UNIT 14
विकास प्रशासन एवम नौकरशाही
‘विकास प्रशासन’ दो शब्दों ‘विकास’ तथा ‘प्रशासन’ के योग या मेल से बना है। ‘ कम वांछित परिस्थिति से अधिक वांछित परिस्थितियों की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया’ को विकास की संज्ञा देते हैं जबकि ‘प्रशासन सरकार का कार्यात्मक पहलू है जिसका अभिप्राय सरकार द्धारा लोक-कल्याण तथा जन-जीवन को व्यवस्थित करने हेतु किये गये प्रयासों से हैं। लोक प्रशासन के शब्दकोष के अनुसार”एक देश , विशेषतौर पर उभरते हुए नए देशों, की प्रशासनिक क्षमता को बढ़ाने हेतु वहाँ पर प्रविधियों, प्रक्रियाओं, तथा व्यवस्थाओं में सुधार या उन्नति” को विकास प्रशासन कहते हैं।
एडवार्ड वीडनर के अनुसार, “विकास प्रशासन उन प्रगतिवादी राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक उददेश्यों जो किसी न किसी रूप में आधिकारिक स्तर पर निर्धारित होते हैं, को प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन की प्रक्रिया है। जॉन मोण्टगोमरी के अनुसार,” विकास प्रशासन का तात्पर्य अर्थव्यवस्था जैसे कि कृषि या उद्योग या इन दोनों में से किसी से भी सम्बन्धित पूंजीगत आधारिक संरचना तथा कुछ सीमा तक राज्य की समाज सेवाओं (विशेषतया शिक्षा और लोक स्वास्थय) में नियोजित परिवर्तन लाना है। सामान्यत: राजनैतिक योग्यताओं में सुधार करने के प्रयासों से इसका सम्बन्ध नहीं होता।” फेनसोड ने विकास प्रशासन को परिभाषित करते हुए “इसे नवीन मूल्यों का वाहक बताया है। “उनके अनुसार, “विकास प्रशासन में वे सभी कार्य साम्मिलित होते हैं जो विकासशील देशों ने आधुनिकीकरण एंव औद्योगिकीकरण के मार्ग पर चलने के लिए ग्रहण किए हैं या अपनाएं है। प्राय: विकास प्रशासन में संगठन और साधन सम्मिलित हैं जो नियोजन आर्थिक विकास तथा राष्ट्रीय आय का प्रसार करने हेतू साधन जुटाने और उनके आबंटन के लिए स्थापित किए जाते हैं।” रिग्स के अनुसार, “विकास प्रशासन को दो परस्पर सम्बन्धी रूपों में प्रयुक्त किया जाता है। प्रथम, विकास प्रशासन का सम्बन्ध विकास कार्यक्रमों को लागू करने से , बड़े संगठनों, विशेष तौर पर सरकारों, के द्धारा प्रयुक्त प्रणालियों, नीतियों और उन नीतियों के विकासवादी उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु बनाई गई योजनाओं के कार्यान्वयन से हैं दूसरे, अप्रत्यक्ष रूप में प्रशासनिक क्षमताओं में वृद्धि लाना भी इसके अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता हैं।
विकास प्रशासन की विशेषताएँ :- उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम विकास प्रशासन की कुछ विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं। विकास प्रशासन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन नीचे किया जा रहा है।
- परिवर्तनोन्मुखी :- विकास प्रशासन की पहली प्रमुख विशेषता यह है कि यह परिवर्तनोन्मुखी प्रशासन है अर्थात समय-समय पर आवश्यकताओं के अनुरूप अपने कार्यक्रमों, नीतियों एंव योजनाओं में परिवर्तन लाता रहता है। विकास प्रशासन राष्ट्र के चहुमुखी विकास के लिए कुछ कार्यक्रम बनाता है तथा उन्हें लागू करता है । क्रियान्वयन के पश्चात् विकास प्रशासन कार्यक्रमों का विश्लेषण करता हैं जिसके आधार पर उन कार्यक्रमों में वांछित परिवर्तन किए जाते हैं। साथ ही एक उद्देश्य के पूरा होना पर विकास प्रशासन अपने लिए दूसरे लक्ष्य निर्धारित कर लेता है। अत: परिवर्तन विकास प्रशासन का अन्र्तनिहित गुण है और यदि विकास प्रशासन परिवर्तनोन्मुखी नही होगा तो यह अर्थहीन हो जाएगा।
- उद्देश्योन्मुखी :- विकास प्रशासन की दूसरी प्रमुख विशेषता यह है कि विकास प्रशासन उद्देश्य परक है अर्थात विकास प्रशासन अपने समक्ष कुछ लक्ष्य या उद्देश्य बनाता है जिन्हें वह एक समय सीमा के अन्तर्गत प्राप्त करने के लिए कुछ कार्यक्रम तथा योजनाएँ भी बनाता हैं। उदाहरण के तौर पर भारत में विकास प्रशासन अपने समक्ष अनेकों उद्देश्य लेकर चलता हैं जैसे कि गरीबी उन्मूलन, , बेरोजगारी दूर करना, आर्थिक विषमताओं को दूर करना , ग्रामीण विकास, कृषि विकास, औद्योगिक विकास महिला एवं बाल विकास आदि। वास्तव में विकास एक विवेकशील प्रक्रिया है इसलिए स्वभाविक ही है कि विकास प्रशासन भी तर्कयुक्त एंव विवेकशील होगा और एक विवेकशील प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि उसके कुछ लक्ष्य हों जिन्हें वह एक समय सीमा में प्राप्त करने के लिए प्रयास करे।
- परिणामोन्मुखी :- विकास प्रशासन केवल उद्देश्य निर्धारित करने, उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्यक्रम बनाने तथा उन्हें लागू करने तक ही सीमित नहीं हैं। अपितु यह प्रशासन ये जानने का भी प्रयास करता है कि विकास के इन कार्यक्रमों के लागू होने से अभीष्ट परिणाम निकले अथवा नहीं। अर्थात विकास प्रशासन अपने प्रयासों का सतत् रूप से विश्लेषण करता रहता है और अपने प्रयासों के परिणामों पर ध्यान केन्द्रित रखता है| यदि आवश्यकता हो तो विकास प्रशासन विश्लेषण के आधार पर प्राप्त परिणामों के मद्देनजर अपने कार्यक्रमों में आवश्यक परिवर्तन भी करता हैं।
- लोचशीलता :- विकास प्रशासन विकासशील देशों से सम्बन्धित है। और विकासशील देश विकसित होने के लिए प्रयास कर रहे हैं अर्थात वे विकास के दौर से गुजर रहे हैं। इस कारण इन देशों में सतत् या लगातार परिवर्तन हो रहे है। उनकी समस्याओं में भी लगातार परिवर्तन आ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर भारत में जो समस्याएं 1950 के दशक में थी वे 1960 या 1970 के दशक में नहीं थी । इसी प्रकार भारत में जो समस्याएं पिछली शताब्दी में थी वे वर्तमान शताब्दी में नहीे है; उन समस्याओं का स्थान दूसरी समस्याओं ने ले लिया है। क्योंकि विकास प्रशासन इन समस्याओं के अनूरूप अपने उद्देश्य निर्धारित करता है तथा कार्यक्रम बनाता व लागू करता है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि विकास प्रशासन लोचशील रहे।
- नियोजित विकास :- किसी भी देश में किसी भी समय समस्याएं असीमित होती है तथा संसाधन सीमित और यह तथ्य विकासशील देशें के सन्दर्भ में और भी सत्य हैं। अत: विकास प्रशासन, जो अपने समक्ष विकासशील देशों के चहुमुखी विकास का उद्देश्य लेकर चलता हैं, के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि संसाधनों के सर्वथा उचित तथा सर्वोतम प्रयोग के लिए योजनाबद्ध रूप से विकास करे।
- सृजनात्मक :- सुजन का तात्पर्य है ‘नये विचारों का विकास करना तथा उन्हें लागू करनां’। यदि इस रूप में देखा जाए तो विकास प्रशासन सृजनात्मक है। विकास प्रशासन सदैव ही प्रयासरत रहता है कि अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए वह कौन से कार्यक्रम अपनाए जिससे कि उन उद्देश्यों की पूर्ति कम से कम समय तथा कम से संसाधनों के द्धारा की जा सके। इस की पूर्ति के लिए विकास प्रशासन सदैव ही प्रविधियों, पद्धतियों, संस्थाओं, प्रणालियों, सरंचनाओं, कार्यो , व्यवहारों, नीतियों, कार्यक्रमों योजनाओं आदि के साथ नये-नये प्रयोग करता रहता हैं। तथा उन प्रयोंगें में सफलता मिलने पर उन्हें व्यापक,स्तर पर लागू भी करता है। उदाहरण के तौर पर भारत में विकास प्रशासन ने स्वतन्त्रता के पश्चात् गरीबी हटाने, बेरोजगारी उन्मूलन तथा ग्रामीण विकास के सन्दर्भ में कार्यक्रमों, पद्धतियों, प्रणालियों, सरंचनाओं आदि में अभी तक अनेकों प्रयोग किए हैं। ये सभी भारत में विकास प्रशासन की सृजनात्मक प्रकृति के द्योतक हैं।
- सहभागी प्रशासन :- विकास प्रशासन की प्रकृति सहभागिता पर आधारित है। अर्थात विकास प्रशासन अपने कार्यक्रमों के सफल क्रियान्वयन के लिए जन सहयोग को बढ़ावा देता है। वास्वत में कोई भी प्रशासन अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु जन सहभागिता पर आधारित हेाता है और विकास प्रशासन कोई अपवाद नही है। भारत में ग्रामीण विकास के लिए सन् 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किया गया किन्तु ग्रामीण विकास की दिशा में सरकार का यह प्रयास असफल रहा। बलवन्तराय मेहता समिति, जो कि इन कार्यक्रमों के मूल्यांकन के लिए गठित की गई थी , ने बताया कि इन कार्यक्रमों की असफलता का कारण इनमें जनसहभागिता का अभाव था। इस समिति ने यह भी सुझाव दिया कि जब तक सहभागिता को सुनिश्चित नहीं किया जाएगा, विकास की दिशा में कोई भी प्रयास सफल नहीं होगा।
- प्रबन्धकीय कार्यकुशलता :- विकास प्रशासन केवल राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विकास हेतु ही लक्ष्य नहीं बनाता अपितु वह विकास प्रशासन में लगे कार्मिक एंव अधिकारियों की क्षमताएं बढ़ाने का भी प्रयास करता है ताकि विकास कार्यक्रमों को सफलता एंव कार्यकुशलता के साथ लागू किया जा सके। यह विकास प्रशासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। क्योंकि यदि विकास प्रशासन से सम्बन्धित कार्मिक एंव अधिकारी कार्यकुशल नही होंगे तो विकास प्रशासन कितने भी अच्छे कार्यक्रम क्यों न बनाए, वे कार्यक्रम इच्छित या अभीष्ट परिणाम नहीं दे पांएगे तथा समय व संसाधनों दोनों का ही अपव्यय होगा जो कि एक विकासशील देश किसी भी अवस्था में नहीं चाहेगा। अत: विकास प्रशासन का एक प्रमुख लक्ष्य अपने कार्मिकों तथा अधिकारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करना होता हैं।
