UNIT 2
पद्य खंड
मैथिलीशरण गुप्त का साहित्यिक जीवन परिचय
मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रवादी धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। इनका जन्म 3 अगस्त, 1886 को चिरगाँव (झांसी) में हुआ था। मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आकर इन्होंने खड़ी बोली हिंदी में कविताएँ लिखना शुरू किया। इससे पहले ये ब्रज में ‘रसिकेश’ या ‘रसिकेंद्र’ के नाम से कविताएँ लिखा करते थे। जिस समय गुप्तजी ने खड़ी बोली हिंदी में कविता लिखना शुरू किया था उस समय खड़ी बोली हिंदी कविता अपने प्रारंभिक रूप में थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी के कवियों को खड़ी बोली में लिखने को प्रेरित किया। मैथिलीशरण गुप्त भी इनमें से एक थे।
महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से गुप्तजी ने राष्ट्रीय आंदोलन को अपनी कविता का विषय बनाया। सन् 1912 में इन्होंने भारत-भारती की रचना की जिसकी पंक्तियाँ राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान काफी लोकप्रिय हुईं। स्वाधीनता सेनानी प्रभात फेरियों में ‘भारत-भारती’ की पंक्तियाँ गाते थे। इस कारण ‘भारत-भारती’ पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। ‘जयद्रथ-वध’, ‘पंचवटी’, ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, ‘द्वापर’ आदि मैथिलीशरण की अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त ने देश पर मर मिटने का संदेश दिया। इस दृष्टिकोण से भारत-भारती की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –
क्षत्रिय! सुनो अब तो कुयश की कालिमा को मेट दो।
निज देश को जीवन सहित तन-मन तथा धन भेंट दो।।
ब्रिटिश शासन के खिलाफ उत्साह भरने के लिए गुप्तजी ने अतीत के गौरवपूर्ण इतिहास को अपने काव्य का विषय बनाया।
मैथिलीशरण गुप्त की लेखनी पर गांधीवाद का भी गहरा प्रभाव था। गुप्तजी एक तरफ 19वीं सदी के आखिर में भारतेंदु हरिश्चंद्र के हिंदी नवजागरण से प्रभावित थे तो दूसरी तरफ अपने समय में महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे आजादी के आंदोलन से। मैथिलीशरण गुप्त की लोकप्रियता से प्रभावित होकर स्वयं महात्मा गाँधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहा था। 1936 ई. में महात्मा गांधी ने उनके 50वें जन्मदिन पर आयोजित समारोह में कहा था, ‘वे राष्ट्रकवि हैं, जैसे मैं राष्ट्र बनने से महात्मा बन गया हूं.’ गांधी जी ने आगे कहा, ‘मैं तो गुप्त जी को इसलिए बड़ा मानता हूं कि वे हम लोगों के कवि हैं और राष्ट्र भर की आवश्यकता को समझकर लिखने की कोशिश कर रहे हैं.’
मैथिलीशरण गुप्त ऐसे वक्त के कवि थे जब अंग्रेजी शासन के खिलाफ जनता में जोश भरने की जरूरत थी और साथ ही जनता के बीच व्याप्त बुराइयों को दूर करने की भी। उनकी रचनाओं पर उस वक्त गांधी के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन आदि के साथ-साथ गांधी द्वारा की जा रही हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों का भी साफ-साफ असर देखा जा सकता है हिंदू-मुस्लिम एकता पर वे लिखते हैं-
जाति, धर्म या संप्रदाय का, नहीं भेद-व्यवधान यहां,
सबका स्वागत, सबका आदर, सबका सम-सम्मान यहां।
राम-रहीम, बुद्ध ईसा का सुलभ एक सा ध्यान यहां।
भिन्न-भिन्न भव-संस्कृतियों के गुण-गौरव का ज्ञान यहां।
मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता के माध्यम से लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को जागृत किया। उनकी कविताएँ उपेक्षित राष्ट्र और उपेक्षित स्त्रियों को स्वर देती हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने स्त्रियों की उपेक्षा को और उनके दुख को भी कविता में जगह दी है। स्त्रियों की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए उनकी ये पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं –
अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी!
