UNIT 2
लोक प्रशासन के अध्ययन की स्थिति
एक व्यवस्थित अध्ययन के रूप में लोक-प्रशासन का विकास अभी नया ही है। लोक-प्रशासन के शैक्षिक अध्ययन का प्रारम्भ करने का श्रेय वुडरो विल्सन को जाता है जिसने १८८७ में प्रकाशित अपने लेख ‘द स्टडी ऑफ ऐडमिनिस्ट्रेशन' में इस शास्त्र के वैज्ञानिक आधार को विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया। इस लेख में राजनीति तथा प्रशासन के बीच स्पष्ट भिन्नता दिखाई गई और घोषित किया गया कि प्रशासन की राजनीति से दूर रहना चाहिए। इसी को तथाकथित ‘राजनीति-प्रशासन-द्विभाजन’ कहते हैं।
भारत में लोक प्रशासन का अध्ययन :- भारत में लोक प्रशासन के अध्यापन और अध्ययन के उदय और विकास के संबंध में निम्न बिंदुओं को देखा जा सकता है:
1. 1930 के दशक में, लखनऊ विश्वविद्यालय एम.ए. राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में ‘लोक प्रशासन’ का एक अनिवार्य प्रश्न पत्र जोड़ने वाला भारत का पहला विश्वविद्यालय बना ।
2. 1937 में, मद्रास ‘विश्व लोक प्रशासन’ पर एक डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू करने वाला पहला विश्वविद्यालय बना ।
3. 1949-50 में, नागपुर विश्वविद्यालय ‘लोक प्रशासन व स्वशासन’ पर एक अलग संपूर्ण विभाग स्थापित करने वाला भारत का पहला विश्वविद्यालय बना ।
इसके साथ ही भारत में लोक प्रशासन को पहली बार भारत में पूर्ण अकादमिक वैधता दे दी गई । इस विभाग के अध्यक्ष स्वर्गीय डॉ. एम. पी. शर्मा थे जो भारत में ‘लोक प्रशासन’ के पहले प्रोफेसर के रूप में जाने जाते हैं ।
4. 1954 में भारत में ‘लोक प्रशासन’ पर पॉल एच. एपलबी रिपोर्ट (1953) के सुझाव पर नई दिल्ली में भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (IIPA) की स्थापना की गई । यह भारत में प्रशासकीय शोध कार्यों का केंद्र है और इंडियन जर्नल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (IJPA) के जरिए ज्ञान फैलाता है ।
5. 1987 में यूपीएससी द्वारा कराई जाने वाली लोक सेवा परीक्षाओं में लोक नीति को पूर्णत: स्वतंत्र विषय के रूप में लाया गया । इससे इस विषय को जबर्दस्त संवेग मिला ।
6. आज करीब 50 विश्वविद्यालय, सैंकड़ों कॉलेज और तमाम प्रशिक्षण संस्थान भारत में लोक प्रशासन के अध्यापन और शोध में लगे हुए हैं|
1. प्रत्येक प्रशासन का उद्देश्य ”सेवा प्रदान” करना है । जब यह सेवा लोक कल्याण के लिए दी जाती है, तो प्रशासन का स्वरूप लोक हो जाता है और जब निजी लाभ के उद्देश्य से दी जाती है, तो प्रशासन “व्यैक्तिक” हो जाता है ।
2. लोक प्रशासन का उद्देश्य लोक कल्याण या हितों की पूर्ति के लिए सेवा कार्य करना है । यह मूलभूत उद्देश्य ही उसे लाभ आधारित निजी प्रशासन से पृथक और विशिष्ट प्रशासन बना देता है ।
3. प्रत्येक प्रशासन जनता को सेवा देता है । लेकिन ”जनता” का रूप जहां लोक प्रशासन में ”नागरिक” होता है, वही निजी प्रशासन में वह ”उपभोक्ता” होता है ।
4. अत: लोक प्रशासन ”नागरिक सेवाओं” से जबकि निजी प्रशासन ”उपभोक्ता सेवाओं” से जुड़ा होता है ।
5. इसलिए लोक प्रशासन की सेवाओं का स्वरूप नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं यथा रोजी-रोटी की व्यवस्था (रोजगार) शिक्षा, स्वास्थ्य की देख-रेख आदि का होता है, जबकि निजी प्रशासन की सेवाएं उपभोक्ता की विलासिता जरूरतों को पूरा करने से अधिक संबंधित है, जैसे टी.वी. फ्रिज, फास्ट-फूड आदि।
6. दूसरे शब्दों में कहें तो लोक प्रशासन की सेवाओं के बिना आधुनिक युग में नागरिकों का जीवन मुश्किल है ।
(1) राजनैतिक चरित्र:- प्रत्येक देश में लोक प्रशासन राजनीतिक कार्यपालिका का अधीनस्थ भाग माना जाता है । राजनीति ही प्रशासन के स्वरूप और दिशा को तय करती है । राजनीतिक निर्देशों के तहत लोक प्रशासन नागरिक संबंधी सेवाओं को सम्पादित करता है ।