IX. जन-आकांक्षाओं के अनुरूप :- विकास प्रशासन सदैव ही अपने लाभार्थियों की आंकाक्षाओं एंव इच्छाओं कों केन्द्र बिन्दु बनाकर चलता है तथा अपने जो भी कार्यक्रम बनाता है वह जन-आंकाक्षाओं को ध्यान में रखकर बनाता है। जब विकास प्रशासन जन-आकांक्षाओं के अनुकूल कार्य नहीं करता है अथवा जन-आंकाक्षाओं के अनुरूप विकास कायर्क्र्म नियोजित एंव क्रियान्वित नहीं करता है, तो विकास प्रशासन को उसका मूल्य चुकाना पड़ता है तथा वह कार्यक्रम असफल सिद्ध होता है। उदाहरण के तौर पर भारत मे विकास प्रशासन के अनेको कार्यक्रमों की असफलता का एक प्रमुख कारण उन कार्यक्रमों में जन-आकांक्षाओं एंव अभिलाषाओं का समावेश न होना था।
X. आर्थिक विकास महत्वपूर्ण घटक :- विकास प्रशासन बहुउद्देश्यीय है अर्थात इसके विभिन्न आयाम या घटक हैं जैसे कि राजनैतिक विकास, सामाजिक विकास, मानवीय विकास, आर्थिक विकास, सांस्कृतिक विकास आदि। साथ ही विकास प्रशासन को इन सभी आयामों में सन्तुलन बना कर भी चलना होता है अन्यथा विकास असंतुलित होगा। किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि विकास प्रशासन के लिए सबसे महत्वपूर्ण आयाम आर्थिक विकास है । इसका कारण यह है कि आर्थिक विकास अन्य सभी विकास की आधारशिला है एंव आर्थिक विकास के अभाव में अन्य विकास अर्थहीन हो जाते है। उदाहरणार्थ यदि एक व्यक्ति की आधारभूत आवश्यकताएं (रोटी, कपड़ा और मकान) की पूर्ति नहीं होती तो राजनैतिक विकास (अधिकारों एंव कर्त्तव्यों का बोध आदि) अर्थहीन हो जाते हैं। इसी प्रकार एक व्यक्ति का सामाजिक स्तर उसकी आर्थिक सम्पन्नता पर निर्भर करता है।
इसी प्रकार कोई भी देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हुए बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता । एक देश को अपने अस्तित्व के लिए आर्थिक रूप से समृद्ध एंव सम्पन्न बनना आवश्यक है। “इसलिए विकास प्रशासन ऐसे प्रशासनिक संगठन की रचना करता है जो देश की आर्थिक प्रगति को संभव बनाता है तथा आर्थिक विकास के लिए मार्ग प्रस्तुत करता है।” यदि हम भारत में विकास कार्यक्रमों पर नजर डालें तो यह स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है। अत: ग्रामीण विकास के लिए जितने भी कार्यक्रम प्रशासन द्धारा बनाए गए उन सभी का मुख्य उद्देश्य ग्रामीणों को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाना रहा है। किन्तु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आर्थिक पहलू के अन्य पहलुओं से महत्वपूर्ण होने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि विकास के अन्य पहलू अर्थहीन हो जाते है।
व्यवहारिक रूप से विकास प्रशासन के क्षेत्र में वे सभी गतिविधियाँ सम्मिलित की जाती हैं जो कि एक देश के प्रशासन के द्वारा उस देश के विकास के लिए सम्पन्न की जाती हैं। अत: विकास प्रशासन के क्षेत्र के अन्तर्गत वे सभी गतिविधियाँ आती है जो सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक, कृषि , मानवीय , प्रशासनिक आदि क्षेत्रों से सम्बन्धित है एंव सरकार द्धारा संचालित हों । किन्तु इस प्रकार से विकास प्रशासन के क्षेत्र को परिभाषित करने का कोई भी प्रयास वैज्ञानिक रूप में सफल नहीं हो सकेगा । इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि विकास प्रशासन के क्षेत्र की कुछ सीमाएं निर्धारित की जाएं।
राष्ट्र निर्माण और सामाजिक गठबंधन/संसर्ग :- अपने उपनिवेशों में लोगों को संगठित होकर साम्राज्यवादी सत्ता को चुनौती देने से रोकने के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों ने दमनकारी नीति अपनाने के साथ-साथ और भी कई हत्थकण्डे अपनाए। इनमें से एक प्रमुख था ‘फूट डालो और राज करो’। इसके परिणमस्वरूप साम्राज्यवादी शक्तियों नें अपने उपनिवेशों में लोगों में सामाजिक असहिष्णुता की भावना फैलाई तथा उन्हें अनेकों आधारों पर बाँटकर आपस में लड़वा दिया ताकि इन उपनिवेशों के लोग असंगठित रहे और साम्राज्यवादी सत्ता और उसके द्धारा किए जा रहे शोषण को चुनौती देने के बारे में उन्हें सोचने का अवसर ही न मिले। उदाहरण के तौर पर आजादी से पूर्व अंग्रेजों ने भारत की जनता को धर्म, जाति, प्रदेश आदि अनेकों आधारों पर बांटकर आपस में लड़वा दिया। फलस्वरूप दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों को धार्मिक-सामाजिक तथा सांस्कृतिक असहिष्णुता विरासत में मिली। इसीलिए इन नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों के समक्ष न केवल आर्थिक विकास की समस्या थी अपितु राष्ट्र निर्माण व सामाजिक गठबन्धन या संसर्ग भी एक प्रमुख चुनौती थी जो कि विकास प्रशासन के क्षेत्र का एक अभिन्न अंग बन गया। विभिन्न नव-स्वतन्त्र या विकासशील देशों के प्रशासन ने पाया कि वहाँ का समाज अनेको आधारों पर बंटा हुआ था और वहां पर पुराने व संकुचित सामाजिक सम्बन्ध, जो कि भाई-भतीजावाद, जाति, धर्म, क्षेत्रवाद आदि से प्रभावित थे, विद्यमान थे। किन्तु इस प्रकार के सामाजिक सम्बन्ध राष्ट्र-निर्माण में बाधक होते हैं । इसलिए विकास प्रशासन इन सामाजिक संरचानाओं को तोड़कर नई सरंचनाएँ गठित करता है। साथ ही विकास प्रशासन विभिन्न वर्गो के मध्य सामाजिक- धार्मिक तनाव दूर करके सामाजिक सद्भावना लाने का प्रयास करता है ताकि एक स्वच्छ एंव स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके।
विकासात्मक नियोजन :- किसी भी अर्थव्यवस्था में सदैव ही संसाधन सीमित होते हैं तथा समस्यांए असीमित । यह तथ्य विकासशील देशों के सन्दर्भ में और भी अधिक सटीक है। क्योंकि विकासशील देश एक ओर जहाँ तकनीक और प्रौद्योगिकी के अभाव में अपने संसाधनों का समुचित दोहन नहीं कर पाते वहीं दूसरी ओर उनके समक्ष समस्याएं भी अधिक होती है। अत: यह नितान्त आवश्यक हो जाता है कि विकास प्रशासन सीमित संसाधनों तथा समय के समुचित उपयोग के लिए नियोजित विकास की शरण ले। अत: विकास प्रशासन समस्याओं समाधान के हेतु प्राथमिताएँ निर्धारित करता है और के संसाधनों की उपलब्धता के अनुसार उन्हें संसाधन आवंटित करता हैं दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि विकासात्मक नियोजन विकास प्रशासन का एक प्रमुख कार्य है तथा उसके क्षेत्र के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता हैं।
विकास कार्यक्रम :- विभिन्न क्षेत्रों सामजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आदि में निर्धारित उद्देश्यों के सन्दर्भ में विकास योजनाओं को लागू करने के लिए विकास प्रशासन अनेक कार्यक्रम तैयार करता है तथा उन्हें लागू करता है। अत: विकास कार्यक्रम भी विकास प्रशासन के क्षेत्र का अभिन्न अंग हैं। यदि हम भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तों भारतीय प्रशासन ने स्वतन्त्रत प्राप्ति के पश्चात् से आज तक विभिन्न वर्गो के विकास के लिए अनेकों कार्यक्रम चलाए है।
इन कार्यक्रमों में समाज के विभिन्न वर्गो को लक्ष्य बनाया गया तथा उनके विकास के लिए कार्य किया गया। उदाहरण के तौर पर सूखा सम्भावित क्षेत्रीय कार्यक्रम, कमाण्ड क्षेत्र विकास कार्यक्रम, पर्वतीय विकास कार्यक्रम, जनजाति विकास कार्यक्रम आदि क्षेत्रीय विकास के कार्यक्रम है। सघन कृषि क्षेत्रीय कार्यक्रम, समग्र कृषि विकास कार्यक्रम, अधिक उपज किस्म कार्यक्रम आदि कृषि उत्पादन के सम्बन्धित कार्यक्रम है। ग्रामीण निर्माण कार्यक्रम, ग्रामीण रोजगार के लिए सघन कार्यक्रम, काम के बदले अनाज कार्यक्रम, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण युवाओं के लिए स्वरोजगार प्रशिक्षण, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना प्रधानमंत्राी रोजगार योजना, स्वर्णजयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, सम्पूर्ण ग्राम रोजगार योजना आदि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध करवाने तथा गरीबी दूर करने के उद्देश्य से चलाये गये कार्यक्रम है।
संस्था निर्माण :- विकास-प्रशासन की गतिविधियां केवल योजनाओं, नीतियों व कार्यक्रमों के निर्माण तक ही सीमित नहीं है अपितु इनका सफल एंव प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन भी विकास प्रशासन का उत्तरदायित्व है। विकास नीतियों, योजनाओं व कार्यक्रमों को लागू करने के लिए विकास प्रशासन को कुछ सरंचनाओं की आवश्यकता होती है। इस उद्देश्य से विकास प्रशासन सर्वप्रथम पहले से विद्यमान संस्थाओं का सहारा लेता है। कई बार ये संस्थाए विकास कार्यक्रमों को लागू करने में सहायक होती है। किन्तु अनेकों अवसरों पर विकास प्रशासन को इन संस्थाओं में कुछ आवश्यक परिवर्तन भी करने पड़ते हैं ताकि ये संस्थाऐ विकास कार्यक्रमों के सफल क्रियान्वयन में सहायक बन सकें। इसके अतिरिक्त कई बार विकास प्रशासन को सर्वथा नई संस्थाए भी स्थापित करनी पड़ती हैं क्योंकि वर्तमान विद्यमान संस्थाएं किसी या किन्हीं विशेष विकास कार्यक्रम या कार्यक्रमों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन में सहायक सिद्ध नहीं हो पाती। उदाहरण के तौर पर भारत में विकास प्रशासन ने स्वतन्त्रता प्राप्ति से अब तक अनेकों विकास कार्यक्रम बनाए तथा लागू किए और इन कार्यक्रमों के उद्देश्यों की प्राप्ति व उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए अनेक संस्थागत परिवर्तन किए गए। इसके अतिरिक्त प्रशासन ने आवश्यकता पड़ने पर कई बार नई संस्थाओं का भी निर्माण किया। ग्रामीण विकास के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रत्येक जिले अन्तर्गत खण्ड स्तरीय प्रशासनिक ढ़ांचे का निर्माण इसका एक उदाहरण है। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रो के विकास के लिए बनाए एंव लागू किए जाने वाले सभी कार्यक्रमों में समन्वय लाने के लिए जिला स्तर एक पर संस्था जिला ग्रामीण विकास अभिकरण का गठन किया गया है इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि संस्था निर्माण भी विकास प्रशासन का एक महत्वपूर्ण कार्य है एंव इसके क्षेत्र में सम्मिलित किया जाता है।
