सवा रुपए रखे हुए थे। बाबूजी ने कहा कि हम सिर्फ सवा रुपए लेंगे। समधियों की जिद के आगे बाबूजी ने वह थाल स्वीकार कर ली।
बाबूजी के साथ मंगलसेन अपने कंधे पर थाल रखकर घर लौटता है। घर के सभी लोग उत्साह में हैं। मनोरमा मंगलसेन के हाथ से थाल छीन लेती है। मंगलसेन मनोरमा का कहता है कि दो घड़ी इंतजार नहीं कर सकती। इस पर मनोरमा कहती है कि बाबूजी की पगड़ी पहनकर खुद को बाबूजी ही समझ लिए हैं। इधर वीरजी भी अपनी कल्पनाओं में खोये हैं। उन्हें लग रहा है कि उनकी होने वाली पत्नी प्रभा उनके विचारों को सराहती होगी कि सगाई में मैंने सिर्फ सवा रुपए माँगे और एक गरीब आदमी को सगाई डलवाने भेजा। वीरजी का मन तरह-तरह की कल्पनाओं के कारण प्रभा से मिलने को बेताब हो गया।
इसी बीच बाबूजी माँजी को सगाई का समान देखने के लिए बाहर बुलाते हैं। माँजी बाबूजी से पूछती हैं कि क्या तीन कटोरियाँ और दो ही चम्मच समधियों ने दिए थे। बाबूजी कहते हैं कि चम्मच भी तीन थे। वे माँजी को मंगलसेन से पूछने को कहते हैं। मंगलसेन कहता है कि बाबूजी ने थाल लिया था। इसपर बाबूजी गुस्सा हो जाते हैं और कहते हैं कि तुमने तीसरा चम्मच खो दिया। बाबूजी के साथ-साथ पूरा घर मंगलसेन पर क्रोधित हो जाता है। वीरजी जो अबतक मंगलसेन के प्रति सहानुभूति रखता था, वह भी गुस्सा हो गया। उसने आवेश में मंगलसेन के दोनों कंधों को झिंझोड़ दिया। हालाँकि तुरंत ही वीरजी अपने इस व्यवहार पर झेंप गए। इस बीच बाबूजी ने कहा कि मंगलसेन की जेब देखो। मनोरमा मंगलसेन की जेब देखने लगी। मंगलसेन की जेब में चम्मच नहीं मिला तो बाबूजी गुस्से में आ गए और कहा कि मैं तुमसे पाँच रुपए की चम्मच जरूर लूँगा। मंगलसेन इस अपमान के सदमे के कारण गिर पड़ा। माँजी ने संतू से कहा कि तुम मंगलसेन को ऊपर ले जाकर लिटा दो।
इसी बीच घर पर एक छोटा लड़का आता है। यह लड़का प्रभा का भाई है यानी वीरजी का होने वाला साला। मनोरमा उसे पहचानकर थोड़ा शरारत करती है। उस लड़के ने कहा कि मैं यह चम्मच देने आया हूँ और मनोरमा को चम्मच देकर वापस लौट जाता है। मनोरमा माँ से कहती है कि चम्मच मिल गया। इधर संतू मंगलसेन को छींट मारकर उठाते हुए कहता है कि तुम शर्त जीत गए, वेतन मिलते ही शर्त के दो रुपए दे दूँगा। कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।
कहानी का उद्देश्य/भाव/भावना/ मंगलसेन का चरित्र-चित्रण
‘खून का रिश्ता’ कहानी का मुख्य पात्र चाचा मंगलसेन है। मंगलसेन फौज से रिटायर है और शारीरिक रूप से बहुत-चुस्त दुरुस्त नहीं है। वह वीरजी के पिता यानी बाबूजी के चाचा का लड़का है। खून के रिश्ते के कारण ही मंगलसेन को अपने धनी चचरे भाई के घर में शरण मिली हुई है। मंगलसेन गरीब है और यह गरीबी ही उसकी उपेक्षा का मुख्य कारण है।
भीष्म साहनी ने इस कहानी में मंगलसेन के चरित्र के माध्यम से समाज में पद और धन के कारण मिलने सम्मान और अपमान को दिखाया है। इस कहानी का एक अन्य पात्र वीरजी इस बात को समझता है और एक जगह वह यह कहता भी है कि चाचा मंगलसेन गरीब हैं इसलिए सब उनका अपमान करते हैं। मंगलसेन की हैसियत उस घर में नौकर की तरह है। हालाँकि खून का रिश्ता होने के कारण बार-बार माँजी उसे अपमानित करने से बाबूजी को रोकती भी हैं। पर विडम्बना यह है कि हर तरह की सहानुभूति के बावजूद माँजी मंगलसेन को सगाई डलवाने के लिए भेजने के प्रस्ताव का विरोध करती हैं। इसका कारण भी मंगलसेन की गरीबी ही है। माँजी कहती हैं – “मैं कब कहती हूँ, यह न जाए ! यह भी जाए, लेकिन और संबंधी भी तो जाएँ। अपने धनी-मानी संबंधियों को छोड़ दें और इस बहरुपिए को साथ ले जाएँ, क्या यह अच्छा लगेगा?”