यद्यपि इसका आशय राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है, अपितु नीतिगत प्रतिबद्धता है । सत्तारूढ़ दल से नहीं अपितु उसकी शासन नीतियों से लोक प्रशासन संचालित होता है । राजनीतिक चरित्र ही उसे नागरिक स्वरूप भी प्रदान करता है ।
(2) कानूनी या वैधानिक चरित्र:- लोक प्रशासन को ही देश में यह विशिष्ट स्थिति प्राप्त होती है । उसका आधार भी संविधान है और उसके कार्यों को भी कानूनी शक्ति प्राप्त होती है|
लोक प्रशासन एक अभिनव सामाजिक विज्ञान है, जिसने अभी अपने 100 वर्ष भी पूरे नहीं किए हैं। एक युवा और विकासशील सामाजिक विज्ञान होने के बावजूद इसका जीवन उतार-चढ़ाव और उथल-पुथल से परिपूर्ण रहा है। लोक प्रशासन का इतिहास निम्नलिखित पांच चरणों में विभाजित है –
1) प्रथम चरण (1887 – 1926) :- एक विषय के रूप में लोक प्रशासन का जन्म 1887 में, अमेरिका के प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में राजनीति के तत्कालीन प्राध्यापक वुड्रो विल्सन को इस शास्त्र का जनक माना जाता है। उन्होंने 1887 में प्रकाशित अपने लेख ‘प्रशासन का अध्ययन’ (the study of administration) में राजनीति और प्रशासन को अलग अलग बताते हुए कहा “एक संविधान का निर्माण सरल है पर इसे चलाना बड़ा कठिन है।” उन्होंने इस ‘चलाने’ क्षेत्र के अध्ययन पर बल दिया जो स्पष्टत: ‘प्रशासन’ ही है। सन 18 सो 87 में विल्सन के लेख के प्रकाशन के साथ वास्तव में एक ऐसे नए युग का जन्म हुआ, जिसमें धीरे-धीरे लोक प्रशासन अध्ययन के एक नए क्षेत्र के रूप में विकसित हुआ। यह उल्लेखनीय है कि अन्य देशों की तुलना में संयुक्त राज्य अमेरिका में लोक प्रशासन के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाने लगा।
इस विषय के एक अन्य महत्वपूर्ण प्रणेता फ्रैंक गुड़नाउ है, जिन्होंने 1900 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘राजनीति तथा प्रशासन’ में यह तर्क प्रस्तुत किया कि राजनीति और प्रशासन अलग अलग है क्योंकि जहां राजनीति राज्य इच्छा को प्रतिपादित करती है, वहीं प्रशासन का संबंध इस इच्छा या राज्य नीतियों के क्रियान्वयन से है। सन् 1926 में एल.डी. व्हाइट की पुस्तक ‘लोक प्रशासन के अध्ययन की भूमिका’ प्रकाशित हुई। यह लोग प्रशासन की प्रथम पाठ्य पुस्तक थी, जिसमें राजनीति प्रशासन का मुख्य लक्ष्य दक्षता और मित्रता है।
लोक प्रशासन के विकास के इस प्रथम चरण की दो प्रमुख विशेषताएं रहीं – लोक प्रशासन का उदय और राजनीति एवं प्रशासन के अलगाव में विश्वास।
2) दूसरा चरण (1927-1937) :- लोक प्रशासन के इतिहास में द्वितीय चरण का प्रारंभ हम डब्ल्यू.एफ.विलोबी की पुस्तक ‘लोक प्रशासन के सिद्धांत’ (principles of public administration) से मान सकते हैं। विलोबी ने यह प्रतिपादित किया कि लोक प्रशासन में अनेक सिद्धांत हैं, जिनको क्रियान्वित करने से लोक प्रशासन को सुधारा जा सकता है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि व्हाइट और विलोबी के दोनों प्रवर्तक ग्रंथों ने लगभग एक पीढ़ी तक लोक प्रशासन संबंधी पाठ्य पुस्तकों के प्रणयन और उसके अध्ययन की पद्धति का निर्धारण किया। इन दोनों ही पुस्तकों का रूप तकनीकी है, जिनमें उन सभी प्रकार की सामान्य समस्याओं का अध्ययन किया गया है, जिन्हें ‘पोस्डकार्ब’ शब्द में समाहित किया जा सकता है। यह दोनों ही प्रवर्तक ग्रंथ इस मान्यता पर आधारित हैं कि लोक प्रशासन को राजनीति से पृथक और स्वतंत्र होना चाहिए तथा इसके सिद्धांतों को मोटे तौर पर सहज ही पहचाना और परिभाषित किया जा सकता है।
