UNIT 10
प्रशासन पर नियंत्रण – संसदीय एवम न्यायिक
प्रशासनिक उत्तरदायित्व को नियंत्रण के विभिन्न साधनों द्वारा लागू किया जाता है। दूसरे शब्दों में, इसके अंतर्गत नियंत्रण के ऐसे कार्यतंत्र विकसित किये जाते हैं जिनसे प्रशासन को गहरी निगरानी और नियंत्रण में रखा जा सके ।
इस प्रकार सरकारी कर्मचारियों को उन पर नियंत्रण रखने वाली एजेंसियों के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है । नियंत्रण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी कर्मचारी अपने अधिकारों तथा विवेक का प्रयोग कानूनों, औपचारिक नियमों, विनियमों, स्थापित प्रक्रियाओं तथा परंपराओं के अनुसार करते हैं ।
प्रशासनिक उत्तरदायित्व को नियंत्रण के विभिन्न साधनों द्वारा लागू किया जाता है । दूसरे शब्दों में, इसके अंतर्गत नियंत्रण के ऐसे कार्यतंत्र विकसित किये जाते हैं जिनसे प्रशासन को गहरी निगरानी और नियंत्रण में रखा जा सके ।
इस प्रकार सरकारी कर्मचारियों को उन पर नियंत्रण रखने वाली एजेंसियों के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है । नियंत्रण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी कर्मचारी अपने अधिकारों तथा विवेक का प्रयोग कानूनों, औपचारिक नियमों, विनियमों, स्थापित प्रक्रियाओं तथा परंपराओं के अनुसार करते हैं ।
प्रशासन पर नियंत्रण की आवश्यकताओं को निम्न दो कथनों में भली भांति स्पष्ट किया गया है:
i. एल.डी. व्हाइट :- “जनतांत्रिक समाज में सत्ता को नियंत्रण की आवश्यकता होती है । जितनी व्यापकतर सत्ता होगी उतनी ही अधिक नियंत्रण की आवश्यकता होगी । लोकप्रिय सरकार की एक ऐतिहासिक दुविधा यह है कि सत्ता को पंगु किए बिना उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त अधिकार किस प्रकार दिए जाएँ और समुचित नियंत्रण कैसे बनाए रखा जाए।”
Ii. लॉर्ड एक्टन:- सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूरे तौर पर भ्रष्ट करती है । अत: नौकरशाही सत्ता के खतरों को रोकने और लोकसेवकों द्वारा सत्ता के निरंकुश प्रयोग के विरुद्ध उपायों का मार्गप्रशस्त करने के लिए प्रशासन पर नियंत्रण आवश्यक है ।
प्रशासन पर नियंत्रण के उपकरण ऐसे हैं जिनसे लोक सेवकों की सत्ता और विवेक को प्रतिबंधित किए बिना लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा होती है । मोटे तौर पर प्रशासनिक नियंत्रण दो प्रकार के होते हैं- आंतरिक नियंत्रण और बाह्य नियंत्रण ।
अंतरिक नियंत्रण प्रशासन तंत्र के भीतर से काम करता है और यह इस तंत्र का ही भाग होता है । यह अपने आप स्वत:स्कूर्त ढंग से और तंत्र के संचरण के साथ लगातार कार्यरत रहता है । दूसरी ओर, बाह्य नियंत्रण प्रशासन तंत्र के बाहर से काम करता और इसका निर्धारण देश के संविधान द्वारा किया जाता है।
प्रशासन पर आंतरिक नियंत्रण के उपाय इस प्रकार हैं:
(i) बजट व्यवस्था,
(ii) कार्मिक प्रबंधन,
(iii) कार्यकुशलता सर्वेक्षण,
(iv) व्यावसायिक मानक,
(v) प्रशासनिक नेतृत्व,
(vi) पदानुक्रमिक व्यवस्था,
(vii) पूछताछ और जांच,
(viii) वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट ।
प्रशासन पर बाह्य नियंत्रण चार एजेंसियों द्वारा लागू किया जाता है:
(i) विधायिका,
(ii) कार्यपालिका,
(iii) न्यायपालिका,
(iv) नागरिक ।
1. विधायी नियंत्रण :- प्रत्येक प्रतिनिधि सरकार में, चाहे वो संसदीय हो अथवा अध्यक्षात्मक, सरकार का सर्वोच्च अंग विधायिका होती है क्योंकि इसका गठन जन प्रतिनिधियों द्वारा होता है । यह जनता की इच्छा को प्रतिबिंबित करती है और जनता के संरक्षक के रूप में काम करती है ।