मैथिलीशरणगुप्त ने साहित्य में अब तक ऐतिहासिक एवं पौराणिक रूप से उपेक्षित स्त्रियों के दर्द को भी अपने साहित्य में स्थान दिया है। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला की विरह-वेदना को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने ‘साकेत’ की रचना की और महात्मा बुद्ध की पत्नी के त्याग एवं पीड़ा को दिखाने के लिए उन्होंने ‘यशोधरा’ नामक काव्य-ग्रन्थ लिखा।
शिल्प के दृष्टिकोण से मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ छंदोबद्ध हैं। इनमें प्रवाह, सहजता और इतिवृत्तात्मकता है। इनकी कविताओं में तुक का विशेष आग्रह है। इस कारण ये आसानी से याद भी हो जाती हैं।
‘दोनों ओर प्रेम पलता है’ कविता की समीक्षा (आशय/भावार्थ/उद्देश्य)
यह कविता प्रेम कविता है। इसमें प्रेम के बलिदानी स्वरूप को दिखाया गया है। पतंग (एक प्रकार का कीट) यहाँ एक निष्काम प्रेमी का प्रतीक है। वह दीपक के प्रति अपने प्रेम के लिए अपने प्राणों की बलि देने में भी संकोच नहीं करता है। इस कविता में अभिव्यक्त भावना के बारे में दिनेश प्रसाद सिंह ने लिखा है – “ ‘दोनों ओर प्रेम पलता है’ में कवि ने ऐकांतिक प्रेम की पवित्रता को अभिव्यक्त किया है। यहाँ पतंग का प्रेम पूर्ण, समर्पित एवं निष्काम है। सच्चा प्रेम पूर्णतः समर्पित होता है और पतंग के माध्यम से कवि ने प्रेम के बलिदानी चरित्र को उजागर किया है। दीपक और पतंग दोनों जलते हैं, किंतु पतंग का जलना श्रेयस्कर है। प्रणय के लिए पतंग प्राण की परवाह नहीं करता। लेकिन इस लेन-देन वाली दुनिया में ऐसे प्रेम का महत्त्व नहीं है। ऐसी दुनिया के लिए प्रकाश देनेवाले दीपक का ही महत्त्व है।”
मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय चेतना के कवि थे। इस कविता में दीपक और पतंग के माध्यम से वे लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन में कूदने को प्रेरित कर रहे थे। वे इस कविता के माध्यम से कहना चाह रहे हैं कि जिस प्रकार पतंग दीपक के प्रति अपने प्रेम के लिए प्राण त्याग देता है, उसी प्रकार राष्ट्र के लिए हमें भी अपने प्राणों की बाजी लगाने में हिचक नहीं होनी चाहिए।
कवि इस कविता में कहता है कि पतंग भी जलता है और दीपक भी जलता है। दीपक पतंग को मना भी करता है कि तुम क्यों व्यर्थ में प्राण त्याग रहे हो लेकिन फिर भी पतंग दीपक में पड़कर जल ही जाता है। दोनों के भीतर प्रेम को लेकर भावुकता है।
कवि का इस कविता में आशय है कि पतंग का जीवित रहना भी मरण के समान है। वह प्रणय यानी दीपक से मिलन को छोड़कर अगर अपने जीवन की चिंता करे फिर भी वह मृतक के ही समान है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि गुलाम राष्ट्र के नागरिक होने से अच्छा है कि देश की आजादी के लिए लड़ते हुए प्राणों का उत्सर्ग कर देना। गुलाम राष्ट्र का नागरिक जीवित होते हुए भी मृतक के समान है। जितना राष्ट्र हमें प्रेम करता है उतना ही हमें राष्ट्र से भी प्रेम करना चाहिए। राष्ट्र की ख्याति उसके नागरिकों से ही होती है।
पतंग के माध्यम से राष्ट्र के लिए सर्वस्व त्याग करने वाले क्रांतिकारी की भावना अभिव्यक्त हुई है। पतंग दीपक से कहता है कि तुम महान हो और मैं तुम्हारे सामने काफी छोटा हूँ लेकिन कम से कम मरण हो मेरे हाथों में है। दीपक के जलने से प्रकाश होता है और पतंग के भाग्य में कालिख ही है। फिर भी दोनों में से किसी का वश नहीं चलता है क्योंकि यही दीपक और पतंग की नियति है। दोनों के भीतर एक-दूसरे के लिए प्रेम है। इसी तरह मातृभूमि के सामने स्वतंत्रता सेनानी काफी छोटे ही सही लेकिन वह मातृभूमि की आजादी के लिए अपने प्राणों की बलि तो दे ही सकता है।
