UNIT 13
प्रशासनिक सुधार के उपाय – ई गवर्नेस, सूचना प्रद्यौगिकी
प्रशासनिक सुधार आयोग एक समिति है जो भारत के लोक प्रशासन को और अधिक कारगर बनाने के लिये सुझाव देने हेतु भारत सरकार द्वारा नियुक्त की गयी है। प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग 5 जनवरी 1966 को नियुक्त किया गया था। दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग 31 अगस्त 2005 को बनाया गया था। इसके अध्यक्ष वीरप्पा मोइली थे।
आज का राज्य प्रशासनिक राज्य है। आज प्रशासन मानव जीवन के हरेक पहलू से संबंध रखता है। नागरिक प्रशासन को एक ऐसे नैतिक एजेंट के रूप में देखता है जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए है एवं उसकी आकांक्षाओं और लक्ष्यों तक पहुँचने में उसकी सहायता करता है। किंतु लोगों की आवश्यकताएं तो निरंतर बदलती रहती है और प्रशासन अचल बना हुआ नहीं रह सकता है। इसे आवश्यक रूप से परिवेश के अनुसार बदलना ही है। प्रशासन में या तो स्वतः परिवर्तन हो सकता है या फिर कृत्रिम रूप से परिवर्तन लाया जा सकता है। कृत्रिम रूप से लाए गए परिवर्तनों को प्रायः 'प्रशासनिक सुधार' कहते हैं।
परिभाषाएँ
हैराल्ड ई. कैडेन- प्रशासनिक सुधार प्रतिरोध के विरूद्ध प्रशासनिक परिवर्तन का कृत्रिम अभिप्रेरण है।
आर्नी एफ. लीमन्स- प्रशासनिक सुधार यथार्थता और वांछनीयता के बीच के अंतर को पाटने के प्रयास में सरकारी तंत्रा में किया गया अभिप्रेरित परिवर्तन है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम प्रशासनिक सुधार के निम्नलिखित अंतर-संबद्ध गुणों की पहचान कर सकते हैं।
(1) नैतिक प्रयोजनः- प्रशासनिक सुधार का इस अर्थ में एक नैतिक प्रयोजन है कि इसका लक्ष्य अधिक पूर्णता और परिशुद्धता प्राप्त करने के लिए प्रशासनिक संस्थाओं की हैसियत में वृद्धि करता है।
(2) सातव्यः- हम प्रशासन में दो मूल प्रकार के परिवर्तनों की पहचान कर सकते हैं। नियत परिवर्तन एवं प्रासंगिक परिवर्तन। नियत परिवर्तन का अभिप्राय संवृद्धि परिवर्तन है। संगठन में प्रासंगिक परिवर्तन सतत होते हैं। उनके क्षेत्रा बहुत व्यापक एवं विविध होते हैं और उनके लिए शासन में काफी उलट-फेर की जाती है। प्रशासनिक सुधार का यही प्रासंगिक चरित्रा होता है क्योंकि यह एक सतत क्रिया है।
(3) प्रशासनिक सुधार कृत्रिम होता हैः- प्रशासनिक सुधार स्वतः परिवर्तित नहीं होता है। यह एक ऐसा परिवर्तन है जो प्रशासन की प्रभावनीयता बढ़ाने के लिए किसी बाह्य स्रोत से जान-बूझकर अभिप्रेरित कराया गया हो। जैसा कि कैडेन कहते हैं, यह परिवर्ती दशाओं के प्रति स्व-समंजनकारी संगठनात्मक अनुक्रिया नहीं है, बल्कि कृत्रिम रूप से अभिप्रेरित परिवर्तन है जो स्वाभाविक प्रशासनिक प्रक्रिया के दोषपूर्ण कार्य-संचालन को ठीक करने के लिए आवश्यक है।
(4) परिवर्तन का प्रतिरोधः- परिवर्तन का प्रतिरोध एक सार्वत्रिक तथ्य है भले ही मानव शरीर हो अथवा लोक प्रशासन व्यवस्था। जब कभी कोई भी सुधार किया जाता है तब इसके विरूद्ध प्रतिरोध होता ही है। प्रशासनिक सुधार तो लगभग हमेशा ही प्रतिरोध का सामना करता है |
कैडेन के अनुसार निम्नलिखित कारणों से प्रशासनिक सुधार आवश्यक है-
(1) मनुष्य चाहे जितनी भी उन्नति कर ले, कोई भी मानव संस्था पूर्ण नहीं होती है। वस्तुतः मानव संस्थाओं में बहुत सारे दोष होते हैं। ऐसे कई इतने भारी दोष होते हैं कि उन्हें दूर करना अनिवार्य होता है। प्रशासनिक सुधार वस्तुतः इस सिद्धांत पर आधारित होता है कि सभी प्रशासनिक तंत्रों में चाहे उनका प्रदर्शन जितना भी अच्छा रहे, सुधार की गुंजाइश बनी रहती है।
(2) प्रशासनिक सुधार के पीछे दूसरा सिद्धांत यह है कि बड़े संगठन, विशेषकर बड़े सरकारी संगठन आत्मसंतुष्ट नहीं तो रूढ़िवादी (परिमिति) तो हो ही जाते हैं। सतत परिवर्तनशील परिवेश अभिनव प्रवर्तन का प्रयास करने के बजाय घिसी-पिटी लीक पर चलने की ही व्यवस्था को विवश करते हैं। यदि संगठन सफल रहा हो तो वह सिद्ध सूत्रा से चिपके रहना चाहता है। सभी संगठन ऐसे प्रशासनिक तंत्रों को पसंद करते हैं जो पर्याप्त अच्छी तरह चल रहे हों न कि ऐसे जोखिम भरे अभिनव परिवर्तनों को पसंद करते हैं जिनकी विश्वसनीयता स्थापित नहीं हो पाई है।