अत: यह प्रशासन को उत्तरदायी और दायित्वपूर्ण बनाने के लिए उस पर नियंत्रण रखती है । परंतु, प्रशासन पर विधायी नियंत्रण की प्रणाली भारत और ग्रेट ब्रिटेन जैसी संसदीय सरकारों में उन सरकारों से भिन्न होती है जिनमें राष्ट्रपति प्रणाली होती है जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका ।
प्रत्येक देश में प्रशासन की नीतियों का निर्धारण व्यवस्थापिका द्वारा ही किया जाता है, प्रशासन स्वयं नीतियों का निर्माण नहीं कर सकता है । इसके अतिरिक्त लोक-प्रशासन का संचालन, पर्यवेक्षण एवं नियंत्रण भी विधानमंडल का सामान्य अधिकार है ।
विधानमंडल द्वारा नये अधिनियमों को निर्मित करके या विद्यमान अधिनियमों को समष्टि अथवा संशोधित करके सार्वजनिक नीति के प्रधान उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं । भारत में भी विधायी नेतृत्व शासन के हाथों में ही हैं । इसके साथ-साथ विधान के क्षेत्र, विभिन्नता एवं सीमा में अत्यधिक वृद्धि हुई है ।
भारत में विरोधी नियंत्रण के उपकरण हैं- प्रश्न पूछना प्रस्ताव पेश करना, काम रोको प्रस्ताव, निन्दा-प्रस्ताव, बजट तथा संसदीय समितियां, सार्वजनिक लेखा तथा अनुमान समिति ।
प्रशासन पर नियंत्रण रखने का अवसर उसे कई रूपों में प्राप्त है, जिनकी संक्षिप्त चर्चा निम्नवत है:
i. राष्ट्रपति का भाषण:- संसद का प्रत्येक नया अधिवेशन राष्ट्रपति के भाषण से प्रारंभ होता है । राष्ट्रपति के भाषण में मोटे तौर पर उन मुख्य नीतियों तथा क्रियाकलापों पर प्रकाश डाला जाता है जो भविष्य में कार्यपालिका की नीतियाँ होती हैं । सामान्यतः इस पर सामान्य वाद-विवाद के लिए चार दिन का समय निश्चित किया जाता है । सदस्यों को यह अवसर दिया जाता है कि वे प्रशासन द्वारा आवश्यक कार्यों की उपेक्षा एवं भूलों के लिए उसकी भली प्रकार आलोचना करें ।
Ii. बजट पर चर्चा :- जब से ‘बजट ऑन एकाउंट’ प्रथा का श्रीगणेश हुआ है, संसद को बजट के प्रस्तावों पर चर्चा करने के लिए अधिक अवसर प्राप्त हो गये हैं । लोकसभा के सदस्यों को बजट पर चर्चा के दौरान प्रशासन की समालोचना करने के निम्न अवसर प्राप्त होते हैं- बजट प्रस्तुत करने के पश्चात ही सामान्य चर्चा आरंभ हो जाती है जो पूरे बजट या उसमें निहित सिद्धांत के किसी प्रश्न से संबंधित होती है ।
अनुदानों पर मतदान के समय सदस्यों को कार्यपालिका की आलोचना का दूसरा अवसर प्राप्त होता है । इस अवसर पर प्रत्येक माँग पर पृथक-पृथक चर्चा होती है । कटौती के प्रस्ताव पेश किये जाते है तो उनमें उठायी गयी विशिष्ट बातों पर भी चर्चा की जाती है ।
Iii. प्रश्न काल :- संसद के सत्रकाल में उसके प्रत्येक दिवस का पहला घंटा प्रश्नों के लिए निश्चित रहता है । यह नियंत्रण का एक प्रभावशाली अवसर होता है । प्रत्येक दिन औसतन लगभग तीस मौखिक प्रश्न पूछे जाते हैं और उनका उत्तर दिया जाता है । प्रश्न पूछने का यह विशेषाधिकार शासन को चौकन्ना रखता है ।
प्रशासन की नीतियों तथा क्रियाकलापों के विभिन्न पहलुओं पर आश्चर्यजनक ढंग से जनसाधारण का ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रश्न पूछना एक प्रभावपूर्ण युक्ति है । प्रश्न-विशेष के साथ पूरक प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं, जिनसे संबंधित मंत्री का प्रति-परीक्षण हो जाता है, और प्रायः उसकी गलतियाँ भी पकड़ में आ जाती है ।