पर्यावरण का अध्ययन :- तुलनात्मक प्रशासनिक समूह (CAG ) के विद्धानों द्धारा किये गये अध्ययनों से यह सिद्ध हो गया कि विकास प्रशासन और उसके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक पर्यावरण के मध्य सतत् रूप से अन्त: क्रिया होती है तथा दोनों एक दूसरे को गहनतम रूप से प्रभावित करते हैं। अत: विकास प्रशासन की प्रविधियां, पद्धतियां, व्यवहार तथा संरचनाएं इसके पर्यावरण से प्रभावित होते हैं। इसके साथ ही इन अध्ययनों से यह निष्कर्ष भी निकला कि कोई भी प्रशासनिक संस्था या विकास कार्यक्रम जो एक विशेष पर्यावरण (सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, संवैधानिक, राजनैतिक आदि) में प्रभावपूर्ण रहा है और अभिष्ट फल दे रहा है, आवश्यक नहीं कि यदि उसी रूप में उस कार्यक्रम या संस्था को दूसरे पर्यावरण में स्थापित किए जाने पर वह इच्छित परिणाम दे और सफल रहे। इसलिए यह आवश्यक है। कि विकास प्रशासन किसी अन्य देश या पर्यावरण के सफल परीक्षणों को अपनाने से पहले दोनों व्यवस्थाओं की परिस्थितिकी का अध्ययन करे। अत: पर्यावरण या सन्दर्भ या परिस्थितकी का अध्ययन विकास प्रशासन का एक महत्वपूर्ण व अभिन्न अंग है तथा विकास प्रशासन के क्षेत्र के अन्तर्गत इसके अध्ययन को आवश्यक रूप से सम्मिलित किया जाता है।
प्रो. रिग्स के अनुसार विकास प्रशासन के दो महत्वपूर्ण आयाम है। पहला, विकास प्रशासन उस प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है जिसके द्धारा प्रशासन सामाजिक सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनैतिक परिवर्तनों का संचालन करता है। दूसरा, यह प्रशासनिक प्रक्रियाओं, पद्धतियों सरचंनाओ, कार्यप्रणालियों, व्यवहारों आदि का भी अध्ययन करता है। पहले आयाम को ‘विकास के प्रशासन’ तथा दूसरे को ‘प्रशासनिक विकास’ की संज्ञा दी गई है। अत: प्रशासनिक विकास अर्थात विकास की समस्याओं के निवारण तथा बदलती हुई परिस्थितियों में प्रशासनिक पद्धतियों, कार्यवाहियों, प्रणालियों, व्यवहारों, प्रक्रियाओं, सरंचनाओं आदि में यथेचित परिवर्तन लाना विकास प्रशासन का महत्वपूर्ण भाग है। यदि विकास प्रशासन प्रशासनिक विकास को नजरअंदाज करता है तो विकास प्रशासन को इसका मूल्य अपने विकास कार्यक्रमों की असफलता के रूप में चुकाना पड़ता है। क्योंकि यदि प्रशासनिक अधिकारी, उनका व्यवहार, कार्यप्रणालियों तथा नियम, सरंचानाएँ आदि विकास की आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं होंगे तो विकास कार्यक्रम भले ही कितने भी युक्तिसंगत तथा प्रभावपूर्ण क्यों न हो, अभीष्ट परिणाम नहीं दे पायेंगें। इससे संसाधनों तथा समय दोनों की ही बर्बादी होगी जिसे कि एक विकासशील देश को रोकने का हर संभव प्रयास करना चाहिए।
अत: विकास प्रशासन को विकास का प्रभावशाली यन्त्र बनाने के लिए प्रशासनिक पदाधिकारियों के दृष्टिकोण में ,प्रशासकीय संगठनों सरंचनाओं के व्यवहार में तथा प्रशासन के ढ़ांचे में सतत् रूप से परिवर्तन की प्रक्रिया जारी रखना अति आवश्यक है। इसके लिए उन प्रशासकीय पदाधिकारियों जो कि सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनैतिक विकास की प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाते हैं, को समय-समय पर दृष्टिकोण प्रशिक्षण प्रदान करवाने की आवश्यकता होती है। इसके साथ-साथ प्रशासन की प्रक्रिया एंव प्रविधियों को भी सरल एंव विवेकपूर्ण बनाना आवश्यक है ताकि वह सकारात्मक परिवर्तन (विकास) की प्रक्रिया में बाधक न बने अपितु सहायक बने। अत: प्रशासनिक विकास भी विकास प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र का महत्वपूर्ण अंग है।
मानवीय तत्व या पक्ष का अध्ययन :- विकास प्रशासन के क्षेत्र में मानवीय पक्ष का अध्ययन अपरिहार्य है। क्योंकि लोक प्रशासन और इसलिए विकास प्रशासन का उददेश्य ‘सेवा करना’ है। यूं तो सभी प्रशासन के अध् ययन क्षेत्र में मानवीय तत्व का अध्ययन अवश्यंभावी है किन्तु विकास प्रशासन में इस तत्व का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि यह (विकास प्रशासन) अधिक संवेदनशील है। विकास प्रशासन को अनेकों बार समाज के उन नागरिकों के लिए कार्यक्रम बनाने तथा लागू करने होते हैं जो कि बाकि समाज से पिछड़े हुए हैं। जैसे कि भारत में विकास प्रशासन के लाभार्थियों में महिला एवं शिशु , अनुसूचित जाति एंव जनजातियों के लोग, पिछड़ी जातियों या वगोर्ं के लोग सम्मिलित है। ऐसे वगोर्ं को सेवित करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि विकास प्रशासन की प्रणाली तथा कार्यवाहियाँ मानवतापूर्ण हों। इसलिए “विकास प्रशासन में विविध समस्याओं को हमें मानवीय व्यवहार के परिप्रेक्ष्य मे देखना चाहिए। इस प्रकार हम इसके अन्र्तगत सामाजिक मानक, मूल्यों, व्यवहार, विचारों आदि का अध्ययन करते हैं।”
जन-सहभागिता :- कोई भी प्रशासन जनसहभागिता के अभाव में अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह प्रभावपूर्ण तरीके से नहीं कर सकता और विकास प्रशासन इसका अपवाद नहीं है। उदाहरणार्थ पुलिस प्रशासन जनसहयोग के अभाव में अपराधियों और कानून तोड़ने वालों को पकड़ने में असुविधा का अनुभव करता है व अपराधों को रोकने में पूरी तरह प्रभावी नहीं हो पाता । इसी प्रकार विकास प्रशासन भी जन सहयोग और जन-सहभागिता के अभाव मे अपने विकास कार्यक्रमों को पूरी तत्परता से लागू नहीं कर पाता है। यदि विकास कार्यक्रमों का निर्माण करते समय जन-सहभागिता को सुनिश्चित नहीं किया जाता तो जनता उन कार्यक्रमों को लागू करवाने में कोई सहयोग नहीं देती जिससे कि ये कार्यक्रम असफल हो जाते हैं। दूसरी ओर यदि कार्यक्रमों को बनाते समय लोगों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखा जाता है तथा उनके सहयोग से इनका निर्माण किया जाता है तो लोगों में ये भावना रहती है कि ये कार्यक्रम उनके अपने हैं तथा वे उन कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक लागू करवाने में पूरा सहयोग देते हैं जिससे कि कार्यक्रम अभिष्ट परिणाम देते हैं।
आरम्भ में भारत में विकास प्रशासन ने विकास कार्यक्रमों में जन-सहभागिता को अवांछित समझा और इन कार्यक्रमों के बनाने तथा लागू करने में जनसहयोग नहीं लिया। इसी कारण अनेकों विकास कार्यक्रम इच्छित परिणाम नहीं दे पाए। किन्तु पिछले कुछ समय से विकास प्रशासन ने विकास कार्यक्रमों के सफल क्रियान्वयन के लिए जन-सहभागिता के महत्व को समझते हुए अनेक विकास कार्यक्रमों में जन-सहयोग को बढ़ावा दिया है इसका ज्वलंत उदाहरण है “स्वजल धारा।” यह कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्रों मे पीने का पानी उपलब्ध करवाने के लिए चलाया जा रहा है। इस योजना के अन्तर्गत ग्रामीणों को अपने गाँव मे पीने का पानी उपलब्ध करवाने के लिए स्वंय योजना बनानी है तथा कुल लागत का 90% हिस्सा स्वंय देना है जबकि 10% भाग केन्द्रीय सरकार के द्वारा वहन किया जाता है।
विकास प्रशासन के क्षेत्र का वर्णन करने का उपरोक्त प्रयास किसी भी तरह से पूर्ण नही कहा जा सकता क्योंकि पहले तो विकास प्रशासन का क्षेत्र बहुत अधिक व्यापक है तथा दूसरे, समय समय पर इसके क्षेत्र मेंपरिवर्तन होता रहता है। वास्तव में राज्य की क्रियाओं के क्षेत्र में परिवर्तन के साथ-साथ विकास प्रशासन के क्षेत्र में भी परिवर्तन होता रहता है। उदाहरणार्थ, भारत में वर्तमान में राज्य का क्षेत्र संकुचित हुआ है। इसके अनुरूप विकास प्रशासन का क्षेत्र भी सकुंचित हुआ है।
1950 और 1960 के दशक में विकास प्रशासन लोक प्रशासन के एक उप-क्षेत्र के रूप में उभरा हैं|
जिन कारकों ने इसमें योगदान किया, वे हैं:
1. पारंपरिक लोक प्रशासन द्वारा प्रशासन के ‘माध्यमों’ के अध्ययन पर ज्यादा और प्रशासन के ‘लक्ष्यों’ के अध्ययन पर कम जोर ।
2. उपनिवेशवाद खार साम्राज्यवाद का समाप्ति क साथ एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका में नव-स्वाधीन विकासशील देशों का उदय ।
3. बहुपक्षीय तकनीकी मदद और वित्तीय सहायता द्वारा विकासशील देशों में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित विकास योजनाएँ ।