इसी रूढ़िवादी प्रवृत्ति के कारण संगठन परिवेश में हुए परिवर्तनों की ओर से आँखें फेर लेते हैं। संगठन स्पष्ट चेतावनी संकेतों की तब तक उपेक्षा करते हैं जब तक कि समस्या निदान के परे न चली जाए। इसी रूढ़िवादी प्रवृत्ति के कारण प्रशासनिक सुधार आवश्यक हो जाता है।
(3)जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, अधिकांश सरकारी संगठनों में रूढिस़्वादी प्रवृत्ति होती है और वे अभिनव परिवर्तनों के प्रति उदासीन बने रहते हैं। यदि कोई कार्य करने का बेहतर तरीका भी खोज लिया गया हो तो भी इसे आजमाने के प्रति अनिच्छा या अरूचि रहती है। संगठन किसी अभिनव परिवर्तन को तभी अपनाते हैं जब किसी राज्य संगठन द्वारा उसे परख और आजमा लिया गया हो। जब तक संदेह की यह छाया हट न जाए तब तक संगठन पुरानी और घिसी-पिटी पद्धतियों और प्रथाओं को ही जारी रखते हैं, भले इससे उन्हें नुकसान हो रहा हो। अभिनव परिवर्तन के प्रति इस प्रतिरोध के कारण ही प्रशासनिक सुधार आवश्यक हो जाता है।
उपयुक्त तीनों सिद्धांत शायद ही कभी गलत होते हों और लोक प्रशासन के अध्ययन एवं व्यवहार में प्रशासनिक सुधारों का स्थान बन गया है। इस आवश्यकता को महसूस किए जाने के कारण प्रशासनिक सुधारों का निरंतर संस्थानीकरण हो रहा है। प्रत्येक लोक प्रशासन को अपना सुधारक स्वयं होने के लिए प्रशिक्षित और प्रोत्साहित किया जा रहा है। प्रत्येक सरकारी संगठन में अद्युनातन प्रौद्योगिकी का ज्ञान रखने, अभिनव परिवर्तन को बढ़ावा देने एवं व्यावसायिक रूप से अनुमोदित सिफारिशों को अपनाने की अपेक्षा की जाती है। संक्षेप में, प्रशासनिक सुधारों की सुकल्पना का आगमन हो चुका है।
प्रशासनिक सुधार भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं। सुधारों को वर्गीकृत करने का एक तरीका उसकी विषय वस्तु पर ध्यान देना है। सामान्यतः निम्नलिखित प्रकार के प्रशासनिक सुधारों की पहचान की जा सकती है।
(1) संरचनात्मक सुधार
(2) प्रक्रियात्मक सुधार
(3) व्यवहारपरक सुधार
(1) संरचनात्मक सुधारः- प्रत्येक प्रशासनिक संगठन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अवयव संरचना है, अर्थात् एक ऐसी युक्ति जो संगठन में कार्य-विभाजन, प्रत्यायोजन एवं विकेंद्रीकरण की व्यवस्था करती है। संरचनात्मक सुधारों का आशय ऐसे सुधार प्रस्तावों से है जो संरचना की प्रभावनीयता और कुशलता बढ़ाने के उद्देश्य से इसमें परिवर्तन लाना चाहते हैं।
(2) प्रक्रियात्मक सुधारः- किसी भी संगठन में समय बीतने के साथ प्रक्रियाएं सांस्थानीकृत हो जाती है जैसे वित्तीय नियम, कार्मिक नीतियाँ, नत्थीकरण पद्धतियाँ आदि। संगठन पुरानी प्रक्रियाओं से चिपके रहना चाहते हैं। प्रक्रियात्मक सुधार लालफीताशाही को दूर करने के प्रयास में प्रक्रियाओं में परिवर्तन लाना चाहते हैं। उदाहरणः भारत में स्टाफ निरीक्षण इकाई सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित करती है।
(3) व्यवहारपरक सुधारः- सभी बड़े संगठन एक अधिकारी तांत्रिक संरचना विकसित करना चाहते हैं। किसी भी अधिकारी तंत्रा में इसका अवैयक्तिक चरित्रा और व्यक्तियों को पर्याप्त महत्त्व का अभाव रहता ही है। व्यक्तियों के अमानवीयकरण के कारण अधिकारीतंत्रा के सदस्यों में अभिप्रेरणा का अभाव उत्पन्न होता है जो लोगों को उनके द्वारा दी जा रही सेवाअें की गुणवत्ता पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। व्यवहारपरक सुधार व्यक्ति की महत्ता और गरिमा को पुनः स्थापित करना चाहते हैं ताकि एकता का वातावरण बने एवं समूहगत सद्भाव पनपे। इस प्रकार ये सुधार कर्मचारियों के अभिप्रेरणा स्तरों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं।