Iv. शून्य काल :- प्रश्न काल एक घंटे का होता है । जब एक घंटा पूरा हो जाता है तो प्रश्न समाप्त कर दिये जाते हैं । इस समय संसद-सदस्य सामयिक विषयों पर मंत्रियों से बिना पूर्व-सूचना दिये हुए प्रश्न पूछ सकते हैं । शून्य काल-कार्यपालिका में भय उत्पन्न करने वाला संसदीय नियंत्रण का यंत्र है ।
v. काम रोको बहस :- काम रोको प्रस्ताव दैनिक नियंत्रण का एक साधन है । इसका प्रयोग सार्वजनिक महत्व के अति आवश्यक किसी विशिष्ट प्रश्न पर सदन में बहस आरंभ करने के लिए किया जाता है । अध्यक्ष द्वारा अनुमति दिये जाने पर उठाये गये प्रश्न पर तुरंत वाद-विवाद प्रारंभ हो जाता है, और ऐसी दशा में सदन का सामान्य कार्य कुछ समय के लिए रुक जाता है ।
व्यवहार में प्रायः यह देखा जाता है कि अध्यक्ष ‘अत्यावश्यक तथा सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों की उदार व्याख्या नहीं करते हैं । काम रोको प्रस्ताव पर बहस दो घंटे वाली बहस से मित्र होती है । दो घंटे वाली बहस किसी अत्यावश्यक सार्वजनिक विषय पर भी हो सकती है । काम रोको बहस की विशेषता यह है कि इसमें बहस के अंत में मतदान होता है, किंतु दो घंटे बहस में केवल चर्चा ही होती है, मतदान नहीं होता है ।
Vi. अविश्वास का प्रस्ताव :- ‘अविश्वास प्रस्ताव’ की जिसे निन्दा-प्रस्ताव भी कहते है, संविधान में व्यवस्था की गयी है । जब सरकार की पूरी या आशिक नीति दोषपूर्ण तथा आपत्तिजनक हो तो निन्दा-प्रस्ताव के माध्यम से उसे सुधारा जा सकता है । ऐसे अवसरों पर विरोध पक्ष को बहुमत प्राप्त होने पर सरकार को त्यागपत्र देना पड़ता है । यह प्रस्ताव भारत में 1962 तक कागज तक ही सीमित बना रहा ।
सबसे पहली बार 1963 में लोकसभा के मानसून अधिवेशन में सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया । वह निरस्त हो गया था । इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने की गति नेहरू के बाद के काल में बढी है ।
Vii. विधेयक पर बहस :- विधेयक के विभिन्न वाचन होते हैं । इन वाचनों के ये अवसर विधेयक में निहित संपूर्ण नीति की आलोचना करने का असीम अवसर प्रदान करते हैं । ऐसी आलोचना कभी-कभी तो सरकार के विचार बदल देती है । उदाहरणतः 1951 में तीव्र’ विरोध के कारण सरकार ने विवादास्पद हिंदू कोड बिल को वापस ले लिया था ।
इसी तरह 1967 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के नाम से हिंदू शब्द निकालने का प्रस्ताव देश में भारी विरोध के कारण शासन द्वारा वापस लिया गया । पी॰वी॰ नरसिंह राव की सरकार 1994 में एक अधिनियम पारित करके मुख्य चुनाव आयुक्त के अधिकारों में कटौती करना चाहती थी किंतु लोकसभा इसके अत्यंत विरुद्ध थी और सरकार ने लोकसभा में पराजय के भय से चुनाव सुधार का यह विधेयक प्रस्तुत ही नहीं किया ।
Viii. संसदीय समितियाँ :- संसदीय समितियाँ-सार्वजनिक लेखा समिति, अनुमान समिति, अधीनस्थ विधान समिति, सार्वजनिक उद्योग समिति तथा आश्वासन संबंधी समिति प्रशासन पर नियंत्रण की साधन हैं । हाल ही में संसद-सदस्यों की सरकारी विभागों से संबंधित सलाहकार समितियों का भी निर्माण हुआ है ।
प्रथम दो समितियाँ प्रशासन पर विस्तृत तथा ठोस नियंत्रण रखती हैं, और अंतिम समिति अर्थात् आश्वासन संबंधी समिति मंत्रियों द्वारा सदन में दिये गये वचनों, आश्वासनों, निश्चयों आदि की छानबीन करती है और निम्नलिखित बातों पर प्रतिवेदन दिये जाते हैं:
(A) कहाँ तक शासन द्वारा दिये गये आश्वासनों, वचनों आदि का परिपालन किया गया?