मैथिलीशरण गुप्त ने इस कविता के माध्यम से राष्ट्र से अधिक महत्त्वपूर्ण उसकी आजादी के लिए जान देने वाले लोगों को माना है। उनका मानना है कि राष्ट्र की लाली यानी उज्जवलता, उसकी शान तभी बढ़ती है, जब उसके लिए उस राष्ट्र के नागरिक अपना सबकुछ त्याग देते हैं।
जयशंकर प्रसाद का साहित्यिक जीवन परिचय
जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी, 1889 ई. को काशी (वाराणसी) में हुआ था। जयशंकर प्रसाद छायावाद के चार स्तंभों (जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा) में से एक हैं। जयशंकर प्रसाद कवि के साथ-साथ कहानीकार, नाटककार, उपन्यासकार और निबंध लेखक भी थे। हिंदी साहित्य की लगभग हर विधा में इनका अमूल्य योगदान है। इन्होंने ऐतिहासिक विषयों को आधार बनाकर अपने नाटक और उपन्यास लिखे हैं। कविता में भी इन्होंने ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाओं को आधार बनाया है। अल्प जीवन अवधि में ही प्रसाद ने विपुल मात्रा में साहित्य रचा। ‘आकाशदीप’, ‘गुंडा’, ‘पुरस्कार’, ‘आँधी’, ‘अशोक’, ‘सिकंदर की पराजय’ आदि इनकी प्रमुख कहानियाँ हैं। ‘कंकाल’, ‘तितली’ और ‘इरावती’ (अपूर्ण) इनके द्वारा रचित उपन्यास हैं। प्रसाद ने कुल 12 नाटक लिखें हैं। इनमें ‘अजातशत्रु’, ‘विशाख’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘स्कंदगुप्त’, ‘चंद्रगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’ आदि प्रमुख हैं। प्रसाद ने नाटकों में मौर्य और गुप्तकालीन भारत का वर्णन किया है। उन्होंने प्राचीन भारत के इस खण्ड को इसलिए चुना था क्योंकि ये काल भारतीय इतिहास के स्वर्ण-युग थे। प्राचीन भारत की गौरव-गाथा के माध्यम से प्रसाद पाठकों को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए प्रेरित करना चाहते थे। उन्होंने अपने नाटकों में प्राचीन काल में हुए विदेशी आक्रमणों को अपना विषय बनाया है। प्रसाद भारतीयों को यह बताना चाहते थे कि कैसे हमारे पूर्वजों ने विदेशियों को परास्त किया था। इन नाटकों के बीच-बीच में कविताएँ भी हैं। इन कविताओं पर छायावाद का स्पष्ट प्रभाव है और ये राष्ट्रीय जागरण की चेतना से ओत-प्रोत हैं।
जयशंकर प्रसाद कवि के रूप में सबसे अधिक सफल सिद्ध हुए। ‘काननकुसुम’, ‘प्रेमपथिक’, ‘महाराणा का महत्व’, ‘चित्राधार’, ‘आँसू’, ‘झरना’, ‘लहर’ और ‘कामायनी’ इनकी प्रसिद्ध काव्य-कृतियाँ हैं। इनकी प्रसिद्धि का मूल आधार ‘कामायनी’ नामक महाकाव्य है। यह छायावादी काल-खंड का पहला और एकमात्र महाकाव्य है। इसमें मनु और श्रद्धा की पौराणिक कथा के माध्यम से आधुनिक युग के मानव के द्वन्द्वों का चित्रण किया गया है। इसमें ‘मनु’ मन या चेतना, ‘श्रद्धा’ हृदय और ‘इड़ा’ बुद्धि का प्रतीक है।
प्रसाद के काव्य में छायावाद की लगभग सभी विशेषता मौजूद है। इनकी कविताओं में जिज्ञासा, रहस्यवाद, प्रकृति के सौंदर्य सूक्ष्म चित्रण जैसी छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। इसके अलावा राष्ट्र-प्रेम तथा नवजागरणवादी स्वर भी उनकी कविताओं में मिलता है। प्रसाद वस्तुतः प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं। प्रसाद ने अपनी कविताओं के माध्यम से आनंदवाद की स्थापना की है। विश्वनाथ त्रिपाठी इनके बारे में लिखते हैं – “ ये मूलतः मादकता और आनंद के कवि हैं। इनकी प्रारंभिक कविताओं में संकोच का भाव है।...जयशंकर प्रसाद टीस-कचोट और जगत की नश्वरता के समक्ष मानव-जीवन की नगण्यता के बोध के कवि हैं।”
जयशंकर प्रसाद की भाषा अन्य छायावादी कवियों की तरह संस्कृत-निष्ठ है। नाटकों में प्रसाद ने युगानुकूल एवं पात्रानुकूल भाषा शैली का प्रयोग किया है। इनकी काव्य-भाषा में लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, चित्रोपमता, नाद-सौन्दर्य जैसे गुण विद्यमान हैं।