ऊपर वर्णित भिन्न-भिन्न प्रकार के सुधारों पर अलग-अलग या संयुक्त रूप से विचार किया जा सकता है। यह कहना आवश्यक नहीं है कि यदि किसी को सुधारों से पूरा-पूरा लाभ उठाना हो तो सभी सुधारों पर एक साथ ही विचार किया जाना चाहिए।
देश की प्रशासनिक जाँच तथा आवश्यकतानुसार प्रशासन में सुधार एवं पुनर्गठन के संबंध में सिफारिशें करने के लिए एक उच्चाधिकारयुक्त प्रशासनिक सुधार आयोग की स्थापना 5 जनवरी 1966 को की गयी। प्रशासनिक सुधार आयोग के प्रथम सभापति श्री मोरारजी देसाई थे। इसके अन्य चार सदस्य थे- सर्वश्री के. हनुमन्तैया, हरिश्चन्द्र माथुर, जी.एस. पाठक तथा एच. बी. कामथ। श्री बी. शंकर इसके सदस्य सचिव थे। अंतिम को छोड़कर सभी संसद सदस्य थे। श्री जी.एस. पाठक जब 24 जनवरी 1966 को केन्द्र सरकार के कानून मंत्री बने तो उनके स्थान पर राज्य सभा के सदस्य श्री देववत मुखर्जी को 27 अप्रैल 1966 को आयोग का सदस्य बनाया गया। श्री बी. शंकर 12 मार्च, 1966 को पूर्णरूपेण सदस्य बन गये। श्री वी.वी. चारी को आयोग का सचिव पद दिया गया। 17 मार्च 1967 को के. हनुमन्तैया को सभापति बनाया गया क्योंकि श्री मोरारजी देसाई ने उप-प्रधानमंत्री पर ग्रहण करने के कारण त्यागपत्र दे दिया था। 12 जून 1968 को श्री हरिशचन्द्र माथुर की मिर्त्यु हो गयी। उनके स्थान पर 16 सितम्बर 1968 को राज्यसभा के सदस्य श्री टी.एन. सिंह को नियुक्त किया गया।
आयोग के कार्य :- लोक सेवाओं में कार्यकुशलता और ईमानदारी के उच्चस्तर को प्राप्त करने के लिए आयोग को निम्नलिखित क्षेत्रों पर सुझाव देने के लिए कहा गया था-
(1) भारत का सरकारी तंत्रा एवं उसकी कार्य करने की प्रणालियाँ
(2) सभी स्तरों पर नियोजन की व्यवस्था
(3) केन्द्र-राज्य संबंध
(4) वित्तीय प्रशासन
(5) कार्मिक प्रशासन
(6) आर्थिक प्रशासन
(7) राज्य-स्तरों का प्रशासन
(8) जिला प्रशासन
(9) कृषि प्रशासन
(10) नागरिकों के कष्टों व शिकायतों को दूर करने की समस्याएँ।
उपर्युक्त कामों की सूची के अतिरिक्त प्रत्येक शीर्षक के अन्तर्गत 41 मसले और निश्चित किये गये। रेलवे, प्रतिरक्षा एवं परराष्ट्र मंत्रालय तथा सुरक्षा एवं गुप्तचर कार्यों के प्रशासन को आयोग की जाँच से अलग रखा गया क्योंकि इनके जाँच का कार्य अलग हो रहा था।
प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशें :- प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशों का सारांश निम्नलिखित है-
(1) विभिन्न मंत्रालयों में संगठन तथा प्रणाली को पुनः सक्रिय किया जाय। इन इकाइयों के माध्यम से कर्मचारी वर्ग को प्रबंध की आधुनिक विधियों का प्रशिक्षण दिया जाय।
(2) केन्द्रीय सुधार अभिकरण में ठोस एवं दृश्य सुधारों का एक विशिष्ट कोष्ठ स्थापित किया जाय।
(3) केन्द्रीय सुधार अभिकरण को कार्य करने, भर्ती करने तथा अपने संगठनात्मक ढाँचे के तरीकों में अनुसंधान प्रमुख होना चाहिए।
(4) उप-प्रधानमंत्री के अधीन प्रशासनिक सुधारों के विभाग को रखा जाय।
(5) प्रशासनिक सुधारों एवं प्रगतियों के अध्ययन का कार्य स्वायत्तता प्राप्त व्यावसायिक संस्थाओं के हाथ में सौंपा जाना लाभप्रद हो सकता है, जैसे-लोकप्रशासन का भारतीय अनुसंधान, व्यावहारिक मानव-शक्ति अनुसंधान संस्थान, प्रशासनिक स्टाफ कालेज, हैदराबाद, इसी प्रकार कलकत्ता एवं अहमदाबाद के प्रबंध संस्थान तथा कुछ चुने हुए विश्वविद्यालय।
(6) प्रशासनिक सुधारों की एक परिषद स्थापित की जाये जो प्रशासनिक सुधार अभिकरण के कार्यक्रमों को बनाने, योजनाओं के निर्माण, लोक प्रबंधों की समस्याओं पर अनुसंधान करने में सहायता दे। परिषद में आठ सदस्यों हों। इनमें कुछ संसद सदस्य, कुछ अनुभवी प्रशासक तथा लोक प्रशासन में रूचि रखने वाले विद्वान हो। इनमें प्रधानमंत्री करेगा और वह स्वयं यह भी देखेगा कि प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें किस प्रकार लागू हो रही है।