(B) यदि परिपालन किया गया है, तो क्या वह उस प्रयोजन के लिए अपेक्षित समय के भीतर किया गया?
इस समिति के कारण मंत्रीगण अपने द्वारा दिये गये वचनों के विषय में सावधान रहते है, और प्रशासन द्वारा किये गये संकल्पों को पूरा करने के लिए शीघ्र कार्यवाही करते हैं ।
Ix. लेखा-परीक्षण :- संसद लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक नामक पदाधिकारी द्वारा व्यय पर नियंत्रण जाए रखती है । लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक सरकार के सभी लेखों की जांच करता है (और 1976 ई॰ तक लेखाओं का विवरण रखता था । इसी वर्ष से लेखा एवं लेखापरीक्षण पृथक कर दिये गये) और इसका कार्य यह देखना है कि संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि में बिना किसी अनुपूरक मत के वृद्धि तो नहीं की जाती, और जो धन व्यय किया गया है वह नियमानुकूल ही व्यय किया गया है ।
वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र में संसद के प्रति शासन उत्तरदायी होता है, और लेखा-नियंत्रक तथा महालेखा-परीक्षक के प्रतिवेदनों द्वारा यह उत्तरदायित्व निर्धारित किया जाता है । यह पदाधिकारी लोक लेखा-समिति का ‘मार्गदर्शक तत्वज्ञानी एवं मित्र’ कहा जाता है ।
विधायी नियंत्रण की सीमाएँ :- विधायी नियंत्रण की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं जिनका वर्णन यही हम संक्षेप में करेंगे:
1. प्रशासकों की अपेक्षा मंत्रियों में विशेषज्ञता का अभाव पाया जाता है ।
2. आज बडी मात्रा में विधेयकों का शासकीय विभागों से ही प्रादुर्भाव होता है ।
3. एक पक्षीय आलोचना के कारण भी आज इसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है ।
4. विधानपालिका के पास समय का अभाव आदि ।
नियंत्रण का प्रशासन पर प्रभाव :- इसका संक्षेप वर्णन इस प्रकार है:
1. प्रशासन में हस्तक्षेप
2. अनमता असंभव
3. निष्पक्षता की कमी
4. कार्य कुशलता की कमी
5. लोक सेवकों में चरित्र भ्रष्टता ।
न्यायपालिका का नियंत्रण प्रशासकीय कार्यों की वैधानिकता निश्चित करता है । अतः जब कोई सरकारी अधिकारी नागरिकों के संवैधानिक या मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करता है तो न्यायपालिका उनकी रक्षा करती है । प्रशासकीय कार्यों पर न्यायिक नियंत्रण की धारणा ‘विधि के शासन’ के सिद्धांत से उद्भव हुई है, जिसकी व्याख्या डायसी द्वारा की गई है ।
जो इस प्रकार हैं- ”कोई भी मनुष्य तब तक दंडित या विधिवत् शारीरिक या सांपत्तिक रूप से पीडित नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि उसने उस देश के साधारण न्यायालयों की दृष्टि में साधारण विधि के रूप में मान्य किसी कानून को स्पष्टतः भंग न किया हो…..कोई भी मनुष्य विधि से ऊपर नहीं किंतु…प्रत्येक मनुष्य चाहे वह किसी भी श्रेणी अथवा स्थिति का हो, अपने देश की साधारण विधि के अधीन है, और साधारण न्यायाधिकरणों के अधिकार-क्षेत्र में उस पर विधि के अनुसार कार्यवाही की जा सकती है । प्रधानमंत्री से लेकर एक सिपाही या कर वसूल करने वाला प्रत्येक अधिकारी तक अपने प्रत्येक गैर कानूनी कार्य के लिए उतना ही उत्तरदायी है जितना कोई भी अन्य नागरिक| हमारे संविधान में सामान्य सिद्धांत… न्यायालयों में प्रस्तुत विशेष मामलों में जनता के अधिकारों को निश्चित करने वाले न्यायिक निर्णयों के परिणाम हैं।”