4. नवोदित विकासशील देशों तक अमेरिकी आर्थिक और तकनीकी सहायता योजनाओं का विस्तार ।
5. अमेरिकन सोसायटी फॉर पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के नेतृत्व में 1960 में कंपेरिटिव एडमिनिस्ट्रेशन ग्रुप (CAG) की स्थापना ।
6. विकासशील देशों में पश्चिमी मॉडलों की नाकामी के कारण, इन देशों की विकास संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नए स्वदेशी प्रशासनिक मॉडल की खोज करना ।
विकास प्रशासन की लाक्षणिक विशेषतायें :-
(i) बदलाव की दिशा अर्थात यथास्थिति बनाए रखने की बजाय सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाना|
(ii) लक्ष्य-निर्देशित अर्थात सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक लक्ष्यों में प्रगति हासिल करना (परिणाम-केन्द्रित) ।
(iii) प्रतिबद्धता अर्थात कार्य स्थितियों में विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ऊँचा उत्साह और प्रेरण ।
(iv) उपभोक्ता केन्द्रित अर्थात छोटे किसानों, बच्चों इत्यादि जैसे लक्ष्य समूहों की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करना (समय केन्द्रित) ।
(v) काल संबंधी आयाम अर्थात एक समय-सीमा में विकास कार्यक्रमों को पूरा करना (समय निर्देशित) ।
(vi) नागरिक सहभागिता केन्द्रित अर्थात विकास कार्यक्रमों के निर्धारण और लागू किए जाने में जन समर्थन और सहभागिता सुनिश्चित करना ।
(vii) संरचनात्मकता अर्थात विकास के लक्ष्यों को प्रभावशाली ढंग से प्राप्त करने के लिए प्रशासनिक संचनाओं, पद्धतियों और प्रक्रियाओं को प्रतिस्थापित करना और सुधारना ।
(viii) परिवेशीय परिप्रेक्ष्य अर्थात विकास नौकरशाही और उसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेश में संबंध कायम करना ।
(ix) प्रभावशाली तालमेल अर्थात विकास की जिम्मेदारियों में लगी कई विशिष्टीकृत इकाइयों और कार्यक्रमों के बीच तालमेल करना (एकीकरण की उच्च मात्रा) ।
(x) प्रतिक्रियात्मकता अर्थात जनता की जरूरतों और माँगों पर तुरंत कदम उठाना ।
जॉर्ज गाण्ट के अनुसार, विकास प्रशासन के चारित्रिक गुण इसके ‘उद्देश्यों’ (सामाजिक-आर्थिक प्रगति) इसकी ‘निष्ठाओं’ (जनता के प्रति जवाबदेही); और इसके ‘रुख’ (सकारात्मक, प्रयत्नशील और रचनात्मक आगम) से पता चलते हैं ।
विकास और विकास प्रशासन के प्रति विभिन्न उपागमों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है- प्रारंभिक उपागम और समकालीन उपागम ।
1. प्रारंभिक उपागम:- 1950 और 1960 के दशकों के दौरान, विकास के चिंतकों ने तीसरी दुनिया के देशों में विकास की व्याख्या पश्चिमी मॉडल की शब्दावली में की । वे मानते थे कि तीसरी दुनिया के देशों को पश्चिमी तरीके से ही विकास करना होगा । उन्होंने विकास कार्यों में एक राष्ट्र की प्रगति की माप के तौर पर सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) पर जोर डाला ।
ये शुरुआती उपागम, जो कुलीनवादी और जातीयता केंद्रित थे, निम्न रूप से हैं:
(i) आर्थिक उपागम:- ये उपागम बताते हैं कि तीसरी दुनिया के देशों को ज्यादा बचत करके उसे पूँजी के रूप में निवेश करना चाहिए । उन्होंने औद्योगीकरण द्वारा आर्थिक वृद्धि पर जोर दिया| विकास की यह रणनीति एडम स्मिथ, जे.एस.मिल, कार्ल मार्क्स, कींस, रोस्तोव इत्यादि के लेखन पर आधारित थी ।
(ii) विसरण उपागम:- एवरेट रोजर्स और आर.एस. एडारी द्वारा प्रतिपादित इस उपागम ने विकास की व्याख्या विसरण के अर्थों में की । यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें तीसरी दुनिया के देश पूँजी, तकनीक और सामाजिक संरचना पश्चिमी औद्योगीकृत देशों से लेते हैं ।
(iii) मनोवैज्ञानिक उपागम:- इन उपागमों की वकालत डेविड मैक्लेलैंड, एवरेट हेजेन, कुंकेल, इंकल्स और स्मिथ ने की । इन्होंने विकास की व्याख्या कुछ व्यक्तिगत गुणों की मौजूदगी के अर्थों में की जैसे लक्ष्य-प्रेरण, परिवर्तन-निर्देशित, कम आधिकारिक इत्यादि ।
(iv) निर्भरता सिद्धांत:- इस सिद्धांत के प्रमुख भाष्यकार आंद्रे गुंदर फ्रेंक ने दलील दी कि तीसरी दुनिया के देशों में हावी गरीबी, उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद के कारण पश्चिमी देशों पर उनकी निर्भरता का प्रतिबिंबन है ।
2. समकालीन उपागम:- 1970 और 1980 के दशकों से विकास के चिंतक विकास के परिप्रेक्ष्य-आधारित (न कि सार्वभौमिक) उपागमों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं । परिणामस्वरूप, विकास की कोई एक सम्पूर्ण विचारधारा नहीं है ।
अरविंद सिंघल के अनुसार, विकास को लेकर समकालीन सैद्धांतिक उपागम ये हैं:
(क) बहुलवादी, जो विकास के कई रास्तों को मान्यता देता है और
(ख) अपनी सांस्कृतिक अभिधारणाओं में कम पश्चिमी (कम कुलीनवादी, कम जातीयकेंद्रित और अधिक स्वदेशी) ।
उन्होंने समकालीन विकास उपागमों में कुंजीभूत तत्त्वों के रूप में निम्नलिखित तत्त्वों की पहचान की:
(i) विकास के फायदों के वितरण में पहले से ज्यादा समानता ।
(ii) व्यक्तियों, समूहों और समुदायों द्वारा आत्मविकास के कामों में सहायता देने के लिए जन सहभागिता, ज्ञान की साझेदारी और सशक्तिकरण ।
(iii) स्थानीय संसाधनों में निहित संभावना पर बल देते हुए, आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता ।
(iv) जनसंख्या वृद्धि को सीमित करना ।
(v) विकास को सहायता पहुंचाने के लिए ‘उचित’ तकनीक को ‘बड़ी’ आधुनिक तकनीकों के साथ एकरूप करना ।
अरविंद सिंघल समकालीन विकास प्रशासन सिद्धांत में दो रुझानों की भी पहचान करते हैं:
(i) ब्लू-प्रिंट से सीखने की प्रक्रिया- ब्लू प्रिंट उपागम सख्त और बंद-छोर वाला है जबकि सीखने का उपागम लचीला और खुले-छोर वाला है। अरविंद सिंघल टिप्पणी करते हैं- “ब्लू-प्रिंट उपागम जनता ‘के लिए’ उन्नत योजना निर्माण पर जोर डालता है। सीखने-की-प्रक्रिया उपागम जनता ‘के साथ’ योजना-निर्माण और एक विकास कार्यक्रम को प्रशासित करने की प्रक्रिया में इस काम को करने पर जोर देता है।”
(ii) उत्पादन-केंद्रित से जनता केंद्रित की ओर:- उत्पादन-केंद्रित उपागम निवेश पर लाभ को अधिकतम बनाने के लिए वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन पर जोर देता है । यह औद्योगिक विकास और शहरी विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करता है ।
इसके विपरीत जनता-केंद्रित उपागम (जिसे सहभागिता उपागम के नाम से भी जाना जाता है) जनता की जरूरतों, जनता के सशक्तिकरण, जिम्मेदार प्रशासन के विकास, अधिक सामाजिक-आर्थिक समानता, आत्म-निर्भरता, जन-सहभागिता, मानव विकास व सुस्वास्थ्य और पोषणीयता पर जोर दे |
आज नौकरशाही का रूप इतना विकसित हो चुका है कि इसे अनेक नामों से पुकारा जाने लगा है। आज नौकरशाही के लिए सिविल सेवा, मैजिस्ट्रेसी, अधिकारी तन्त्र, सरकारी निरंकुश तंत्र, विभागीय सरकार, स्थायी कार्यपालिका, विशिष्ट वर्ग गैर-राजनीतिक कार्यपालिका आदि नामों का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रमुख कारण देश और काल में अन्तर है। यूरोपीय देशों में यह शब्द साधारणत: नियमित सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों के समूह के लिए प्रयोग किया जाता है। नौकरशाही शब्द अंग्रेजी भाषा के 'Bureaucracy' शब्द का हिन्दी अनुवाद है। 'Bureaucracy' शब्द फ्रांसिसी भाषा के 'Bureau' शब्द से लिया गया है। इसका अर्थ होता है - ‘मेज प्रशासन’ या कार्यालयों द्वारा प्रबन्ध। आज नौकरशाही एक बदनाम सा शब्द हो गया है। इसी कारण प्रयोग अपव्यय, स्वेच्छाचारिता, कार्यालय की कार्यवाही, तानाशाही आदि के रूप में किया जाता है। नौकरशाही के बारे में अनेक विद्वानों ने अपनी अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं जो इसके अर्थ को स्पष्ट करती हैं।
नौकरशाही की परिभाषाएं :-
1. मैक्स वेबर के अनुसार-”नौकरशाही प्रशासन प्रशासन की ऐसी व्यवस्था है जिसमें विशेषज्ञता, निष्पक्षता तथा मानवता का अभाव होता है।”
2. पाल एच. एपेलबी के अनुसार-”नौकरशाही तकनीकी दृष्टि से कुशल कर्मचारियों का एक व्यवसायिक वर्ग है जिसका संगठन पद-सोपान के अनुसार किया जाता है और जो निष्पक्ष होकर राज्य का कार्य करते हैं।”
3. मार्शल ई डिमॉक के अनुसार-”नौकरशाही का अर्थ है-विशेषीकृत पद सोपान तथा संचार की लम्बी रेखाएं।”
4. कार्ल जे फ्रेडरिक के अनुसार-”नौकरशाही से अभिप्राय ऐसे लोगों के समूह से है जो ऐसे निश्चित कार्य करता है जिन्हें समाज उपयुक्त समझता है।”
5. विलोबी के अनुसार - “नौकरशाही के दो अर्थ हैं - विस्तृत अर्थ में “यह एक सेवीवर्ग प्रणाली है जिसके द्वारा कर्मचारियों को विभिन्न वर्गीय पद-सोपानों जैसे सैक्शन, डिविजन, ब्यूरो तथा विभाग में बांटा जाता है।” संकुचित अर्थ में-”यह सरकारी कर्मचारियों के संगठन की पद-सोपान प्रणाली है, जिस पर बाह्य प्रभावशाली लोक-नियन्त्रण सम्भव नहीं है।”
6. लास्की के अनुसार-”नौकरशाही का आशय उस व्यवस्था से है जिसका पूर्णरूपेण नियन्त्रण उच्च अधिकारियों के हाथों में होता है और इतने स्वेच्छाचारी हो जाते हैं कि उन्हें नागरिकों की निन्दा करते समय भी संकोच नहीं होता।”
7. एनसाइकलोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार-”जिस प्रकार तानाशाही का अर्थ तानाशाह का तथा प्रजातन्त्र का अर्थ जनता का शासन होता है, उसी प्रकार ब्यूरोक्रेसी का अर्थ ब्यूरो का शासन है।”
8. रॉबर्ट सी स्टोन के अनुसार-”नौकरशाही का शाब्दिक अर्थ कार्यालय द्वारा शासन अधिकारियों द्वारा शासन है। सामान्यत: इसका प्रयोग दोषपूर्ण प्रशासनिक संस्थाओं के सन्दर्भ में किया गया है।”
9. फिफनर के अनुसार-”नौकरशाही व्यक्ति और कार्यों का व्यवस्थित संगठन है जिसके द्वारा सामूहिक प्रयत्न रूपी उद्देश्य को प्रभावशाली ढंग से प्राप्त किया जा सकता है।”
10. ग्लैडन के अनुसार-”नौकरशाही एक ऐसा विनियमित प्रशासकीय तन्त्र है जो अन्तर सम्बन्धित पदों की शृंखला के रूप में संगठित होता है।”
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि नौकरशाही शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। साधारण रूप में कहा जा सकता है कि नौकरशाही स्थायी कर्मचारियों का शासन है जो न तो जनता द्वारा चुने जाते हैं और न ही इस कारण जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं, लेकिन देश की निर्णय-प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। एफ एम मार्क्स ने नौकरशाही को चार अर्थों में परिभाषित किया है- (i) एक विशेष प्रकार के संगठन में (ii) अच्छे प्रबन्धक में बाधक एक व्याधि के रूप में (iii) एक बड़ी सरकार के रूप में (iv) स्वतन्त्रता विरोधी के रूप में। एफ एम मार्क्स द्वारा बताए गए अर्थ उपरोक्त सभी परिभाषाओं को अपने में समेट लेते हैं। सत्य तो यह है कि यह शब्द आज बदनामी तथा बिगाड़ के कारण स्वेच्छाचारिता, अपव्यय, तानाशाही तथा कार्यालय की कार्यवाही तक सीमित होकर रह गया है। एफ एम मार्क्स इसी मत की पुष्टि करता है। लेकिन नौकरशाही एक ऐसी प्रशासकीय व्यवस्था भी है जो सरकार या प्रशासन के लक्ष्यों की बजाय प्रक्रिया पर अधिक बल देती है। अत: नौकरशाही का प्रयोग अच्छे व बुरे दोनों रूपों में होता है।
नौकरशाही का उदय बहुत पहले हुआ था। प्राचीन मिश्र, प्राचीन रोम, चीन के प्रशासन, तेहरवीं सदी में रोमन कैथोलिक चर्च में नौकरशाही के बीज मिलते हैं। किन्तु यह नौकरशाही सीमित प्रकृति की थी। 18वीं सदी में यह पश्चिमी यूरोप के देशों में विकसित रूप में उभरी। औद्योगिक क्रान्ति तथा आधुनिकीकरण के दौर में इसका बहुत तेज गति से विकास हुआ। धीरे-धीरे नौकरशाही चर्च, विश्वविद्यालय, आर्थिक संस्थानों, राजनीतिक दलों तक भी फैल गई। आज नौकरशाही पूरे विश्व में अपना अस्तित्व कायम कर चुकी है। इसके उदय व विकास के प्रमुख कारण हैं-
1. सर्वप्रथम इसका जन्म कुलीनतन्त्र में सक्रिय सरकार की रुचि के अभाव के कारण हुआ और धीरे धीरे सत्ता स्थायी अधिकारियों के हाथों में चली गई। सम्राट की यह इच्छा थी कि कुलीन वर्ग में शक्ति की बढ़ती लालसा को रोकने के लिए एक अधीनस्थ कर्मचारी तन्त्र का होना बहुत जरूरी है।
2. लोकतन्त्र के उदय के कारण कुलीनतन्त्र को गहरा आघात पहुंचा। बदलती परिस्थितियों ने विशिष्ट सेवा का कार्य करने के लिए विशेषज्ञों की आवश्यकता महसूस की और राज्यों के कल्याणकारी स्वरूप ने इसे अपरिहार्य बना दिया।
3. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उदय ने भी नौकरशाही को बढ़ावा दिया है। पूंजीवाद में अपने हितों की पूर्ति के लिए एक शक्तिशाली और सुव्यवस्थित सरकार की आवश्यकता महसूस हुई। इन सरकारों को नौकरशाही सिद्धान्तों का अनुकरण करना आवश्यक हो गया। इसी कारण पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने नौकरशाही सरकार को जन्म दिया।
4. पश्चिमी समाज में बुद्धिवाद के विकास ने भी सभी क्षेत्रों में लाभ प्राप्त के लिए संगठित कर्मचारी वर्ग की आवश्यकता अनुभव हुई। इसी से नौकरशाही का विकास हुआ। धीरे धीरे नौकरशाही विश्व के अन्य देशों में भी पहुंच गई।
5. जनसंख्या वृद्धि ने भी प्रशासनिक कार्यों में वृद्धि कर दी। विश्व में सभी सरकारें अपनी जनता की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े संगठनों को स्थापित करने लगी। इस प्रशासनिक वर्ग के लिए सरकारों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कार्य करना जरूरी हो गया। इसी कारण धीरे धीरे नौकरशाही का आधार मजबूत होता गया।
6. जटिल प्रशासनिक समस्याओं की उत्पत्ति ने अलग स्थाई कर्मचारी वर्ग की आवश्यकता महसूस कराई। औद्योगिक क्रांति के बाद आई जटिल प्रशासनिक समस्याओं ने नौकरशाही के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सभी सरकारों के लिए जटिल प्रशासनिक कार्यों को निष्पादित करने के लिए नियमित संगठनों की स्थापना करना जरूरी हो गया।
इस प्रकार नौकरशाही का उदय एक शासन के सामने आई बहुत प्रशासनिक समस्याओं से निपटने के लिए हुआ। आज नौकरशाही एक ऐसे संगठन के रूप में अपना स्थान बना चुकी है कि इसके बिना किसी देश की सरकार अपने प्रशासनिक कार्यों का निष्पादन नहीं कर सकती। आधुनिक संचार के साधनों ने प्रशासनिक समस्याओं को और अधिक जटिल बना दिया है। नौकरशाही के वर्तमान उत्तरदायित्वों का अभी भविष्य में और अधिक विकसित होना अपरिहार्य है। इसी कारण नौकरशाही का विकास भी अवश्यम्भावी है।
1. कार्यों का तर्कपूर्ण विभाजन - नौकरशाही में प्रत्येक पद पर योग्य व्यक्ति को ही बिठाया जाता है ताकि वह अपने कार्यों व लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त कर सके। अपने कार्यों को पूरा करने के लिए उसे कानूनी सत्ता प्रदान की जाती है। उसे अपने कार्यों को पूरा करने के लिए अपनी सत्ता का पूर्ण प्रयोग करने की छूट होती है।
2. तकनीकी विशेषज्ञता - नौकरशाही का जन्म ही तकनीकी आवश्यकता के कारण होता है। नौकरशाही में प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने कार्यों में दक्ष होता है। तकनीकी दक्षता के अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग कार्य सौंपे जाते हैं।
3. कानूनी सत्ता - प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्यों के निष्पादन के लिए अधिकारियों व कर्मचारियों को कानूनी शक्ति का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता होती है।
4. पद-सोपान का सिद्धान्त - नौकरशाही में कार्यों के निष्पादन व प्रकृति के अनुसार कर्मचारियों के कई स्तर बना दिए जाते हैं। सबसे ऊपर महत्वपूर्ण अधिकारी होते हैं। कर्मचारी वर्ग सबसे निम्न स्तर पर होता है। इस सिद्धान्त के द्वारा सभी को ‘आदेश की एकता’ के सूत्र में बांधा जाता है।
5. कानूनी रूप से कार्यों का संचालन - नौकरशााही में सरकारी अधिकारी कानून व नियमों की मर्यादा में ही अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हैं। इससे प्रशासन में कठोरता आ जाती है। नौकरशाही का संचालन ‘कानून के शासन’ के द्वारा ही होता है। इसलिए उन्हें कानूनी सीमाओं में बंधकर ही अपना कार्य करना पड़ता है। इससे प्रशासन में लोचहीनता भी पैदा हो जाती है।
6. राजनीतिक तटस्थता - नौकरशाही में राजनीतिक तटस्थता का महत्वपूर्ण गुण पाया जाता है। इसमें अधिकारियों को राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं होते। प्रशासनिक अधिकारियों को मत देने का तो अधिकार प्राप्त होता है, लेकिन सक्रिय राजनीतिक सहभागिता से बचना पड़ता है।
7. योग्यता-प्रणाली - नौकरशाही में प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों का चयन योग्यता के आधार पर होता है, सिफारिश के आधार पर नहीं। उनकी नियुक्ति के लिए निश्चित योग्यताएं रखी जाती हैं और प्रतियोगिता परीक्षाओं का संचालन एक उच्च सेवा आयोग के माध्यम से होता है।
8. निश्चित वेतन तथा भत्ते - नौकरशाही के अन्तर्गत सभी कर्मचारियों व अधिकारियों को निश्चित वेतन व भत्ते मिलते हैं। नौकरी से रिटायर होने के बाद पैंशन का भी प्रावधान है।
9. पदोन्नति के अवसर - नौकरशाही में सभी कर्मचारियों व अधिकारियों को अपनी योग्यता व प्रतिभा विकसित करने के पूरे अवसर प्राप्त होते हैं। इसमें लोकसेवकों को परिश्रम व मेहनत के बल पर अपना पद विकसित करने के पूरे अवसर मिलते हैं।
10. निष्पक्षता - नौकरशाही में लोकसेवकों को अपना कार्य बिना भेदभाव के करना पड़ता है। उनकी दृष्टि में सभी लोग चाहे वे अधिक प्रभावशाली हों या कम, बराबर होते हैं।
11. व्यवसायिक वर्ग - नौकरशाही में लोकसेवकों का वर्ग एक व्यवसायिक वर्ग होता है। वह अपने कार्यों का निष्पादन जन सेवा के लिए न करके व्यवसाय समझकर ही करता है।
12. लालफीताशाही - नौकरशाही में आवश्यकता से अधिक औपचारिकता को अपनाया जाता है। इससे प्रशासनिक निर्णयों में देरी होती है और इसी कारण नौकरशाही को बदनामी सहनी पड़ती है। इसमें अनौपचारिक सम्बन्धों का कोई स्थान नहीं होता। समस्त कार्य नियमानुसार परम्परा के अनुसार ही किया जाता है। इसमें कार्य-अनुशासन पर अधिक जोर देने के कारण लाल-फीताशाही को बढ़ावा मिलता है।
नौकरशाही के संगठन के स्वरूप; प्रक्रिया दृष्टिकोण आदि पर सम्बन्धित देश और काल का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। उस देश की तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक परिस्थितियां उसके स्वरूप को निर्धारित करती हैं। एफ0एम0 मार्क्स ने नौकरशाही के चार प्रकारों का उल्लेख किया है। नौकरशाही के ये चार प्रकार हैं :-