(7) प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा स्वेच्छा या स्व-विवेक के दुरूपयोग को देखने के लिए, लोक सेवाओं में सत्यनिष्ठा, सिविल सेवा की क्षमता, नागरिकों पर किये गये अन्याय को देखने एवं जाँच करने के लिए 'लोकपाल' तथा 'लोकायुक्त' को नियुक्त करने की सिफारिश आयोग ने की।
(8) भारतीय प्रशासकीय सेवा एक सामान्यतावादी सर्वगुण सम्पन्न अधिकारी बन गयी है जो सरकारी क्षेत्र के उद्यमों का प्रबंध नहीं कर सकती। वह भारी उद्योगों, इस्पात तथा खान, पेट्रोलियम तथा रसायन जैसे तकनीकी प्रकृति के मंत्रालयोंं या विभागों में नीति-निर्माण संबंध कार्यों को सम्पन्न नहीं कर सकती। अतः आयोग ने सिफारिश की है कि ऐसे कार्यों के प्रमुख पदों पर उन्हीं व्यक्तियों की नियुक्तियाँ की जानी चाहिये जिन्हें की सम्बद्ध विषय का विशिष्ट अनुभव अथवा विशिष्ट ज्ञान हो। आयोग के शब्दों में, विशिष्टीकरण पर जोर देने तथा उच्च प्रशासन में विशिष्ट कौशल की आवश्यकता पर जोर देने से हमारा आशय, किसी भी प्रकार, यह नहीं है कि सामान्यतावादी अधिकारी पूर्णतया फालतू या आवश्यकता से अधिक है। एक तथ्य जिसे हम सर्वाधिक प्रकाश में लाना चाहेंगे ”यह है कि कुछ पदों और पदों की श्रेणियों को केवल सामान्यतावादी श्रेणी के अधिकारियों के लिए अब और अधिक समय तक सुरक्षित नहीं माना जाना चाहिए। कार्यों की योजना में सामान्यतावादी अधिकारियों का अपना स्थान है और यह कि महत्त्वपूर्ण स्थान है, किंतु वैसे ही महत्त्वपूर्ण स्थान विशेषज्ञों तथा टैक्नोलॉजी विशेषज्ञों का भी है।
(9) वरिष्ठ प्रबंधकीय पद सभी के लिए खोल दिये जाना चाहिए। उन्हें किसी विशेष श्रेणी या वर्ग के लिए सुरक्षित न रखा जाये। प्रशासन में विशेषज्ञों को स्थान दिया जाए।
(10) आयोग ने वर्तमान कार्मिक वर्ग की वर्तमान व्यवस्था की कमियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया और भारतीय प्रशासन सेवा के ढाँचे में पुनर्गठन के लिए समुचित सुझाव दिये। आयोग का सुझाव था कि भारतीय प्रशासन सेवा के लिए कार्यात्मक क्षेत्र का निर्धारण कर दिया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में भू-राजस्व प्रशासन, मेजिस्ट्रेट सम्बन्धी कार्य तथा नियामकीय कार्य सम्मिलित किये जाना चाहिए, किन्तु ये कार्य राज्यों के केवल उन क्षेत्रों तक ही सीमित रहना चाहिए जिनकी देखभाल अन्य कार्यात्मक सेवाओं के अधिकारियों द्वारा नहीं की जाती है।
(11) भारत सरकार के वर्तमान युग में गठित विभागों का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। मंत्री-परिषद की संख्या प्रधानमंत्री को मिलाकर 16 हो। सभी मंत्रियों की कुल संख्या 40 हो और उसे विशेष परिस्थितियों में 45 की जा सकती है। मंत्रियों के वर्तमान में तीन स्तर को जारी रखा गया। मंत्रियों को विभाग देने के पूर्व सम्बन्धित मंत्रियों से प्रधानमंत्री परामर्श अवश्य कर ले। निर्णय लेने का कार्य दो से अधिक मंत्रियों को न दिया जाये। प्रधानमंत्रियों के पास प्रमुख विभाग रहना चाहिए और उसे विभिन्न मंत्रालयों के बीच तालमेल बनाये रखने का कार्य करना चाहिए। समय-समय पर प्रधानमंत्री विभिन्न मंत्रियों से कार्यों के विषय में मिलते रहे।
(12) जिस मंत्रालय में एक से अधिक विभाग अथवा सचिव हों, उसमें पूर्णतया समन्वय बनाये रखने का कार्य एक ऐसे विभाग अथवा सचिव को सौंपा जाना चाहिए जो इस कार्य के लिए सर्वाधिक उपयुक्त हो।
ई-गवर्नेंस का अर्थ है, किसी देश के नागरिकों को सरकारी सूचना एवं सेवाएँ प्रदान करने के लिये संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी का समन्वित प्रयोग करना।
● ई-गवर्नेंस में "ई" का अर्थ 'इलेक्ट्रॉनिक' है।
● यूरोपीय परिषद ने ई-शासन को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :
● सार्वजनिक कार्रवाई के तीन क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक प्रौद्योगिकियों का उपयोग।