विलोबी की उपरोक्त पुस्तक के बाद अनेक विद्वानों ने लोक प्रशासन पर पुस्तकें लिखनी शुरू कीं, जिनमें कुछ उल्लेखनीय नाम हैं – मैरी पार्कर फोलेट, हेनरी फेयोल, मूने, रियेले आदि। 1937 में लूथर गुलिक तथा उर्विक ने मिलकर लोक प्रशासन पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक का संपादन किया जिसका नाम है ‘प्रशासन विज्ञान पर निबंध’ (papers on the science of administration) । द्वितीय चरण के इन सभी विद्वानों की यह मान्यता रही कि प्रशासन में सिद्धांत होने के कारण यह एक विज्ञान है और इसलिए इसके आगे लोक शब्द लगाना उचित नहीं है। सिद्धांत तो सभी जगह लागू होते हैं चाहे वह लोग क्षेत्र हो या निजी क्षेत्र।
3) तृतीय चरण (1938-1947) :- अब प्रशासन में सिद्धांतों को चुनौती देने का युग प्रारंभ हुआ। सन् 1938 से 1947 तक का चरण लोक प्रशासन के क्षेत्र में विध्वंशकारी अधिक रहा। सन् 1938 में चेस्टर बर्नार्ड की ‘कार्यपालिका के कार्य’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें प्रशासन के किसी भी सिद्धांत का वर्णन नहीं किया गया। सन् 1946 में हार्वर्ड ने अपने एक लेख में लोक प्रशासन के तथाकथित सिद्धांतों को नकारते हुए उन्हें मुहावरों की संज्ञा दी। लगभग एक साल बाद ही साइमन की पुस्तक ‘प्रशासकीय व्यवहार’ प्रकाशित हुई। यह सिद्ध किया गया कि प्रशासन में सिद्धांत नाम की कोई चीज नहीं है।
इस तृतीय चरण की प्रधानता यही रही कि लोक प्रशासन का अध्ययन चुनौतियों और आलोचनाओं का शिकार बना, जिससे इस विषय के विकास की नई संभावनाएं उजागर हुई।
4) चतुर्थ चरण )1948-1970) :- यह चरण इस रूप मे क्रांतिकारी अथवा संकट काल का रहा कि लोक प्रशासन जिन जिन उपलब्धियों का गीत गा रहा था, उन सभी को बेकार ठहरा दिया गया। हर्बर्ट साइमन ने जो युक्तिसंगत आलोचना की, उसके फलस्वरुप सिद्धांतवादी विचारधारा अविश्वसनीय प्रतीत होने लगी। इसलिए 1948 से 1970 के चरण को लोक प्रशासन के स्वरूप की संकट अवस्था कहा गया है। इस युग में लोक प्रशासन ने मोटे तौर पर दो रास्ते अपनाए- प्रथम, कुछ विद्वान राजनीति शास्त्र के अंतर्गत आये। द्वितीय, लोक प्रशासन के विकल्प की खोज हुई। जो विद्वान राजनीति शास्त्र के अंतर्गत आये उनका तर्क था कि लोक प्रशासन राजनीति से निकला है और उसका अंग है।
5) पांचवा चरण (1970 से अब तक ) :- चतुर्थ चरण की आलोचनाओं प्रत्यालोचनाओं और चुनौतियों ने कुल मिलाकर लोक प्रशासन का भला किया। लोक प्रशासन का अध्ययन बहुचर्चित हो गया, नये नये दृष्टिकोण विकसित हुए और फलस्वरुप लोक प्रशासन बहुमुखी प्रगति के मार्ग पर बढ़ने लगा। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विभिन्न शास्त्रों के विद्वान और इसके अध्ययन में रुचि ले रहे थे। इन विभिन्न अध्ययनों और प्रयत्नों के फलस्वरुप लोक प्रशासन ‘अंतर्विषयी’ बन गया और आज यह एक तथ्य है कि समाजशास्त्रों में यदि कोई विषय सबसे अधिक ‘अंतर्विषयी’ है तो वह लोक प्रशासन ही है। इससे लोक प्रशासन के वैज्ञानिक स्वरूप का विकास हुआ। इतना ही नहीं इससे लोक प्रशासन के क्षेत्र का विस्तार होता गया और तुलनात्मक लोक प्रशासन तथा विकास प्रशासन का प्रादुर्भाव हुआ। परंपरागत दृष्टिकोण की अपर्याप्तता, अनुसंधान के नये उपकरणों और नवीन धाराओं के उदय, नवीन सामाजिक संदर्भ, अंतरराष्ट्रीय निर्भरता आदि ने तुलनात्मक लोक प्रशासन को जन्म दिया और उसे आगे बढ़ाया। लोक प्रशासन के तुलनात्मक अध्ययन के परिणामों और प्रविधियों का पूरे लोक प्रशासन के स्वरूप पर गंभीर प्रभाव पड़ा। यह तथ्य उत्साहपूर्ण और हर्षवर्धक है कि लोक प्रशासन में आज पश्चिमी देशों का ही अध्ययन नहीं होता है, वरन् साम्यवादी तथा अमेरिकी और एशिया के देश भी इसकी परिधि में आ गये हैं। वर्तमान में विश्व के अनेक महत्वपूर्ण और ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में इस विषय का अध्ययन किया जा रहा है। अनेक महत्वपूर्ण शोध पत्रिकायें भी प्रकाशित हो रही हैं।