1. अभिभावक नौकरशाही
2. जातीय नौकरशाही
3. प्रश्रय या संरक्षक नौकरशाही
4. योग्यता पर आधारित नौकरशाही
1. अभिभावक नौकरशाही :- अभिभावक नौकरशाही में नौकरशाहों द्वारा जनता के साथ एक अिभाभावक जैसा आचरण अमल में लाया जाता है।यह नौकरशाही सदैव जन-साधारण के हितों के लिए चिन्तित रहती है। इसके समस्त क्रिया-कलाप जनहित पर ही आधारित होते हैं। इस नौकरशाही में नौकरशाहों को समुदाय के न्याय तथा जनहित का संरक्षक माना जाता है। इस प्रकार की नौकरशाही प्लेटों के आदर्श राज्य में प्रकट होती है। 960 ई0 में चीन में, प्रशा में 1640 तक अभिभावक नौकरशाही का ही प्रचलन था। प्रशा की नौकरशाही की विशेषताएं थी :-
1. राज्य के हित का समर्पित।
2. एकीकृत एवं संतुलित प्रशासनिक व्यवस्था।
3. शिक्षित व योगय प्रशासक।
4. राजतन्त्र के साथ साथ मध्यवर्गीय गुणों का समन्वय।
5. सजग राजतन्त्र के मूल्यों का पोषण।
6. अन-भावादेशों के प्रति उत्तरदायित्व का अभाव।
इस प्रकार प्रशा की नौकरशाहेी एक श्रेष्ठ नौकरशाही थी। मार्क्स के अनुसार-”राजा की पक्षपाती एवं उसी के माध्यम से जनता की सेवा करने वाली प्रशा की प्रारम्भिक नौकरशाही इस बात पर गर्व कर सकती है कि यह अपने उद्देश्य में अलोचशील, ईमानदार, जनता के साथ सम्बन्धों में सत्तावादी एवं सद्भावपूर्ण तथा बाहरी आलोचनाओं से अप्रभावित बनी रही।” इस नौकरशाही में अधिकारियों का प्रमुख कर्तव्य लोगों के सामने एक आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करना था। इसी कारण उनका चुनाव योग्यता के आधार पर ही होता था और उन्हें शास्त्रीय पद्धति के अनुसार प्रशिक्षण दिया जाता था। लेकिन इस नौकरशाही में प्रमुख दोष यह आ गया कि निरंकुशता को ही अपना आदर्श मानने लगी और परम्परावादी व रुढ़िवादी बन गई। आज इस नौकरशाही का प्रमुख दोष इसका निरंकुश आचरण ही है।
2. जातीय नौकरशाही :- यह नौकरशाही जातीय पद्-क्रम पर आधारित होती है। इस नौकरशाही का जन्म तब होता है, जब प्रशासकीय तथा सत्ता शक्ति एक ही वर्ग के हाथों में होती है। इस प्रकार की नौकरशाही में वे व्यक्ति ही उच्च प्रशासनिक पदों को प्राप्त कर लेते हैं जो उच्च जाति या शासक-वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं। इस नौकरशाही में ऐसी योग्यताओं का निर्धारण किया जाता है जो उच्च वर्ग या जाति में ही पाई जाती हैं। विलोकी ने इसे कुलीनतन्त्रीय नौकरशाही कहा है। इसमें उच्च पदों के लिए योग्यताओं को जातिगत प्राथमिकताओं से जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार की नौकरशाही प्राचीन समय में रोमन साम्राज्य तथा आधुनिक युग में जापान के मेजी संविधान के अन्तर्गत कार्यरत नौकरशाही का रूप है। 1950 में फ्रांस में भी इसी तरह की नौकरशाही का विकसित रूप था। इस नौकरशाही की प्रमुख विशेषताएं हैं :-
1. शैक्षिक योग्यताओं की अनिवार्यता।
2. पद और जाति में अन्तर्सम्बन्ध।
3. सेवा या पद का परिवार से जुड़ जाना।
4. दोषपूर्ण समाज व्यवस्था के प्रतीक।
इस प्रकार की नौकरशाही का विकसित रूप प्राचीन भारत में भी प्रचलित था। प्राचीन काल में ब्राह्मणों व क्षत्रियों को उच्च प्रशासनिक पद सौंपे जाते थे। इस नौकरशाही ने सामाजिक वर्ग विभेद को जन्म दिया है। यह वर्ग विशेष के हितों की पोषक होने के कारण सामाजिक विषमताओं की जननी मानी जाती है।
3. संरक्षक या प्रश्रय नौकरशाही :- इस नौकरशाही का दूसरा नाम लूट प्रणाली भी है। इस प्रकार की नौकरशाही को राजनीतिक लाभ पर आधारित माना जाता है। चुनाव में विजयी राजनीतिज्ञ अपने समर्थकों को उच्च राजनीतिक व प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करके प्रश्रय नौकरशाही को जन्म देते हैं। इस नौकरशाही में नियुक्ति का आधार योग्यता की बजाय राजनीतिक सम्बन्ध होते हैं। अमेरिका को इस नौकरशाही का जनक माना जाता है। वहां पर प्रत्येक नवनिर्चाचित राष्ट्रपति पुराने पदाधिकारियों को सेवामुक्त करके उच्च पदों पर राजनीतिज्ञ समर्थकों को नियुक्त करता था। यह नौकरशाही लम्बे समय तक अमेरिका में अपना प्रभाव बनाए रही। राष्ट्रपति जैक्सन ने भी इसी नौकरशाही का पोषण किया था। 19वीं सदी से पहले ब्रिटेन में भी यह नौकरशाही प्रचलित थी। आगे चलकर इसमें अनेक दोष उत्पन्न हो गए। इसके कारण अमेरिका व ब्रिटेन ने इसका त्याग कर दिया।
संरक्षक नौकरशाही की विशेषताएं
1. इसमें कार्मिकों को भर्ती के समय शैक्षिक व व्यावसायिक योग्यताओं का कोई महत्व नहीं होता।
2. यह नौकरशाही सत्ताधारी दल के प्रति प्रतिबद्धता का पालन करती है।
3. यह नौकरशाही जनहित की अपेक्षा राजनीतिक नेतृत्व का समर्थन करती है।
4. इसमें राजनीतिक तटस्थता का अभाव पाया जाता है।
5. यह पक्षपातपूर्ण, भ्रष्ट, भाई-भतीजावाद पर आधारित होती है।
6. इसमें लोकसेवकों का कार्यकाल अनिश्चित होता है। वे अपने पद पर सत्तारूढ़ दल के सरंक्षण तक ही रह सकते हैं। सत्तारूढ दल के शासन छोड़ते ही उन्हें भी अपना पद त्यागना पड़ता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि संरक्षक नौकरशाही राजनीतिक तटस्थता का त्याग करके शासक वर्ग के हितों की पोषक बनकर कार्य करती है। इसलिए इसमें अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं जैसे - योग्यता का अभाव, अनुशासनहीनता, अधिकारियों का लालचीपन, पक्षपातपूर्ण, सेवाभाव का अभाव, राजनीतिक तटस्थता का अभाव आदि।
4. योग्यता पर आधारित नौकरशाही :- उपरोक्त तीनों नौकरशाहियों की कमियों के परिणामस्वरूप जिस नई नौकरशाही का उदय हुआ, वह योग्यता पर आधारित नौकरशाही ही है। इसमें लोकसेवकों की नियुक्ति योग्यता व मेरिट के हिसाब से की जाती है। इसमें लोकसेवकों के चयन के लिए निष्पक्ष भर्ती परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है। इसमें लोकसेवकों पर शासक-वर्ग का कोई दबाव नहीं रहता। इसमें सदैव जन-कल्याण को ही महत्व दिया जाता है। इसी कारण आज विश्व के अधिकांश देशों में इसी प्रकार की नौकरशाही का प्रचलन है। योग्यता के आधार पर नियुक्तियां तथा नियुक्तियों के लिए लिखित परीक्षाएं| इस नौकरशाही की विशेषता प्रमुख है :-
1. कार्यकाल का निश्चित होना।
2. निर्धारित वेतन व भत्ते।
3. कानून के शासन पर आधारित।
4. निष्पक्ष व निर्भयतापूर्ण कार्य-सम्पादन।
5. राजनीतिक तटस्थता।
6. संविधान व अपने कर्तव्यों के प्रति वचनबद्धता।
7. जन-हितों की पोषक।
भारत में नौकरशाही का यही रूप प्रचलित है।
आज के लोकतन्त्रीय युग में शासन को चलाने के लिए नौकरशाही की अहम् भूमिका है। कल्याणकारी राज्य के रूप में आज सरकार के कार्य इतने अधिक हो गए हैं कि नौकरशाही की मदद के बिना उन्हें पूरा करना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव सा भी है। जौसेफ चैम्बरलेन का कहना सत्य है कि लोकसेवकों के बिना सरकार का काम नहीं चल सकता। राजनीतिक कार्यपालिका को इतना ज्ञान नहीं हो सकता कि वह कानून बनाकर उन्हें लागू भी कर दे। राजनीतिक कार्यपालिका को प्रशासन चलाने के लिए नौकरशाही की सहायता अवश्य लेनी पड़ती है। यह सत्य है कि नौकरशाही के विकास के बाद प्रशासन अधिक कार्यकुशल, विवेकशील और संगत बना है। भारत जैसे संसदीय प्रजातन्त्रीय देश में तो नौकरशाही एक ऐसा मूल्य है जिसका अस्तित्व में रहना अपरिहार्य है। यदि कभी इस मूल्य का पतन हुआ तो नौकरशाही भी इस दोष से बच नहीं सकेगी। वास्तव में समाज में व्यवस्था बनाए रखने, उसे एकता के सूत्र में बाँधने और विकास को गति देने में नौकरशाही की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसी कारण आज नौकरशाही के प्रभाव से बच पाना मुश्किल है। इसकी भूमिका का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है :-
1. नीतियों के निर्माण में परामर्शदाता के रूप में भूमिका अदा करना- विश्व के सभी प्रजातन्त्रीय देशों में नीति-निर्माण में नौकरशाही राजनीतिज्ञों की बहुत मदद करता है। राजनीतिज्ञों को प्रशासन की बारीकियों का कोई ज्ञान नहीं होता। इसी कारण वे नौकरशाही द्वारा मदद की अपेक्षा रखते हैं। नीतियों के निर्माण हेतु आवश्यक सूचनाएं, आंकड़े, तकनीकी शब्दावली, प्रक्रिया प्रणाली आदि सम्बन्धी ज्ञान लोकसेवकों द्वारा ही राजनीतिज्ञों तक पहुंचाया जाता है। प्रदत्त-व्यवस्थापन की शक्ति का प्रयोग करते हुए प्रशासक वर्ग नीति-निर्माण में राजनीतिक कार्यपालिका की परामर्शदाता के रूप में मदद करता है।
2. नीतियों व निर्णयों का क्रियान्वयन करना - सरकार या राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा निर्धारित नीतियों, निर्णयों, योजनाओं आदि के क्रियान्वयन का प्रमुख उत्तरदायित्व नौकरशाही पर ही है। यह भूमिका नौकरशाहों को राजनीति के अभिकर्ता सिद्ध करती है। नीति चाहे प्रशासक-वर्ग की इच्छाओं के प्रतिकूल भी हो, लेकिन उसका क्रियान्वयन करना प्रशासकों का प्रमुख उत्तरदायित्व है। यदि नीति को क्रियान्वित करते समय जरा सी भी लापरवाही की जाती है तो नीति-निर्माण का उद्देश्य ही नष्ट हो सकता है। इसलिए उत्तरदायी ढंग से प्रशासक वर्ग नीतियों का क्रियान्वयन करता है। भारत में कल्याणकारी राज्य के रूप में सरकार द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रम, योजनाएं, परियोजनाएं, नीतियां आदि भारतीय लोकसेवकों द्वारा क्रियान्वित की जा रही हैं। इस प्रकार नीतियों के प्रभावकारी क्रियान्वयन में नौकरशाही की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।