‘ले चल वहाँ भुलावा देकर’ कविता की समीक्षा (आशय/भावार्थ/उद्देश्य)
प्रस्तुत कविता जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित है। जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रतिनिधि कवि थे। इस कविता में भी छायावाद की कई विशेषताएँ समाहित हैं। छायावाद की एक प्रमुख विशेषता है रहस्यवाद। इस कविता में भी रहस्यवाद है। रहस्यवाद में विराट एवं व्यापक सत्ता के प्रति रागात्मकता को व्यक्त किया जाता है। यह विराट सत्ता परमात्मा और प्रकृति दोनों रूपों में छायावाद में अभिव्यक्त हुआ है। इस कविता में भी प्रकृति के असीम सौन्दर्य को जानने की जिज्ञासा कवि ने जताई है। छायावादी कविताओं पर पलायनवाद का भी आरोप लगता है। इस कविता में भी कोलाहल भरे समाज से दूर जाने की इच्छा व्यक्त की गई है। छायावाद की एक अन्य प्रमुख विशेषता प्रकृति-चित्रण है। छायावादी कवियों ने प्रकृति को आलंबन बनाकर कविताएँ लिखी। इस कविता में भी प्रकृति के सूक्ष्म सौंदर्य को आलंबन बनाया गया है।
दिनेश प्रसाद सिंह इस कविता के बारे में लिखते हैं – “ले चल मुझे भुलावा देकर में कवि ने कोलाहल वातावरण से मृदु, शांत एवं मधुर वातावरण में जाने की कामना प्रकट की है। कवि को छल-कपट भरी दुनिया से वितृष्णा हो गई है। इसीलिए वह दूर, एकांत, शांत प्रकृति की गोद में मनोहर जीवन जीने की इच्छा प्रकट करता है; ऐसी प्रकृति जहाँ मानव का कोलाहल न हो और समुद्र का कोलाहल हो तथा मौन रहकर आकाश सागर की निश्चल प्रेम-कथा सुनता रहे। कवि साँझ की कोमल वेला में नीले तारों के सौंदर्य को निहारना चाहता है। कवि ऊषाकालीन प्रकृति के मनोरम दृश्य को भी अपनी आँखों से पी जाना चाहता है। तात्पर्य यह कि प्रकृति में जो सौंदर्य है, आनंद है, शांति है, उसमें कवि को परम आनंद की प्राप्ति होती है।”
इस कविता में एकांत की इच्छा पलायनवाद नहीं है बल्कि सामाजिक जीवन के छल-कपट के विरुद्ध एक व्यक्ति का विद्रोह है। छायावाद की एक अन्य विशेषता वैयक्तिकता भी है। इस कविता में भी यही वैयक्तिकता है। यह वैयक्तिकता सामाजिक रुढ़ियों का विरोधी है। यह कविता पाठक के साथ आत्मीय होकर संवाद करती है और उसे अभिभूत कर देती है। प्रसाद ने इस कविता में प्रकृति-प्रेम और रहस्यवाद के माध्यम से आनंदवाद की स्थापना की है। प्रसाद आनंद की प्राप्ति को ही इस जीवन का उद्देश्य मानते हैं और इस कविता में सांसारिक माया-मोह को छोड़कर सच्चे आनंद की प्राप्ति पर बल दिया है।
महादेवी वर्मा का साहित्यिक जीवन परिचय
महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च, 1907 ई. को उत्तरप्रदेश के फ़र्रुखाबाद में हुआ था। महादेवी वर्मा छायावाद के आधार स्तंभों में से एक हैं। महादेवी वर्मा ने गद्य और पद्य दोनों लिखे हैं। उनकी कविताओं में छायावादी प्रवृत्तियाँ हैं तो उनका गद्य विचारोत्तेजक है। ‘अतीत के चलचित्र’ एवं ‘स्मृति की रेखाएँ’ इनके द्वारा लिखे गए रेखाचित्रों के प्रसिद्ध संग्रह हैं। महादेवी वर्मा ने इन रेखाचित्रों में सामान्य और उपेक्षित लोगों को विषय बनाया है। इनके सुख-दुख का उन्होंने आत्मीय चित्रण किया है। सबिया, अलोपीदीन, घीसा, भक्तिन, बिबिया, गुंगिया आदि के द्वारा समाज में निम्नवर्ग की स्थिति एवं पीड़ा का यथार्थवादी चित्रण किया है। ये सभी पात्र महादेवी के जीवन से संबंधित हैं। आम मनुष्य ही नहीं बल्कि अपने पालतू जीव-जंतुओं पर भी महादेवी ने ‘मेरा परिवार’ नाम से रेखाचित्र लिखा है। ‘पथ के साथी’ इनका संस्मरणात्मक ग्रंथ है। इसमें महादेवी ने अपने समकालीन लेखकों के साथ-साथ समकालीन महापुरुषों से जुड़े अपने संस्मरणों को लिखा है। इसमें निराला, प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, पंत, सुभद्राकुमारी