प्रशासन में न्यायपालिका हस्तक्षेप के क्षेत्र :- यदि सरकारी कर्मचारी किसी व्यक्ति को हानि पहुंचाने के लिए बदले की भावना से अपने अधिकार का दुरुपयोग करता है तो न्यायालय से हस्तक्षेप की प्रार्थना की जा सकती है ।
जिसके निम्न प्रावधान हैं:
1. सरकार के विरुद्ध अभियोग:- भारतीय संविधान की धारा 300 में किसी राज्य के विरुद्ध अभियोग की स्थिति का वर्णन इस प्रकार है:
”भारत सरकार के विरुद्ध या उसके द्वारा भारतीय संघ के नाम से अभियोग उपस्थित किये जा सकते है| किसी राज्य की सरकार के विरुद्ध या उसके द्वारा उस राज्य के नाम से भी अभियोग प्रस्तुत किये जा सकते हैं।”
अतः भारतीय संघ या उसके किसी राज्य के विरुद्ध या उसके विरुद्ध उसी प्रकार का मुकद्दमा किया जा सकता है जिस प्रकार संविधान निर्माण के पूर्व औपनिवेशिक सरकार एवं तत्कालीन प्रांतीय सरकारों या भारतीय राज्यों द्वारा या उन पर मुकद्दमे दायर किये जा सकते थे बशर्ते संसद या किसी राज्य के विधान मंडल ने संविधान में प्रदत्त शक्ति को अधीन विधि द्वारा कोई विपरीत व्यवस्था न दी हो ।
भारत में संविदा (समझौते) संबंधी विवादों में राज्य के विरुद्ध अभियोग प्रस्तुत किया जा सकता है । उसके विरुद्ध असंप्रभु कार्यों के लिए ही अभियोग प्रस्तुत किया जा सकता है, संप्रभु कार्यों के लिए नहीं । संप्रभु कार्यों के अंतर्गत युद्ध काल में सैनिक प्रयोग के लिए सामग्री ले जाना, किसी सैनिक मार्ग का निर्माण या सुधार करना, अनुचित ढंग से बंदी बनाना, विधिक कर्तव्यों के पालन में राज्य के कर्मचारियों द्वारा की गयी गलतियाँ, सरकारी संरक्षण में संपत्ति की हानि आदि बातें आती है ।
2. सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध अभियोग :- भारतीय संविधान द्वारा राष्ट्रपति तथा राज्यपालों द्वारा अपने पद संबंधी कर्त्तव्यों तथा शक्तियों को परिपालनार्थ किये गये हर कार्य के लिए उन्मुक्ति प्राप्त है । केवल संसद ही राष्ट्रपति पर महाभियोग लगा सकती है उसके विरुद्ध कोई फौजदारी कार्यवाही नहीं की जा सकती है । भारत में मंत्रियों को ऐसी कोई उन्मुक्ति प्राप्त नहीं है । उनके विरुद्ध साधारण नागरिकों की भांति न्यायालयों में अभियोग प्रस्तुत किये जा सकते हैं ।
3. न्यायिक पदाधिकारी रक्षा अधिनियम, 1850 :- इसके अंतर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि – ”न्यायिक कार्य करने वाले किसी भी न्यायाधीश, दंडाधिकारी, शांति न्यायालय, कलेक्टर या अन्य कर्मचारी के विरुद्ध किसी भी असैनिक (Civil) न्यायालय में अपने पद संबंधी कर्तव्यों को पूरा करने के लिए किये गये कार्य या कार्य को करने का आदेश देने के लिए अभियोग नहीं चलाया जा सकता, भले ही वह कार्य उसके अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा के अंदर या बाहर किया हो; यदि कार्य करते या आदेश देते समय उसे पूर्ण सच्चाई के साथ यह विश्वास था कि उसने जो कार्य किया है तथा जो आदेश दिया है वह उसके अधिकार क्षेत्र में है….. ।”