स्पष्ट है कि मंगलसेन की तमाम पीड़ा, उपेक्षा और अपमान का कारण उसका गरीब होना है। सिर्फ खून के रिश्ते के कारण वह अपने चचरे भाई के यहाँ पड़ा हुआ है। यहाँ घर के नौकर भी उसका सम्मान नहीं करते हैं। पर इस खून के रिश्ते की विडम्बना यह है कि मंगलसेन को भी अपने खानदानी होने का गर्व है। जिस सामंती और दिखावे की मानसिकता के कारण उसकी उपेक्षा हो रही है, मंगलसेन के भीतर भी वही मानसिकता है। जब साइकिल की दुकान वाला उससे मजाक करता है तो मंगलसेन उससे कहता है कि तू अपनी हैसियत देख। मंगलसेन को भी अपने धनी-मानी भाई के घर में रहने का गर्व है। अपमानित होने पर थोड़ी देर के लिए उसके दिल को ठेस लगती है लेकिन फिर थोड़ा से प्यार भरी या सम्मान भरी बातों से वह प्रफुल्लित हो जाता है। मंगलसेन लगता है कि जैसे इसका आदी हो चुका है। वह खून के रिश्ते की भावना में हर तरह के अपमान को सहना सीख चुका है। लेकिन जब उसपर चम्मच की चोरी का इल्जाम लगाया जाता है तो वह इसे सह नहीं पाता है। अपमान की पीड़ा के कारण वह गिर जाता है। इस भयंकर अपमान के बाद मंगलसेन क्या करता इसकी कोई सूचना कहानी में नहीं है। लेकिन इतना स्पष्ट के चोरी के इल्जाम को वह सह नहीं पाया।
मंगलसेन के चरित्र के माध्यम से भीष्म साहनी ने समाज के उस खोखले आदर्शों को दिखाया है जहाँ खानदानी होने का दावा किया जाता है। समाज में उसी की पूछ है जिसके पास धन है। रक्त-संबंध यहाँ कोई मायने नहीं रखते। यहाँ तक कि मंगलसेन के प्रति सहानुभूति रखने वाला वीरजी भी उसका अपमान करने से नहीं हिचकते हैं। वीरजी मंगलसेन को इसलिए नहीं भेजते कि वह उनका चाचा है बल्कि उनके लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि इससे उनकी होने वाली पत्नी उन्हें आदर्शवादी समझेगी। इस कहानी में कहीं-कहीं सिर्फ खून के रिश्ते का दबा-छिपा लिहाज भर है, जैसे माँजी द्वारा बाबूजी को टोकना कि घर के नौकरों के सामने मंगलसेन से इस तरह बात न करें। लेकिन परीक्षा की घड़ी में यह लिहाज भी खत्म हो जाता है। मंगलसेन की गरीबी के कारण उसे चोर समझा जाता है और उसकी तलाशी ली जाती है। ‘खून का रिश्ता’ कहानी गरीबी और अकेलेपन के कारण होने वाले अपमान की कहानी है।
सहायक ग्रंथ सूची
- हिंदी गद्य-पद्य संग्रह भाग-2, संपादक- दिनेश प्रसाद सिंह, ओरियंट ब्लैकस्वान, पटना
- हिंदी कहानी का विकास, मधुरेश, सुमित प्रकाशन, इलाहाबाद
- हिंदी कहानी का इतिहास, भाग-1 एवं भाग- 2, गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिंदी का गद्य साहित्य, डॉ. रामचंद्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
- मंजूषा, संपादक- अमृत राय
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