● सार्वजनिक अधिकारियों और नागरिक समाज के बीच संबंध।
● लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सभी चरणों में सार्वजनिक प्राधिकरणों का कामकाज (इलेक्ट्रॉनिक लोकतंत्र)
● सार्वजनिक सेवाओं (इलेक्ट्रॉनिक सार्वजनिक सेवाओं) का प्रावधान।
ई-गवर्नेंस के उदय के कारण
● शासन का जटिल होना
● सरकार से नागरिकों की अपेक्षाओं में वृद्धि
ई-गवर्नेंस की विभिन्न धारणाएँ:
प्रशासन :- राज्य को आधुनिक बनाने के लिये आईसीटी का उपयोग; प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआईएस) के लिये डेटा रिपॉज़िटरी का निर्माण और रिकॉर्ड्स (भूमि, स्वास्थ्य आदि) का कंप्यूटरीकरण।
ई-सेवाएँ :- इसका उद्देश्य राज्य और नागरिकों के मध्य संबंध को मज़बूत करना है।
उदाहरण के लिये:
● ऑनलाइन सेवाओं का प्रावधान।
● ई-प्रशासन और ई-सेवाओं का एक साथ समायोजन करना, जिसे बड़े पैमाने पर ई-सरकार कहा जाता है।
ई-गवर्नेंस :- समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये सरकार की क्षमता में सुधार हेतु सूचना एवं प्रौद्योगिकी का उपयोग करना।
● इसमें नागरिकों के लिये नीति और कार्यक्रम से संबंधित जानकारी का प्रकाशन शामिल है।
● यह ऑनलाइन सेवाओं के अतिरिक्त सरकार की योजनाओं की सफलता के लिये आईटी का उपयोग करता है और सरकार के विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करता है।
ई-लोकतंत्र :- राज्य के शासन में समाज के सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु आईटी का उपयोग।
● इसके अंतर्गत पारदर्शिता, जवाबदेहिता और लोगों की भागीदारी पर जोर दिया जा रहा है।
● इसमें नीतियों का ऑनलाइन खुलासा, ऑनलाइन शिकायत निवारण, ई-जनमत संग्रह आदि शामिल हैं।
उत्पत्ति :- भारत में ई-गवर्नेंस की उत्पत्ति 1970 के दशक के दौरान चुनाव, जनगणना, कर प्रशासन आदि से संबंधित डेटा गहन कार्यों के प्रबंधन के लिये आईसीटी के अनुप्रयोगों पर ध्यान देने के साथ हुई।
प्रारंभिक कदम
● 1970 में इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग की स्थापना भारत में ई-गवर्नेंस की दिशा में पहला बड़ा कदम था क्योंकि इसमें ’सूचना’ और ‘संचार’ पर ध्यान केंद्रित किया गया था।
● 1977 में स्थापित राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (एनआईसी) ने देश के सभी ज़िला कार्यालयों को कंप्यूटरीकृत करने के लिये “जिला सूचना प्रणाली कार्यक्रम” शुरू किया
● ई-गवर्नेंस को बढ़ावा देने की दिशा में 1987 में लॉन्च NICNET (राष्ट्रीय उपग्रह-आधारित कंप्यूटर नेटवर्क) एक क्रांतिकारी कदम था।
उद्देश्य
● नागरिकों को बेहतर सेवा प्रदान करना।
● पारदर्शिता और जवाबदेहिता का पालन।
● सूचनाओं के माध्यम से लोगों को सशक्त बनाना।
● शासन दक्षता में सुधार।
● व्यापार और उद्योग के साथ इंटरफेस में सुधार।
ई-गवर्नेंस के स्तंभ
● लोग
● प्रक्रिया
● प्रौद्योगिकी
● संसाधन
ई-गवर्नेंस में सहभागिता के प्रकार
● G2G यानी सरकार से सरकार
● G2C यानी सरकार से नागरिक
● G2B यानी सरकार से व्यापार
● G2E यानी सरकार से कर्मचारी
● ई गवर्नेंस हेतु भारत में नवाचार:
● G2G (Governance to Governance):- यानि सरकार से सरकार, इस मेथड के माध्यम से तमाम सरकारों को आपस में सपर्क बनाने एवं कार्यो में सरलता और पारदर्शिता लाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
● G2C (Governance of Citizens):- यानि सरकार से जनता का संपर्क इसके तहत जनता के कार्यो और उनकी लाइफ में गुणवत्ता लायी जाने का लक्ष्य है, ताकि जनता को परेशान न होने पड़े।
● G2B (Governance to Business):- मतलब सरकार से व्यापारियों का आसान ऑनलाइन संपर्क, इसके तहत सभी व्यापारियों के कार्यों में पारदर्शिता लाये जाने का लक्ष्य है और जैसे GST ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन, बिज़नेस पंजीयन जैसी अनेक बिज़नेस सम्बन्धी कार्यों को ऑनलाइन करना।