3. विकास अभिकर्ता के रूप में - विकासशील देशों में नौकरशाही एक ऐसे योग्य एवं प्रबुद्ध वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जो प्राय: राजनीतिज्ञ स्तर से उच्च बौद्धिक स्तर का होता है। बदलती सामाजिक परिस्थितियों, सामाजिक मूल्यों और आर्थिक एवं अन्य आवश्यकताओं को पहचान कर उसके अनुरूप आधुनिक समाज का निर्माण करना नौकरशाही का प्रमुख उत्तरदायित्व है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच रहन-सहन का जो अन्तर पाया जाता है उसे दूर करना तथा अन्य विकास कार्यों को ग्रामीण स्तर तक विकेन्द्रित करना आज नौकरशाही का ही उत्तरदायित्व है। इसलिए आज विकासशील देशों के सन्दर्भ में नौकरशाही विकास अभिकर्ता के रूप में कार्य कर रही है।
4. जनसेवक की भूमिका - विकासशील देशों मेंं सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में आए परिवर्तनों ने लोकसेवकों की जनसेवकों के रूप में भूमिका को अपरिहार्य बना दिया है। उसकी विकास अभिकर्ता के रूप में आम जनता तक पहुंच उसे जन सेवक के रूप में कार्य करर्य करने को बाध्य करती है। जनता को परामर्श देना, जनता को शिक्षित करना, जनता की मदद करना, जन-सहयोग प्राप्त करना आदि लोकसेवकों के प्रमुख कार्य बन गए हैं। विकासशील देशों में सरकारों की भूमिका के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसी कारण आज लोकसेवमों की जनसेवक के रूप में भूमिका अधिक लोकप्रिय हो रही है।
5. हित स्पष्टीकरण तथा समूहीकरण - जनता की विभिन्न मांगें प्रशासन के माध्यम से ही राजनीतिकों तक पहुंचती हैं। हितों का स्पष्टीकरण करके सरकार तक जनता की मांगों को सामूहिक रूप में पहुंचाना आज प्रशासकों का ही काम हो गया है। परस्पर विरोधी हितों में सामंजस्य स्थापित करके संयुक्त मांग के रूप में तैयार करना प्रशासन का ही कार्य है। इसी कारण नौकरशाही आज हित स्पष्टीकरण व समूहीकरण की प्रबल प्रवक्ता मानी जाती है। इस दृष्टि से प्रशासनक सरकार व जनता के बीच कड़ी का काम करते हैं।
6. नियमों की व्याख्या करना - प्रदत्त व्यवस्थापन की शक्ति के अन्तर्गत आज नौकरशाही नियम निर्माण की व्यापक शक्ति का प्रयोग भी करती है। वह आवश्यकतानुसार नियमों की व्याख्या करके न्यायिक अभिनिर्णयों को मूर्तरूप देती है।
7. प्रतिद्वन्द्वी हितों में समन्वय करना - विकासशील देशों में जटिल सामाजिक व्यवस्थाओं के अन्तर्गत समाज के विभिन्न सम्प्रदायों, जातियों, धर्मों, भाषाओं, रीतियों, परम्पराओं, राज्यों, प्रान्तों आदि के रूप में पाई जाने वाली विभिन्नताओं में हितों का टकराव होना आम बात है। इस टकराव को रोकना और विरोधी हितों में समन्वय कायम करना प्रशासन का प्रमुख उत्तरदायित्व है। इसी पर सामाजिक व्यवस्था व राजनीतिक व्यवस्था का कुशल संचालन निर्भर है।
8. नियोजन - नियोजन का किसी भी देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है। राजनीतिक कार्यपालिका को योजना बनाने के लिए आंकड़ों की आवश्यकता पड़ती है। इन आंकड़ों को विभिन्न विभागों के प्रशासनिक अधिकारी ही उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार नियोजन में भी प्रशासन या नौकरशाही की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है।
9. विधेयकों का प्रारूप तैयार करना - आज सभी देशों में कानून निर्माण के लिए प्रारूप तैयार करते समय नौकरशाही की मदद की आवश्यकता पड़ती है। प्राय: राजनीतिज्ञों के अनुभवहीन और अपरिपक्व होने के कारण कानून का प्रारूप तैयार करने में विधि विभाग की नौकरशाही का ही सहारा लिया जाता है। नौकरशाही के सहयोग के बिना कानून का प्रारूप तैयार नहीं हो सकता।
10. संविधानिक आदर्शों का क्रियान्वयन - प्रत्येक देश के संविधान में नागरिकों को जो मौलिक अधिकार व स्वतंत्रताएं प्रदान की गई हैं, उनको कायम रखना नौकरशाहेी का ही प्रमुख उत्तरदायित्व है। सामाजिक न्याय का आदर्श प्राप्त करने में सरकार की मदद संविधानिक आदर्शों को कायम रखकर नौकरशाही ही करती है।
11. लोक सम्पर्क व संचार कार्य - आज के लोकतन्त्रीय युग में नौकरशाही जनता से निरन्तर सम्पर्क बनाए रखती है। वह समाज में होने वाली घटनाओं और विचारधाराओं से शासन-तन्त्र को अवगत कराती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि नौकरशाही एक ऐसी सामाजिक साधन है जो राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने में सरकार की मदद करता है, नीति-निर्धारण व उसके क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, विरोधी हितों में सामंजस्य पैदा करता है तथा विकास अभिकर्ता के रूप में आधुनिकीकरण को सम्भव बनाता है। शासनतन्त्र की सफलता कुशल प्रशासन-तन्त्र पर ही निर्भर काती है। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि नौकरशाही को जनसेवक की भूमिका अधिक से अधिक अदा करनी चाहिए। उसे राजनीतिक तटस्थता को बरकरार रखकर ही संविधानिक आदर्शों के प्रति समर्पित होकर कार्य करने रहना चाहिए। इसी में उसकी भूमिका का औचित्य है।
यद्यपि नौकरशाही सामाजिक विकास को गति देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, लेकिन फिर भी इसको आलोचना का शिकार होना पड़ा है। इसकी आलोचना के प्रमुख आधार हैं:-
1. नौकरशाही में औपचारिकता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इससे अधिकारी गण मशीनी मानव बनकर रह जाते हैं और उनकी आत्म-निर्णय की शक्ति का ह्रास हो जाता है।
2. अनावश्यक व लम्बी औपचारिकता के कारण लालफीताशाही का जन्म होता है। इसका अर्थ होता है -कार्य में विलम्ब। कई बार तो जब निर्णय प्रभावी होते हैं, उनके पीछे मूल निहितार्थ ही बदल चुका होता है।
3. नौकरशाही साधारणत: जनसाधारण की मांगों की उपेक्षा ही करती है। जनसाधारण परिवर्तन का पक्षधर होता है, जबकि नौकरशाही परिवर्तन की विरोधी होने के कारण परम्परावादी होती है।
4. नौकरशाही में अपने कार्य के प्रति अनुत्तरदायित्व की भावना पाई जाती है, क्योंकि नीतियों के क्रियान्वयन की सफलता व असफलता का सारा श्रेय राजनीतिक कार्यपालिका को ही जाता है।
5. नौकरशाही से एक ऐसे शक्तिशाली विशिष्ट वर्ग का जन्म होता है हो शक्ति प्रेम का भूखा होता है और निरंकुशता की प्रवृत्ति को जन्म देता है।
6. नौकरशाही प्रशासनिक कार्य-व्यवहार को अधिक जटिल बना देती है। इसमें जानबूझकर नियमों की तोड़- मरोड़ कर व्याख्या की जाती है।
7. नौकरशाही लकीर के फकीर के रूप में ही रूढ़िवाद का समर्थन करती है।
8. नौकरशाही का रूप अमानवीय होता है क्योंकि यह कानून के शासन के सिद्धान्त के आधार पर ही कार्य करती है। इसमें अधिकारियों के व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के लिए कोई स्थान नहीं होता है।
मैक्य वेबर का नौकरशाही सिद्धान्त :- नौकरशाही के बारे में माक्र्स, लेनिन, ट्राटस्की, लौराट, रिजी, वर्नहम, मिलोवन पिलास, मैक्स स्बैकटमैन, जैसिक कुरुन मैक्स वेबर आदि ने अपने अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इन सभी सिद्धान्तों में वेबर का सिद्धान्त अधिक तर्कपूर्ण व व्यवस्थित है। इसी कारण नौकरशाही का व्यवस्थित अध्ययन जर्मनी के समाजशास्त्री मैक्स वेबर से ही प्रारम्भ माना जाता है। यद्यपि प्रारम्भ में वेबर के नौकरशाही के सिद्धान्त की आलोचना भी हुई, लेकिन धीरे धीरे वह इतना लचीला बन गया कि उसे आदर्श सिद्धान्त की संज्ञा दी गई। वेबर ने अपना यह सिद्धान्त अन्य सिद्धान्तों के कठोरता के कारण विकसित किया और धीरे धीरे यह सिद्धान्त विकासशील देशों में अधिक लोकप्रिय होता गया।
मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक 'Economy and society' तथा 'Parliament and Government in the Newly Organized Germany' में इस सिद्धान्त का वर्णन किया है। यद्यपि मैक्स वेबर ने इन पुस्तकों में कहीं भी प्रत्यक्ष रूप में नौकरशाही का अलग सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया है। उसका नौकरशाही का सिद्धान्त इन पुस्तकों में शक्ति, प्रभुत्व तथा सत्ता पर दिए गए विचारों में विद्यमान है। वेबर ने सत्ता का वर्गीकरण वैधता के आधार पर किया और इसी आधार पर संगठनों का भी वर्गीकरण किया। वास्तव में मैक्स वेबर का यह सिद्धान्त सत्ता या प्रभुत्व के सिद्धान्त पर ही आधारित है। उसने वैधानिक सत्ता को ही नौकरशाही माना है। विधिक सत्ता से पोषित एवं समर्थित नौकरशाही ही संगठन का सबसे अच्छा रूप है। इस प्रकार उसने नौकरशाही का प्रयोग एक निश्चित प्रकार के प्रशासनिक संगठन को बताने के लिए किया है।