वे व्यक्तिगत रूप से किसी भी ऐसे अनुबंध या आश्वासन के लिए उत्तरदायी नहीं होते हैं ”जो इस संविधान या भारत सरकार के किसी अधिनियम के लिए संपादित या संपन्न किया गया हो”
यदि सरकारी कर्मचारी पूर्ण निष्ठा से संविधिक सत्ता उपयोग नहीं करता है, और दुष्कृत्य तथा अविधिक कार्य के लिए उत्तरदायी होता है तो उसके विरुद्ध दीवानी कार्यवाही दो माह पूर्वलिखित सूचना देकर आरंभ की जा सकती है ।
असाधारण उपचार :- सर्वोच्च न्यायालय को और उच्च न्यायालयों की न्यायिक समीक्षा के अधिकार के अंतर्गत कुछ विशेष अधिकार दिए गये हैं ।
जिनका वर्णन इस प्रकार है :
i. बंदी प्रत्यक्षीकरण :- लैटिन शब्द ‘हेबियस कॉर्पस’ का शाब्दिक अर्थ ‘शरीर को प्राप्त करना है । बंदी प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से न्यायालय उस व्यक्ति को, जिसने किसी अन्य व्यक्ति को बंदी बना रखा है, आदेश देता है कि वह बंदी बनाये गये व्यक्ति को, सशरीर न्यायालय में उपस्थित करे जिससे उसे बंदी बनाये जाने के औचित्य पर विचार किया जा सके ।
बंदी बनाने के पर्याप्त कारणों के अभाव में न्यायालय बंदी को मुक्त करने का आदेश दे सकता है । इस लेख का उद्देश्य यह है कि किसी को विधि के अनुसार बंदी बनाया गया है, अथवा गलत रूप में । यह लेख वैयक्तिक स्वतंत्रता की
रक्षा-व्यवस्था के रूप में कार्य करता है, और मनमाने ढंग से बंदी बनाने पर प्रतिबंध लगाता है किंतु निवारक निरोध अधिनियम तथा भारत सुरक्षा नियम इसकी सामान्य उपयोगिता को सीमित कर देते है ।
Ii. परमादेश :- लैटिन शब्द ‘मैनडेमस’ का अर्थ है- समादेश या अधिदेश । यह ”एक ऐसा समादेश है जिसे राज्य या सार्वभौम सत्ता के नाम से समुचित अधिकार-क्षेत्र वाला कोई भी सामान्य न्यायालय किसी निगम, अधिकारी, अधीन या निम्न न्यायालय के नाम किसी विशेष कर्तव्य के पालन के लिए जो उस लेख में उल्लिखित हो, जारी कर सकता है । स्मरणीय है कि लेख में उल्लिखित कर्तव्य या तो विधि के क्रियान्वयन या पक्ष-विशेष की सरकारी स्थिति से उत्पन्न होता है जिनके नाम से लेख निर्देशित होता है ।”
संक्षेप में, यह लेख किसी सार्वजनिक या शासकीय अधिकारी को ऐसे कार्य को करने का आदेश देता है जो उस अधिकारी के सरकारी दायित्व का ही एक भाग होता है, किंतु जिसे पूरा करने में वह असफल रहा हो । यह लेख न्यायालय द्वारा अपनी इच्छा पर जारी किया जा सकता है । इस लेख की मांग अधिकार के रूप में नहीं की जा सकती है । जब तक कोई अन्य उपचार उपलब्ध होता है सामान्यतः न्यायालय इस लेख को जारी नहीं करते ।
Iii. निषेधाज्ञा :- निषेधाज्ञा का लेख किसी उच्च श्रेणी के न्यायालय द्वारा किसी निम्न श्रेणी के न्यायालय के नाम इसलिए जारी किया जाता है कि निम्न न्यायालय ऐसे किसी अधिकार-क्षेत्र का अपहरण न करे जो विधि द्वारा उसे प्रदान नहीं किया गया है ।