● G2E (Governance to Employe):- इसका मतलब होता है सरकार से कर्मचारी का सीधा नाता ऑनलाइन माध्यम से कुल मिलकर एक कर्मचारी से सम्बंधित सभी कार्यो को ऑनलाइन लेकर आना एवं उसकी सभी एक्टिविटी को सरकार द्वारा ऑनलाइन नजर रखना।
ई गवर्नेंस की प्रक्रिया
यह मुख्य रूप से चार चरणों में संपन्न किया जाता है जी निम्न है-
● कम्प्युटरीकरण:- यह पहले स्टेप्स है जिसमे सभी केंद्र एवं राज्य सरकारी कार्यालय में कंप्यूटर मशीन को स्थापित करना ताकि सभी कार्यो को आसानी से किया जा सके, यही ही नहीं आप देख रहे होंगे स्कूलो में भी कंप्यूटर क्लासेज शुरू की जा रही है और हर विद्यार्थी को नेटवर्किंग और कंप्यूटर का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया है।
● नेटवर्किंग :- यह दूसरा चरण है जिसमे सभी सरकारी ऑफिस एवं सरकारों, व्यापारियों, जनता के कार्य, कर्मचारी की सुविधाएं और कार्यो को एक नेटवर्क के माध्यम से चैनल तैयार करना जो आपसे में एक दुसरे से जुड़े हो।
● ऑनलाइन प्रेजेंट:- इस तीसरे चरण में सरकारों को लगा कि उन्हें अपनी वेबसाइट खड़ी करनी चाहिए और वहा सूचना, डाटा की जानकारी, कार्यो की जानकारी, योजना की जानकारी, संपर्क विवरण, शिकायत विवरण इत्यादि उपस्थित करना चाहिए यही कारण है कि My Gov की शुरुआत की गई और सभी राज्यों और केन्द्रो और विभागों की सरकारी वेबसाइट बनाई गई जिन्हे आप इंटरनेट पर देख सकते है, Narbariya.com ने भी My Gov को Hyper Link प्रदान करके देश की सरकारी वेबसाइट को आगे बढ़ाने में योगदान दिया जिसे आप हमारी वेबसाइट के Footer में देख सकते है भारत सरकार का लोगो लगाया गया है।
● Online Interactivity:- इसका मतलब है कि जो सरकारी वेबसाइट तैयार की गई उनमे नागरिकों, व्यापारियों, कर्मचारियों एवं अन्य सरकारी संस्थाओं के लिए लॉगिन करने की अनुमति देना ताकि वह विभिन्न प्राकर के फॉर्म डाउनलोड एवं कार्य ऑनलाइन कर सके।
डिजिटल इंडिया पहल
● इसे इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (Meity) द्वारा लॉन्च किया गया है।
● यह भारत को डिजिटल रूप से सशक्त समाज व ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के रूप में परिवर्तित करने के उद्देश्य से शुरू किया गया।
डिजिटल इंडिया के केंद्र में तीन मुख्य क्षेत्र हैं:
(i) प्रत्येक नागरिक के लिये सुविधा के रूप में बुनियादी ढाँचा
(ii) गवर्नेंस व मांग आधारित सेवाएँ
(iii) नागरिकों का डिजिटल सशक्तीकरण
ई-गवर्नेंस के लाभ
● ई-गवर्नेंस से प्रशासनिक कार्य एवं सेवाओं की दक्षता एवं गुणवत्ता में सुधार होता है।
● ई-गवर्नेंस के माध्यम से सरकार को सारे आँकड़े आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।
● सरकारें विभिन्न योजनाएँ और नीतियाँ बनाने के दौरान इन आँकड़ों का विश्लेषण कर बेहतर निर्णय ले सकती हैं।
● ई-गवर्नेंस के परिणाम स्वरुप एक कॉमन डेटा तैयार हो जाता है जिसका उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है।
● इससे जनता और सरकार के बीच स्वस्थ एवं पारदर्शी संवाद को मज़बूत बनाया जा सकता है।
● सुशासन के लिये एक महत्त्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना है ताकि पूरी प्रणाली को पारदर्शी बनाकर तीव्र किया जा सके और यह ई-गवर्नेंस के माध्यम से ही संभव है।
● ई-गवर्नेंस से व्यवसाय और नए अवसरों का सृजन हुआ है।
ई गवर्नेंस से संबंधित चुनौतियाँ
अवसंरचना
• बिजली, इंटरनेट आदि बुनियादी सुविधाओं का अभाव।
(BharatNet और Saubhagya जैसी पहलें इस संबंध में उठाए गए कदम हैं।)
लागत
● ई-गवर्नेंस हेतु किये जाने वाले उपाय महँगे होते हैं और इनके लिये भारी सार्वजनिक व्यय की आवश्यकता होती है।
● भारत जैसे विकासशील देशों में, ई-गवर्नेंस पहल के कार्यान्वयन में परियोजनाओं की लागत प्रमुख बाधाओं में से एक है।
गोपनीयता और सुरक्षा