चौहान जैसे लेखकों के साथ-साथ महात्मा गाँधी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, रवींद्रनाथ ठाकुर, राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू से जुड़ी यादों के बारे में लिखा है। रेखाचित्र और संस्मरण में मुख्य अंतर यह होता है कि रेखाचित्र में कोई ख्यात व्यक्ति या प्राणी नहीं होता है और लेखक पाठकों को इनसे परिचय करवाता है, जबकि संस्मरण किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के बारे में लिखा जाता है और इसमें परिचय की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि पाठक इनसे पहले से ही परिचित होता है। हालाँकि रेखाचित्र और संस्मरण दोनों लेखक अपनी स्मृतियों यानी यादों के आधार पर लिखता है। कई विद्वान रेखाचित्र और संस्मरण को एक ही मानते हैं तथा अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, मेरा परिवार को ये महादेवी का संस्मरण ही मानते हैं।
‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ महादेवी के विचारोत्तेजक लेखों का संग्रह है। इन लेखों के माध्यम से महादेवी ने स्त्री-मुक्ति के प्रश्न के विविध पहलुओं पर विचार किया है। इसमें महादेवी द्वारा विविध लेखों के माध्यम से स्त्री-स्वाधीनता के विभिन्न पक्षों पर गंभीर चिंतन किया गया है। इन लेखों को उन्होंने चाँद पत्रिका के संपादक के तौर पर लिखा था। इस संग्रह के द्वारा महादेवी ने स्त्री-मुक्ति के लिए स्त्रियों को आत्मनिर्भर होने का संदेश दिया है।
महादेवी मुख्यतः कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। ये छायावाद-युग की प्रतिनिधि कवयित्री हैं। महादेवी अपने गद्य में जितनी यथार्थवादी हैं, कविताओं में वे उतनी ही रहस्यवादी हैं। इनकी कविताओं में अज्ञात प्रियतम को लेकर तीव्र वेदना का भाव है। यह वेदना का भाव ही महादेवी की कविताओं का मूल स्वर है। इसी कारण महादेवी वर्मा को ‘आधुनिक काल की मीरा’ भी कहा जाता है। ‘नीहार’, ‘रश्मि’, ‘नीरजा’, ‘सांध्यगीत’ एवं ‘दीपशिखा’ इनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। महादेवी के कई काव्य-संकलनों को मिलाकर ‘यामा’ नामक एक संकलन तैयार किया गया, जिस पर उन्हें सन् 1982 में प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।
महादेवी की कविताओं में प्रेम की तीव्र विरह वेदना का भाव रहस्यवाद से प्रेरित है। जब अज्ञात सत्ता को भावना का विषय बनाकर काव्य में प्रस्तुत किया जाता है, तो प्रवृत्ति को रहस्यवाद कहा जाता है। महादेवी का मत है कि अपनी सीमा को असीम तत्त्व में खो देना ही रहस्यवाद है। महादेवी की कविता में इस असीम सत्ता से मिलन के लिए चिर विरह की भावना व्याप्त है। वह मिलन के लिए अत्यंत ही रात-दिन दीपक की तरह जलने के लिए तैयार हैं –
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर
विरह की तीव्रतानुभूति के कारण करुणा, नारी सुलभ सात्विकता, भक्ति की तन्मयता जैसी विशेषताएँ महादेवी के काव्य की पहचान हैं। इसी कारण उनके काव्य में प्रगीतात्मकता है। संगीतात्मकता, चित्रमयता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता आदि उनके काव्य-भाषा में विद्यमान हैं। इस कारण महादेवी की कविताएँ पाठक तक सहजता से संप्रेषित हो जाती हैं।
‘मुरझाया फूल’ कविता की समीक्षा (आशय/भावार्थ/उद्देश्य)
प्रस्तुत कविता महादेवी वर्मा द्वारा रचित है। महादेवी छायावादी युग की प्रतिनिधि कवयित्री हैं। इस कविता में महादेवी ने पुष्प यानी फूल के जीवन के माध्यम से इस मानव जीवन के कुछ कटु सत्यों को उजागर किया है। यहाँ पुष्प मानव जीवन की नश्वरता का प्रतीक है।