नौकरशाही को विधिक सत्ता पर आधारित करते हुए वेबर ने कहा है कि इस सत्ता में एक विधि संहिता का निर्माण करके संगठन के सदस्यों को उसका पालन करना अनिवार्य कर दिया जाता है। प्रशासन कानून के शासन पर ही कार्य करता है और जो व्यक्ति सत्ता का प्रयोग करता है, वह अवैयक्तिक आदेशों का ही पालन करता है। विधिक सत्ता में वफादारी सत्ता प्राप्त व्यक्ति के प्रति न होकर अवैयक्तिक विधि या कानून के प्रति ही होती है। इसी प्रकार नौकरशाही भी निष्पक्ष, कार्य विशेषज्ञ तथा अवैयक्तिक होती है। मालटिन एलबरो का कहना है कि नौकरशाही नियुक्त किए गए योग्य प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों का समूह है जिसका विस्तार राज्य, चर्च, राजनीतिक दल, मजदूर संघ, व्यावसायिक उपक्रम, विश्वविद्यालय तथा गैर-राजनीतिक समूहों तक भी है। आज नौकरशाही शब्द का प्रयोग सरकार, उद्योग, सेना आदि बड़े-बड़े संगठनों में कार्यरत अधिकारी वर्ग व कर्मचारियों के समूह के लिए प्रयुक्त होता है। मैक्स वेबर की आदर्श नौकरशाही की विशेषताएं हैं :-
1. यह नौकरशाही स्पष्ट श्रम विभाजन पर आधारित होती है। इसमें प्रत्येक कर्मचारी को कुछ निश्चित उत्तरदायित्व सौंपे जाते हैं और विधिक सत्ता की शक्ति भी दी जाती है।
2. इस नौकरशाही में कार्य करने की प्रक्रिया पूर्व-निर्धारित होती है।
3. इसमें कर्मचारियों को पद-सोपानों में बांट दिया जाता है। ‘आदेश की एकता के’ सिद्धान्त को प्रभावी बनाने के लिए इसमें आदेश ऊपर से नीचे आते हैं और संगठन एक पिरामिड की तरह होता है।
4. इसमें कार्यों के निष्पादन के लिए विधिपूर्वक व्यवस्था होती है। इसमें व्यक्ति को वही कार्य सौंपा जाता है, जिसमें वह दक्ष होता है।
5. इसमें पद के लिए योग्यताएं निर्धारित रहती हैं। इसमें उन्हीं व्यक्तियों का चयन किया जाता है जो पद हेतु निर्धारित योग्यता व दक्षता रखते हैं।
6. इसमें कर्मचारियों का वेतन पदसोपान में उनके स्तर, पद के दायित्व, सामाजिक स्थिति आदि के आधार पर तय किया जाता है।
7. यह नौकरशाही अनौपचारिक सम्बन्धों की बजाय औरपचारिक सम्बन्धों पर आधारित होती है। इसमें निर्णय व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों की बजाय औचित्य के आधार पर नियमों की परिधि में रहकर ही लिए जाते हैं।
8. इसमें संगठन के निर्णयों और गतिविधियों का आधिकारिक रिकार्ड रखा जाता है। इस कार्य में फाईलिंग प्रणाली का प्रयोग किया जाता है।
9. इसमें कार्य-अनुशासन पर जोर दिया जाता है।
10. इसमें कर्मचारी तथा उसके कार्यालय में भेद किया जाता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि वेबर की नौकरशाही प्रशासन की एक ऐसी व्यवस्था है जो विशेषज्ञता, निस्पक्षता तथा अमानवीय सम्बन्धों पर आधारित होता है। वेबर के अनुसार नौकरशाही एक यन्त्र के रूप में कार्य करती है। पश्चिमी औद्योगिक देशों की प्रशासनिक व्यवस्थाएं काफी हद तक नौकरशाही के इसी सिद्धान्त पर आधारित है। वेबर नौकरशाही को ऐसे समाज का हिस्सा मानते हैं जो जटिल श्रम विभाजन, केन्द्रित प्रशासन तथा मुद्रा-अर्थव्यवस्था पर बना होता है। यदि बाकी सभी शर्तें समान रहें तो तकनीकी दृष्टि से नौकरशाही सदा ही विवेकशील प्रकार की होने के कारण जन-समूह-प्रशासन की आवश्यकताओं की दृष्टि से अनिवार्य होती है। आज नौकरशाही की प्रवृित्त्यां राज्यों और निजि उपक्रमों में ही नहीं पाई जाती, बल्कि सेना, चर्च तथा विश्वविद्यालयों में भी पाई जाती है। इसी कारण नौकरशाही आधुनिक युग की केन्द्रीय राजनीतिक सच्चाई है। इस सच्चाई से बचना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव भी है।
विकासशील देशों में वेबर के नौकरशाही के सिद्धान्त की प्रासांगिकता :- दुसरे विश्व युद्ध के बाद स्वतन्त्र हुए अधिकतर विकासशील देशों के सामने आर्थिक-विकास तथा राजनीतिक स्थायित्व की प्रमुख समस्या थी। इसमें से अधिकतर देश आज भी इस समस्या से जूझ रहे हैं। इन देशों में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो इन समस्याओं पर लगभग काबू पा चुका है। ब्रालीन भी इस मार्ग पर काफी आगे निकल चुका है। आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को एक ऐसे नौकरशाही तन्त्र की जरूरत थी जो उसके संविधानिक आदर्शों का सम्मान करते हुए निष्पक्ष रहकर विकास में अपना पूर्ण योगदान दे सके। इसी कारण उसने ऐसी नौकरशाही को विकसित किया जो निष्पक्ष, विशेषज्ञ व अमानवीय रहकर कार्य करती रहे। यदि विकासशील देशों ब्राजील और भारत के सन्दर्भ में देखा जाए तो वेबर द्वारा बताया गया आदर्श नौकरशाही का प्रतिरूप लगभग पूर्ण रूप में लागू होता है। भारत में नौकरशाही कानूनी सत्ता पर आधारित है। इसमें स्पष्ट श्रम विभाजन, निश्चित कार्य प्रक्रिया, कार्यों की विधिपूरक व्यवस्था, पद सोपान पद्धति, पद के लिए योग्यताएं, निवैयक्तिक सम्बन्ध तथा आधिकारिक रिकार्ड सभी विशेषताएं विद्यमान हैं। भारत में योग्यता प्रणाली को आधार बनाकर लिखित परीक्षाओं और कठिन साक्षात्कार के आधार पर ही लोकसेवकों का चयन किया जाता है। लोक सेवकों को पद के अनुसार व कार्य की प्रकृति के हिसाब से वेतन व भत्ते प्रदान किये जाते हैं। प्रशासनिक व्यवहार में अनुशासन का विशेष महत्व है और सारा काम निष्पक्ष तरीके से करने को प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन आज प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण अनौपचारिक व पक्षपातपूर्ण सम्बन्धों का प्रचलन बढ़ने लगा है। 1969 में तो भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही का विचार कार्यपालिका के प्रति प्रतिबद्ध हो या संविधानिक आदर्शों के प्रति। यदि विकासशील देशों में नौकरशाही को अपना निष्पक्ष रूप कायम रखना है तो उसे संविधानिक आदर्शों के प्रति प्रतिबद्धता दिखानी होगी और राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रहना होगा। इसी में वेबर का आदर्श नौकरशाही की सार्थकता है। अत: आज विकासशील देशों में वेबर की आदर्श नौकरशाही का रूप कुछ धुंधला सा पड़ने लगा है।
वेबर के नौकरशाही के सिद्धान्त की आलोचना :-
1. मार्क्सवादियों की दृष्टि में वेबर का सिद्धान्त समाज पर पूंजीवादी प्रभुत्व को उचित मानता है। उनका तर्क है कि वेबर के तथाकथित ‘इतिहास का दर्शन’ का इरादा सत्ता को विधिसंगत बनाना था और वर्ग-संघर्ष को केवल शक्ति की राजनीति का रूप देना था।
2. यह सिद्धान्त व्यावहारिक दृष्टि से अपूर्ण है। यह बाहर से व्यवस्थित और अनुशासित दिखाई देने पर भी अन्दर से शक्ति के लिए सर्वत्र फैले हुए संघर्ष की वास्तविकता पर ही आधारित है।
3. अनौपचारिक सम्बन्धों पर आधारित होने के कारण यह संगठन के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण की उपेक्षा करता है।
4. आदर्श शब्द का प्रयोग नौकरशाही के लिए करना वेबर की मूर्खता ही है। यदि ध्यान से देखा जाए तो नौकरशाही सत्तावादी मनोवृत्ति, अहं एवं श्रेष्ठता की भावना, अमानवीय व रूढ़िवादिता, लालफीताशाही आदि प्रवृत्तियों के कारण घृणास्पद अवधारणा बन जाती है। इसलिए इसके लिए आदर्श शब्द का प्रयोग करना अनुचित है।
5. संगठन की कार्यकुशलता में आदर्श रूप की बजाय कर्मचारियों के तकनीकी स्तर, संगठन के बच्चों, लोक सेवकों व कर्मचारियों के मधुर सम्बन्ध अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।
6. यद्यपि यह नौकरशाही विकासशील देशों में प्रचलित अवश्य है, लेकिन इससे वहां की तीव्र आर्थिक-सामाजिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा सकता है।
अत वेबर का नौकरशाही का सिद्धान्त एक अपूर्ण व अव्यवहारिक औजार है जिसका सफलविकासशील देशों में नहीं किया जा सकता। लेकिन फिर भी विकसित पूंजीवादी देशों की नौकरशाही में तो इस सिद्धान्त के सभी लक्षण अवश्य मिल जाते हैं। इसलिए अन्य सभी सिद्धान्तों से यह सिद्धान्त अधिक प्रासंगिक है।
नौकरशाही का मूल्यांकन :- आज नौकरशाही अपने बदनाम अर्थ को समाप्त करने की दिशा में कार्यरत् है। आज नौकरशाही में अत्यधिक विशेषीकरण के साथ-साथ सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित मानवीय सम्बन्धों को महत्व दिया जाता है। इससे संगठन के सदस्यों में अन्तर सम्बन्धों व अन्त-निर्भरता का विकास हुआ है। आज नौकरशाही का रूप प्रजातन्त्रीय बन रहा है। आज निर्णय प्रक्रिया में अधीनस्थों की भूमिका को भी स्वीकार किया जाने लगा है। इसलिए आज नौकरशाही एक संक्रमणकालीन दौर से गुजर रही है। जहां यह अनेक लाभों को दर्शाती है, वहीं इसके कुछ दोष भी हैं। लाभों के रूप में कहा जा सकता है कि नौकरशाही प्रशासन को कुशल बनाने, राजनीतिक तटस्थता व निष्पक्षता से कार्य करने, विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा सामाजिक न्याय की स्थापना करने की दिशा में अग्रसर है, वहीं लालफीताशाही रूढिवादी, लकीर की फकीर, निरंकुश, औपचारिक, आत्मप्रशंसा की भूखी, लोचहीन, सामाजिक परिवर्तन के प्रति उदासीन आदि दोषों की भी शिकार है। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि नौकरशाही के दोषों पर काबू पाया जाए। इसलिए अनेक विद्वान सत्ता के विकेन्द्रीकरण, संसदीय नियन्त्रण, प्रशासकीय न्यायधिकरणों की स्थापना, सरल प्रशासन प्रक्रिया, जागरूक जनता, अभिभावक वृति का विकास करने पर जोर देते हैं। यदि नौकरशाही राजनीतिक नेतृत्व के अधीन रहकर, संविधानिक आदर्शों के प्रति प्रतिबद्ध रहकर कर्तव्य व निष्ठापूर्वक ईमानदारी से कार्य करे तो नौकरशाही की तानाशाही व रूढ़िवादी प्रवृत्ति पर आसानी से काबू पाया जा सकता है और राजनीतिक व्यवस्था व संविधान के अभीष्ट लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।