● डेटा लीक होने के मामलों ने ई-गवर्नेंस के प्रति लोगों के विश्वास को खतरे में डाल दिया है। इसलिये, ई-गवर्नेंस परियोजनाओं के कार्यान्वयन में सभी वर्गों के लोगों के हितों की सुरक्षा के लिये सुरक्षा मानक और प्रोटोकॉल होने चाहिये।
डिजिटल डिवाइड
● ई गवर्नेंस सेवाओं का लाभ उठाने वाले और इन सेवाओं से वंचित लोगों की संख्या के मध्य बहुत अधिक अंतराल है।
● डिजिटल विभाजन जनसंख्या के अमीर-गरीब, पुरुष-महिला, शहरी-ग्रामीण आदि क्षेत्रों में देखा जाता है।
● इस अंतर को कम करने की आवश्यकता है, तभी ई-गवर्नेंस के लाभों का समान रूप से उपयोग किया जाएगा।
ई गवर्नेंस के कार्य
• ऑनलाइन जाति प्रमाण पत्र बनाना एवं सुधार करना
• ऑनलाइन राशन कार्ड
• ऑनलाइन पैन कार्ड
• ऑनलाइन ड्राइविंग लाइसेंस
• ऑनलाइन Gst पंजीयन
• ऑनलाइन पेमेंट
• ऑनलाइन पासपोर्ट
• ऑनलाइन आधार आधार
• ऑनलाइन वोटर आईडी
• ऑनलाइन खतौनी
• ऑनलाइन न्यायलय
• ऑनलाइन बस टिकट
• ऑनलाइन रेल टिकट
• ऑनलाइन फ्लाइट
• ऑनलाइन आय प्रमाण पत्र
• ऑनलाइन जॉब कार्ड
• ऑनलाइन रोजगार पंजीयन
• ऑनलाइन ई फाइलिंग
• ऑनलाइन शिकायत
• ऑनलाइन एग्जाम
• ऑनलाइन इंटरव्यू
• डिजिटल लॉकर
• ऑनलाइन समग्र आईडी
• ऑनलाइन एंड्राइड एप विभिन्न सेवाओं के लिए
• इत्यादि!
सुझाव
● ग्रामीण क्षेत्रों में ई-शासन की पहल ज़मीनी हकीकत की पहचान और विश्लेषण करके की जानी चाहिये।
● सरकार को विभिन्न हितधारकों अर्थात नौकरशाहों, ग्रामीण जनता, शहरी जनता, निर्वाचित प्रतिनिधियों, आदि के लिये उचित, व्यवहार्य, विशिष्ट और प्रभावी क्षमता निर्माण तंत्र के विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
● ई-गवर्नेंस से संबंधित सेवाओं के वितरण को बढ़ाने में क्लाउड कंप्यूटिंग की एक बड़ी भूमिका है। क्लाउड कंप्यूटिंग न केवल लागत में कमी लाने का एक उपकरण है, बल्कि नई सेवाओं को प्रदान करने में सक्षम होने के साथ ही शिक्षा प्रणाली में सुधार और नई नौकरियों / अवसरों के सृजन में भी मदद करता है।
● मेघराज- जीआई क्लाउड सही दिशा में एक कदम है। इस पहल का उद्देश्य सरकार के आईसीटी खर्च को कम करते हुए देश में ई-सेवाओं के वितरण में तेज़ी लाना है।
● क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से ई-गवर्नेंस भारत जैसे विविधतापूर्ण राष्ट्र के लिये अत्यंत प्रासंगिक है।
निष्कर्ष
● ई-गवर्नेंस सेवाएँ भारत में गति पकड़ रही हैं, लेकिन सार्वजनिक जागरूकता बढाने और डिजिटल डिवाइड को कम करने की आवश्यकता है।
● ई-गवर्नेंस उपायों की सफलता काफी हद तक हाई-स्पीड इंटरनेट की उपलब्धता पर निर्भर करती है, और निकट भविष्य में 5-जी तकनीक का देशव्यापी प्रसार हमारे संकल्प को मज़बूत करेगा।
विकासशील देशों के लिए, प्रौद्योगिकी को विकास के लिए एक लीवर माना जाता है। सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) के विकास में सामाजिक विकास के सभी पहलुओं की व्यापक संभावना है। विशेष रूप से, किसी भी विकासशील देश के लिए, आईटी ने एक समग्र परिवर्तन और विकास लाया है। विकासशील देशों को आईटी की 6 सीसी यानी कंप्यूटर घनत्व, संचार, कनेक्टिविटी, साइबर कानूनों, लागत और कॉमन्सेंस पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है ताकि इक्कीसवीं सदी में एक प्रभावी और अच्छी तरह से शासित देश बन सके।
शासन में सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग
कोविड 19 ने सार्वजनिक और सार्वजनिक संस्थान की क्षमता को राष्ट्रीय महत्व के भौतिक रूप से इकट्ठा करने और बहस करने के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। लगभग सभी सरकारी मशीनरी और सार्वजनिक और निजी संस्थानों को तालाबंदी और सामाजिक दूरी के मानदंडों के पालन करने के कारण रोक दिया गया है।दूरस्थ रूप से कार्य करना नया और सामान्य है और इस परिदृश्य में, सूचना सशक्तिकरण एक सफल लोकतंत्र के लिए मौलिक हो जाता है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के आगमन ने वैश्विक सूचना सोसायटी के तेजी से उभरने का पोषण किया है जो लोगों के जीने, सीखने, काम करने और संवाद करने के तरीके को बदल रहा है।इसलिए, लोकतंत्र की संस्था को बनाए रखने के लिए, सरकार को अपनी सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) नीति को फिर से परिभाषित करना चाहिए और विकास संगठनों की सक्रिय भागीदारी के साथ इसे और अधिक अभिनव बनाना चाहिए।वर्तमान परिदृश्य में, सुशासन और सार्वजनिक सेवा वितरण में प्रौद्योगिकी की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
शासन में सूचना प्रौद्योगिकी का महत्व
● विधायी निकाय सार्वजनिक न्यास के संस्थान हैं और विशेषकर संकट के समय में सरकार के कार्यों की जांच जारी रखने की आवश्यकता है।यह यहां है कि प्रौद्योगिकी-केंद्रित समाधान कानून बनाने वाले संस्थानों में तब भी काम की निरंतरता सुनिश्चित कर सकते हैं, जब बैठकें शारीरिक रूप से आयोजित नहीं की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए:विधायी निकायों की इन ऑनलाइन बैठकों से महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस और विचार-विमर्श को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। ई-विधायिका की स्थापना से अध्यादेशों के लगातार उपयोग को कम करने में मदद मिलेगी।
● इसके बाद, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड आदि जैसे लोकतांत्रिक देशों में आभासी संसद की स्थापना की गई।संसदीय समितियों को मजबूत करना संसदीय समितियों के काम में ठहराव है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।ये समितियां सांसदों के छोटे उप-समूह हैं जो सार्वजनिक महत्व के मुद्दों पर विचार-विमर्श करने के लिए सदन के बाहर मिलते हैं। समितियां एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं क्योंकि उन्हें सरकारी बिलों की गहराई से जांच करने का काम सौंपा जाता है।इस प्रकार, आईसीटी प्लेटफार्मों के उपयोग से संसदीय समितियों का समुचित कार्य किया जा सकेगा।
● इसके अलावा, अतिरिक्त लाभ यह हो सकता है कि समिति को कई हितधारकों को सुनने के लिए मिल सकता है, जो अन्यथा समितियों के सामने व्यक्ति को पेश करना मुश्किल हो सकता है।
आभासी न्यायपालिका
यह स्पष्ट है कि न्यायिक प्रक्रिया में सामान्य स्थिति थोड़े समय में फिर से शुरू नहीं होगी, यहां तक कि शुरुआती अवधि के बाद लॉकडाउन चरण में भी।
इसलिए, यह न्यायपालिका के लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को अपनाने का एक अवसर है, ताकि न्याय बिना किसी देरी के सभी तक पहुंच सके।
इसके अलावा, ई-कोर्ट न्यायपालिका जैसी पहल को अपनाने से मामलों का बैकलॉग कम हो सकता है।
सहभागी लोकतंत्र को बढ़ावा देना
सामुदायिक सामूहिक पसंद के लिए एक अभूतपूर्व अवसर है, जिसके तहत जो नागरिक शासी नियमों से प्रभावित होते हैं, वे अपने स्थानीय सरकार के प्रतिनिधियों के साथ साझेदारी में नीति, रैंक खर्च की प्राथमिकताओं, और कर सकते हैं, का चयन और फ्रेम करने में मदद कर सकते हैं,
इस तरह के तंत्र से सामाजिक अंकेक्षण को मजबूत करने में मदद मिल सकती है। उदाहरण के लिए, नागरिक myGOV प्लेटफॉर्म पर सरकार को सीधे सुझाव दे सकते हैं।
सुशासन लागू करना
सूचना प्रौद्योगिकी ने यह सुनिश्चित किया है कि सरकार द्वारा लिए गए नीतिगत निर्णय को देश की लंबाई और चौड़ाई के बीच कई स्थानों पर जल्दी से क्रियान्वित और कार्यान्वित किया जा सकता है।
यह नागरिकों की समस्याओं और सुझावों के लिए सरकार की त्वरित और प्रभावी जवाबदेही का आश्वासन देते हुए पारदर्शिता, जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना
सरकार ने प्रभावी सार्वजनिक सेवा वितरण के लिए ई-गवर्नेंस की कई पहल की हैं। साथ ही, उभरती प्रौद्योगिकियों के साथ संयुक्त होने पर, यह सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद कर सकता है।