इस कविता में महादेवी सूखे हुए फूल से कह रही हैं कि जब तुम कली थे तो पवन तुम्हें अपने गोद में खिलाता था। जब तुम खिलकर फूल बन गए तो भौंरे तुम्हारे मधु को पाने के लिए तुम्हारे चारो तरफ मंडराने लगे। रात्रि में चाँद की किरणें तुम्हें हँसाती थीं और ओस तुम्हारा श्रृंगार करता था। वायु तुम्हें सुलाता था और माली तुम्हारा पालन-पोषण करता था। तुम उद्यान यानी बगीचे में अपने भाग्य पर इतराया करते थे। क्या तुम्हारा ऐसा अंत होगा कभी तुमने सोचा था।
आज तुम अपनी गंध,कोमलता आदि को खोकर और सूखकर जमीन पर गिरे हो। आज भौंरा तुम्हारे पास नहीं आ रहा है। पेड़ भी तुम्हें खोकर नहीं रो रहा है। जिस पवन ने तुम्हें कभी गोद में लिया और सुलाया था, उसी ने अपने तेज झोंके से तुम्हें धरती पर गिरा दिया है। तुमने इस दुनिया को अपनी सुंदरता और मधु को दान कर दिया। लेकिन हे दानी सुमन (फूल) तुम्हारे अंत पर आज कोई रो नहीं रहा है।
कवयित्री आगे कहती हैं कि हे पुष्प तुम दुखी मत हो। इस संसार ने किसी को सुख नहीं दिया है। विधाता ने यहाँ सभी को स्वार्थी ही बनाया है। इस विश्व में तुमने अपना सर्वस्व दान करके सबको खुश किया। फिर भी तेरी इस दशा पर किसी को संसार में दुख नहीं हुआ तो हम सारहीन मनुष्यों के लिए कौन आँसू बहायेगा।
महादेवी ने पुष्प के माध्यम से इस संसार में व्याप्त स्वार्थ का चित्रण किया है। जब हम छोटे होते हैं तो हमें सभी दुलार करते हैं। जब हम बड़े और सामर्थ्यवान हो जाते हैं तो हम कुछ चाहने की भीड़ हमारे चारो ओर लग जाती है। लेकिन जब अशक्त हो जाते हैं तो हमें कोई नहीं पूछता। मनुष्य के मर जाने पर कोई भी उसके त्याग और दान को याद नहीं रखता। जब हम जवान होते हैं तो हमें यह अंदाजा नहीं होता है कि अंत समय में हमारे लिए कोई नहीं रोएगा। दिनेश प्रसाद सिंह इस बारे में कहते हैं कि महादेवी वर्मा ने इस कविता में फूल के माध्यम से मानव की इस त्रासद परिणति की ओर संकेत किया है।
मुरझाया फूल कविता जीवन की नश्वरता को व्याख्यायित करती है। यह कविता हमें यह बताती है कि एक दिन हम सभी को मिट जाना है। इस सांसारिक माया-मोह का हमारे मर जाने के बाद कोई महत्त्व नहीं रह जाता है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का साहित्यिक जीवन परिचय
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म 23 सितंबर, 1908 ई. को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया नामक गाँव में हुआ था। दिनकर ओज के कवि हैं और राष्ट्रीय चेतना इनकी कविताओं का मूल स्वर है। दिनकर छायावादोत्तर काल के कवि हैं। इनकी कविताओं पर गाँधीवाद, मार्क्सवाद, राष्ट्रवाद आदि सभी विचारों का प्रभाव देखा जा सकता है। दिनकर का झुका गाँधीवाद की ओर था और वे नेहरू के प्रशंसक भी थे। इस कारण उनकी कई कविताओं में हिंसा और अहिंसा को लेकर द्वन्द्व दिखाई देता है। ‘कुरुक्षेत्र’ इस दृष्टिकोण से उनका महत्त्वपूर्ण काव्य-ग्रंथ है। इसमें भीष्म-युधिष्ठिर संवाद के द्वारा दिनकर ने युद्ध का विरोध किया है लेकिन जरूरी पड़ने पर वे हिंसा का सहारा लेने के पक्षधर भी हैं। इसी पुस्तक में उन्होंने लिखा है –
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो।
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सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।
दिनकर का राष्ट्रवाद गांधी और नेहरू के राष्ट्रवाद पर आधारित था और अपने मूल रूप में साम्राज्यवाद विरोधी था। दिनकर ने गांधी और नेहरू की प्रशंसा में कविताएं लिखीं। दिनकर का राष्ट्रवाद घृणा नहीं बल्कि शोषित जनों की पीड़ा पर निर्मित था।
दिनकर वैसे राष्ट्रवादी कवि नहीं थे जिनके राष्ट्रवाद के लिए युद्ध होना एक अनिवार्य तत्व हो। दिनकर अपनी कविताओं में युद्ध का समर्थन भी करते हैं, लेकिन उनके लिए युद्ध किसी को नीचा दिखाने की वस्तु नहीं है बल्कि लोगों के अधिकारों की लड़ाई है। ‘समर निंद्य है’ नामक कविता में दिनकर लिखते हैं:
शांति खोलकर खड्ग क्रांति का जब वर्जन करती है,
तभी जान लो, किसी समर का वह सर्जन करती है।
शांति नहीं तब तक; जब तक सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।
ऐसी शांति राज्य करती है तन पर नहीं हृदय पर,
नर के ऊंचे विश्वासों पर, श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।
दिनकर के लिए जनता के सुख-दुख अधिक महत्वपूर्ण थे। इस वजह से उनकी कविताओं में गांधीवाद से लेकर मार्क्सवाद तक की झलक दिखाई देती है। दिनकर के विचारों में जो द्वंद्व था वह उनकी कविताओं में भी दिखता है। इस वजह से उन्हें किसी एक वाद या विचारधारा के खांचे में फिट कर पाना मुश्किल है।
‘प्रण-भंग’, ‘रेणुका’, ‘हुँकार’, ‘सामधेनी’, ‘रसवंती’, ‘रश्मिरथी’, ‘उर्वशी’, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’, ‘दिल्ली’ आदि दिनकर की प्रमुख काव्य-रचनाएँ हैं। दिनकर को भारतीय संस्कृति और इतिहास की गहन जानकारी थी। अपनी कविताओं में भी समकालीन समस्याओं के निवारण के लिए ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं को विषय के रूप में चुनते हैं। ‘कुरूक्षेत्र’ की रचना उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई विभीषिका और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्भूमि में की थी। इसी प्रकार ‘रश्मिरथी’ में कर्ण के माध्यम से वर्ण-व्यवस्था और जाति-प्रथा पर प्रहार किया। ‘उर्वशी’ दिनकर की एक अन्य प्रसिद्ध काव्य-कृति है। इसमें उर्वशी और पुरुरवा के प्रेम के माध्यम से उन्होंने कामाध्यात्म की समस्या को उठाया है। यह काव्य-ग्रंथ श्रृंगार रस से परिपूर्ण है। उर्वशी के लिए दिनकर को सन् 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
आजादी के बाद दिनकर कई वर्षों तक राज्यसभा सांसद रहे। बाद में वे भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने। परंतु सत्ता के इतने करीब रहकर सत्ता प्रतिष्ठानों की उन्होंने आलोचना की। संभवतः वे ऐसे एकमात्र कवि हैं जिसे दिल्ली यानी दिल्ली की सत्ता से काफी कुछ मिला फिर भी उन्होंने दिल्ली की निंदा करने में कोई कोताही नहीं बरती। ‘भारत का यह रेशमी नगर’ नामक कविता में दिनकर लिखते हैं:
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर,
दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में।
है विकल देश सारा अभाव के तापों से,
दिल्ली सुख से सोयी है नरम रजाई में।
क्या कुटिल व्यंग्य! दीनता वेदना से अधीर,
आशा से जिनका नाम रात-दिन जपती है,
दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते,
कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब छपती है।´
किस्मतें रोज छप रहीं, मगर जलधार कहां?
प्यासी हरियाली सूख रही है खेतों में,
निर्धन का धन पी रहे लोभ के प्रेत छिपे,
पानी विलीन होता जाता है रेतों में।
हिल रहा देश कुत्सा के जिन आघातों से,
वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं?
निर्माणों के प्रहरियों! तुम्हें ही
चोरों के काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं?
दरअसल दिनकर सत्ता के करीब रहते हुए भी ‘तटस्थ’ नहीं थे। दिनकर ने भले ही आजादी के बाद उस वक्त के कम्युनिस्टों और समाजवादियों की तरह ‘आजादी को झूठा’ नहीं कहा था लेकिन वे यह भी मानते थे कि अंग्रेजों से मिली आजादी अभी भी अधूरी है। दिनकर की कविता ‘समर शेष है’ उनके इसी विचार की अभिव्यक्ति है।
दिनकर अगर सत्ता के करीब होते हुए भी आम जन के प्रति अपने झुकाव को इसलिए बनाए रख पाए क्योंकि वे मानते थे –
पूछ रहा है जहां चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहां स्वराज?