अतः यह एक निषेधात्मक व्यवस्था है जिसके द्वारा किसी निम्न न्यायालय को ”किसी अधिकार-क्षेत्र पर अनाधिकृत रूप से अधिकार से रोकना होता है, जो उसे विधिक रूप में प्राप्त नहीं है ।” इसे केवल न्यायिक या अर्धन्यायिक न्यायाधिकरणों के विरुद्ध ही जारी किया जा सकता है ।
Iv. उत्प्रेषण :- लैटिन शब्द ‘सरटीओरेरी’ का अर्थ ‘प्रमाणित होना’ है । बावियर के विधि-कोश के अनुसार उत्प्रेषण ”एक ऐसा लेख है जो किसी उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ अभिलेख न्यायालय या न्यायिक अधिकार से युक्त किसी अन्य अधिकरण या अधिकारी के नाम जारी किया जाता है । इस लेख द्वारा विचाराधीन किसी विवाद या ऐसे विवाद के संबंध में अभिलेख तथा कार्रवाई के प्रमाण और वापसी की मांग की जाती है जिसका निर्णय पहले हुआ हो । स्मरणीय है कि इस लेख की माँग उन विवादों के संबंध में की जाती है जिनकी प्रक्रिया सामान्य विधि के अनुरूप नहीं होती है ।”
यह लेख केवल किसी न्यायिक कार्य के विरुद्ध ही जारी किया जाता है । इसका कार्य छोटे न्यायालयों के अविधिक या क्षेत्राधिकारहीन कार्यों को रोकना या उनको समाप्त करना है । निषेधाज्ञा तथा उत्प्रेषण लेख में मुख्य अंतर यह है कि उत्प्रेषण लेख निषेधात्मक तथा सकारात्मक दोनों ही है, जबकि निषेधाज्ञा केवल रक्षात्मक होती है ।
v. अधिकार पृच्छा :- लैटिन शब्द ‘क्वो वारंटी’ का शाब्दिक अर्थ है ‘किस अधिपत्र या प्राधिकार द्वारा । स्पैलिग के अनुसार – ”अधिकार पृच्छा वह उपचार या कार्रवाई है जिसके द्वारा राज्य ऐसे दावे की वैधता संबंधी जांच करता है जिसके कारण किसी पक्ष द्वारा किसी पद पर या विशेषाधिकार का दावा किया जाता है ।
यदि ऐसे दावे का सुदृढ़ आधार नहीं है तो राज्य दावेदार को उस पद के लाभ से वंचित कर सकता है । यही नहीं, किसी पद या दावे को उचित तरीकों से प्राप्त करने एवं उपयोग करने पर भी यदि उसका दुरुपयोग किया जाता है या प्रयोग नहीं किया जाता, तो राज्य उसे निरंतर या पुन: प्राप्त कर सकता है । इस लेख का उद्देश्य सरकारी पद संबंधी किसी दावे की जांच करना है ।
अतः ये उपरोक्त लेख न्यायिक कार्यों के साथ कुछ प्रशासन पर भी नियंत्रण रखते हैं ।
न्यायिक नियंत्रण की सीमाएं :- इस संबंध में संक्षेप वर्णन इस प्रकार है:
1. न्यायालय स्वयं हस्तक्षेप नहीं कर सकता ।
2. घटना के होने के पश्चात न्यायिक नियंत्रण संभव होता है ।
3. कुछ निश्चित क्षेत्रों में न्यायपालिका हस्तक्षेप नहीं कर सकती ।
4. न्यायिक उपचार प्राप्त करना अधिकाधिक खर्चीला एवं जटिल होता है, जो सामान्य नागरिक के सामर्थ्य की बात नहीं है ।
निष्कर्ष :- निष्कर्ष तौर से यह कहा जा सकता है कि बेशक प्रशासन पर नियंत्रण (विधायी और न्यायिक) की अपनी कुछ सीमाएं हैं लेकिन अगर ये सीमाएँ भी प्रशासन पर ना हों तो प्रशासन एकदम निरंकुश हो जाएगा और वह अपने लोक सेवा के उद्देश्य से भ्रमित हो जाता है जिसका खामियाजा आम जनता को भुगतना होता है । इस नियंत्रण के अभाव में प्रशासनिक निरंकुशता को बढ़ावा दिया जाता है । अतः प्रशासन पर नियंत्रण अतिआवश्यक है ।