अटका कहां स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
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समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
दिनकर ने सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक मुद्दों पर कई निबंध भी लिखे। ‘अर्धनारीश्वर’, ‘रेती के फूल’, ‘वेणुवन’ आदि उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं। ‘महादेवी की वेदना’, ‘कबीर साहब से भेंट’, ‘मंदिर और राजभवन’, ‘कविता का भविष्य’ आदि उनके प्रमुख निबंध हैं। ‘देश-विदेश’ और ‘मेरी यात्राएँ’ उनके यात्रा-वृतांत हैं। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ तथा ‘हमारी सांस्कृतिक एकता’ जैसे ग्रंथों में उन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति के विविध आयामों का वर्णन किया है।
दिनकर की भाषा-शैली सहज और प्रवाहपूर्ण है। इसमें तुक और लय है जिसके कारण पाठक को उनकी कविताएँ आसानी से याद हो जाती हैं। अभिधात्मक होने के कारण कविता का अर्थ भी पाठक के सामने सरलता से स्पष्ट हो जाता है।
‘समर शेष है’ कविता की समीक्षा (आशय/भावार्थ/उद्देश्य)
प्रस्तुत कविता रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित है। दिनकर की कविताओं के केंद्र में राष्ट्रीयता और प्रेम की भावना है। इस कविता के केंद्र में राष्ट्र निर्माण का प्रश्न है। यह आजादी के बाद की कविता है। देश को आजादी तो मिल गई थी लेकिन देश की स्थिति अच्छी नहीं थी। दिनकर के आजादी का मतलब था पूरे देश का विकास। ऐसे हिंदुस्तान का निर्माण जिसमें कोई भूखा-नंगा न हो। दिनकर इस कविता के माध्यम से कहना चाहते हैं कि असली लड़ाई तो आजादी मिलने के बाद शुरू हुई है।
दिनकर इस कविता के माध्यम से कहना चाहते हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में भले ही सब-कुछ ठीक-ठाक है लेकिन देश का अन्य हिस्सा अभी भी पिछड़ा हुआ ही है। इस पिछड़ेपन को दूर करने की ही लड़ाई है। वे देशवासियों से आह्वान करते हुए कहते हैं कि किसने कहा कि आजादी मिलने से युद्ध खत्म हो गया। वे कहते हैं कि आजादी मिलने का हर्ष मैं कैसे मनाऊँ जबकि मेरी आँखों के सामने भूखा हिंदुस्तान तड़प रहा है। दिनकर समाजवादियों और साम्यवादियों की तरह देश की आजादी को झूठी नहीं कह रहे थे लेकिन वे यह मान रहे थे कि यह आजादी अभी अधूरी है। इस अधूरेपन को दूर करने की लड़ाई अभी बाकी है।
दिनेश प्रसाद सिंह इस कविता के बारे में लिखते हैं – “प्रस्तुत कविता ‘समर शेष है’ में कविवर दिनकर ने स्वतंत्रता के पश्चात् स्वातंत्र्योत्तर भारत की विषमता को गंभीर रूप में देखा है। भारत की राजधानी दिल्ली के चकाचौंध को देखकर कवि ने इसे रेशमी नगर की संज्ञा दी है। दिल्ली में जो ऐश्वर्य, वैभव और विलासिता है वह संपूर्ण भारत में नहीं है। ठीक इसके विपरीत भारत की जनता गरीबी और शोषण की मार से प्रताड़ित है। इसीलिए कवि कहता है कि स्वतंत्रता संग्राम अभी समाप्त नहीं हुआ है, अभी समर शेष है। यह समर आर्थिक स्वतंत्रता के लिए जारी है। जबतक भारत में समाजवादी समाज की रचना नहीं होती, तबतक यह समर चलता रहेगा। इस कविता का मूल स्वर यही है – मुट्ठी भर लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता मिली, बाकी जनती निर्धनता में कराह रही है।”
इस कविता में आजाद भारत के नवनिर्माण की समस्या को केंद्र में रखा गया है। दिनकर महात्मा गाँधी विचारों से प्रभावित थे और आजादी के बाद देश के विकास के लिए अपनाए जा रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू की नीतियों समर्थक थे। नेहरू समाजवादी मॉडल और धर्मनिरपेक्ष नीति के आधार पर देश का विकास करना चाहते थे। दिनकर भी इस कविता में इसका समर्थन करते हैं। वे कहते हैं कि गाँधी की हत्या के बाद कुछ लोग नेहरू की भी हत्या करना चाहते हैं। जिस समय यह कविता लिखी गई थी, उससे कुछ समय पहले नेहरू पर एक व्यक्ति ने छुरा चलाने की कोशिश की थी। वे कहते इस तरह के लोग देश को फिर से अंधकार की ओर धकेलना चाह रहे हैं।
दिनकर गाँधी के स्वराज्य के स्वप्न को सत्य बनाने के लिए देशवासियों से आगे आने को कहते हैं। वे देशवासियों को गाँधी की सेना कहते हैं। वे कहते हैं कि मंदिर और मस्जिद को एक तार में बाँधना होगा यानी धर्म के नाम पर झगड़ों से दूर रहना होगा। वे समाज में सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने का आह्वान करते हैं।
दिनकर कहते हैं कि सिर्फ मानवता के हत्यारे ही दोषी नहीं हैं, बल्कि इस कठिन समय में जो व्यक्ति तटस्थ है यानी वैमनस्य फैलाने वालों और शोषण करने वालों का विरोध नहीं कर रहा है, वह भी भविष्य में अपराधी माना जाएगा।
सहायक ग्रंथ सूची
- हिंदी गद्य-पद्य संग्रह भाग-2, संपादक- दिनेश प्रसाद सिंह, ओरियंट ब्लैकस्वान, पटना
- हिंदी साहित्य का सरल इतिहास, विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी, ओरियंट ब्लैकस्वान
- हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
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