UNIT 8
निजी प्रशासन – भर्ती , प्रशिक्षण , पदोन्नति एवं मोरल
निजी प्रशासन प्रशासकीय कुशलता की दृष्टि से कार्मिक व्यवस्था अति आवश्यक है | प्रशासकीय कुशलता के अभाव में कोई सरकार अपने किसी उद्देश्य को सफलतापूर्वक नहीं कर सकती |सरकार में कार्मिकों की संख्या दिन पर दिन बढ़ रही है |
प्रशासकीय संगठनो में रिक्त पदों हेतु योग्य व्यक्तियों को आकर्षित करने की प्रक्रिया को सामान्य शब्दों में भर्ती कहते है | प्रसिद्ध विचारक एल.डी.व्हाइट के अनुसार व्यक्तियों को आकर्षित करना ही भर्ती है | कुछ लोग इसके अर्थ को सीमित रूप में किसी विशेष पद के लिए प्रार्थना पत्र मात्र समर्पित करने से लगाते है | नियुक्ति में परीक्षा एवं प्रमाण सम्बन्धी प्रक्रियाएं भी सम्मिलित है |
वास्तव में प्रत्येक प्रशासन का लक्ष्य और दृष्टिकोण यही रहता है कि योग्य,उपयुक्त,कुशल,सक्षम एवं निष्ठावान लोकसेवक उपलब्ध हो सके | भर्ती अपने स्वरुप में एक ऐसा कार्यक्रम है जिसके द्वारा नए कार्मिकों को सेवा के क्षेत्र में लिया जाता है | इसमें समाज के श्रेष्ठ लोग समाज की सेवा के लिए चुने जाते है | अतः इस दृष्टि से सबसे अधिक महत्व भर्ती की व्यवस्था को दिया जाना स्वाभाविक है |
भर्ती करने वाली सत्ता का निर्णय करने के पश्चात दूसरी समस्या यह है कि भर्ती करने के लिए कोन कोन सी विधियाँ विभाजित की गयी है | लुईस मायरज़ के शब्दों में “मौलिक रूप से चुनने की दो प्रक्रिया है चुनाव सेवा के बाहर से चुनने की प्रक्रिया एवं चुनाव सेवा के भीतर से पदोन्नति के माध्यम से|” इस प्रकार भर्ती करने के दो तरीके है सीधी भर्ती तथा पदोन्नति द्वारा भर्ती |सरकारी कर्मचारियों के अतिरिक्त इसमें कोई व्यक्ति भाग नहीं ले सकता | इन दोनों तरीको को अपनाया जाना पदाधिकारी प्रणाली की प्रकृति पर निर्भर करता है | एक लोकतंत्रीय प्रणाली में प्रायः बाहरी एवं प्रत्यक्ष भर्ती प्रणाली को अपनाया जाता है | जबकि कुलीन तंत्रात्मक तथा नौकरशाही प्रणाली में भीतरी भर्ती प्रणाली को श्रेष्ठ समझा जाता है |
भर्ती के प्रकार निमं प्रकार है :- सामान्यत: भर्ती दो प्रकार के होते हैं -
- आंतरिक / भीतरी भर्ती
- बाह्य भर्ती
आन्तरिक भर्ती :-आंतरिक भर्ती से आशय उपक्रम में कार्य करने वाले कर्मचारियों की उच्च पदों पर पदोन्नति, स्थानान्तरण व समायोजन से है। सामान्यत: आंतरिक स्रोतों से भर्ती उच्च पदों पर की जाती है। इसके प्रमुख तीन स्रोत है-
- पदोन्नति- साधारणत: संस्था में योग्य एवं अनुभवी कर्मचारियों को उसकी योग्यता एवं वरिष्ठता के आधार पर उच्च पद पर पदोन्नति कर रिक्त पद की पूर्ति की जाती है। जहां अनुभव का होना महत्वपूर्ण है, वहां पद पदोन्नति से भरा जाना चाहिए।
- समायोजन- संस्था को कारोबार की स्थापना के समय अधिक कर्मचारियों की आवश्यकता होती है| अतिशेष कर्मचारी को बाद में कार्य कम होने के कारण अन्य शाखाओं या कार्यालयों में स्थानान्तरित करना पड़ता है, ऐसे समायोजन में कर्मचारी का समुचित उपयोग किया जाना चाहिए।
- स्थानान्तरण- स्थानान्तरण कार्यालय की सामान्य प्रक्रिया है। जिसकी आवश्यकता निम्न कारणों से होती है :-
- अधिक समय तक एक ही पद पर कर्मचारी के पदस्थ रहने के कारण।
- क्षमता के अनुरूप कार्य सम्पादित न हो पाना।
- कर्मचारी की कार्यक्षमता में परिवर्तन (प्रशिक्षण उच्चशिक्षा, अस्वस्थता आदि) के कारण भेजा जाना चाहिए।
- कर्मचारी द्वारा अन्य पद पर कार्य करने हेतु इच्छा व्यक्त करने पर।
आन्तरिक स्त्रोत से भर्ती के लाभ :- कर्मचारियों की आन्तरिक स्त्रोत से भर्ती के निम्न लाभ होते हैं-
- कर्मचारियों को उपक्रम के नियमों की जानकारी पूर्व से रहती है।
- कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।
- कर्मचारियों का मनोबल बढ़ता है।
- कर्मचारियों की आय में वृद्धि होती है।
- भर्ती पर उपक्रम का न्यूनतम व्यय होता है।
- कर्मचारियों के प्रशिक्षण पर व्ययों में कमी।
- पदोन्नति व मनपसन्द कार्यस्थल के द्वार खुले रहते हैं।
आन्तरिक स्रोत से भर्ती के हानि :- इसकी एक बड़ी हानि यह है कि संगठन अपने संस्थान में नए लोगों को शामिल कर उनकी योग्यताओं का लाभ नहीं उठा पाता है।
बाह्य स्रोत :- बाह्य स्रोत से भर्ती निम्न वर्गीय कर्मचारियों की जाती है। भर्ती के बाह्य स्रोत है-
- पूर्व कर्मचारियों की पुनर्नियुक्ति :- ऐसे कर्मचारी जो उपक्रम में पूर्व में कार्य कर चुके हैं तथा सेवानिवृत्त हो चुके हैं या सेवानिवृत्ति के पूर्व ही किसी कारण से सेवा छोड़ चुके हैं, ये कर्मचारी अनुभवी व कार्य कुशल होने पर इनकी पुनर्नियुक्ति उपक्रम में कर दी जाती है। सरकारों द्वारा भी सेवानिवृत्ति अधिकारियों को नियुक्त कर उनकी सेवाएँ ली जा रही हैं। ये कर्मचारी विश्वासपात्र एवं अनुभवी होने के कारण इन पर प्रशिक्षण व्यय कम होता है|
2. मित्र या रिश्तेदार :- सामान्यत: संस्था प्रमुख विशेषज्ञ के रूप में अपने मित्र या रिश्तेदारों को भर्ती हेतु आमंत्रित करते है। जिससे निष्पक्ष हो आरै अच्छे कर्मचारी चुनने का अवसर मिलता है।
3. श्रम संघो द्वारा भर्ती :- ऐसे क्षेत्रों में जहां श्रम संघो का काफी प्रभाव होता है वहां वे अपने सम्पर्क से श्रम की पूर्ति/ भर्ती उचित समझते हैं। किन्तु इस विधि द्वारा भर्ती करने यह ध्यान देना आवश्यक है कि यह देख ले अयोग्य व अकुशल व्यक्ति को चयन करने के लिए दबाव न डाले।
4. विज्ञापन एवं मिडिया द्वारा :- दैनिक समाचार पत्र, पत्रिकाओं रोजगार समाचार, रोजगार नियोजन आदि में नौकरी का स्वरूप, प्रकृति, आवश्यक योग्यताए, आवेदन के तरीके आदि का विवरण का विज्ञापन देकर भर्ती की जाती है। वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे टेलीविजन और इंटरनेट पर विज्ञापनों के प्रत्युत्तर में बडी़ सख्ंया में भावी उम्मीदवारों कके आवेदन पत्र प्राप्त होते हैं।
5. कार्यालय में सीधी भर्ती :- इस प्रकार की भर्ती उपक्रम के सेविवर्गीय विभाग या भर्ती शाखा द्वारा की जाती है। बाह्य भर्ती के लिए विधिवत् रिक्त स्थानों की सूचना व शर्तों आदि की जानकारी कार्यालय के सूचना पटल पर लगाई जाती है। साथ-साथ दैनिक अखबार में भी विज्ञापन दिया जाता है ताकि अच्छे से अच्छे आवेदकों में से श्रेष्ठ का चयन किया जा सके। इस विधि में निम्न प्रक्रियाए अपनाई जाती हैं-
1. विज्ञापन के आधार पर आवेदन-पत्र बुलाना।
2. आवेदित उम्मीदवार अधिक हों या आवश्यक हो तो लिखित परीक्षा लेना।
3. लिखित परीक्षा में सफल उम्मीदवारों का साक्षात्कार लेना।
4. आवश्यक होने पर विभिन्न परीक्षण लेना। इस पद्धति का प्रयोग निम्न वर्गीय कर्मचारियों के लिये अधिक किया जाता है।
6. रोजगार कार्यालय द्वारा भर्ती :- केन्द्र सरकार ने प्राय: सभी जिलों में रोजगार केन्द्र की स्थापना कर दी है। इन कार्यालयों के पास रोजगार चाहने वालों का नाम, पता, योग्यता, रोजगार के प्रकार व अन्य जानकारी हमेशा उपलब्ध रहती है, उपक्रम या नियोक्ता इन केन्द्रों से रोजगार चाहने वालों की सूची मंगाकर योग्य कर्मचारियों की भर्ती कर सकते हैं। यह ढंग वर्तमान में काफी प्रचलित है।
7. शैक्षणिक एवं अन्य संस्थाओं द्वारा भर्ती:- वर्तमान में निजी क्षेत्र के अनेक संगठन शैक्षणिक संस्थाओं के माध्यम से भर्ती कार्य को श्रेष्ठ मानते है। शिक्षा संस्थाओं में रोजगार ब्यूरो केन्द्र के माध्यम से अध्ययनरत् योग्य छात्रों का विभिन्न परीक्षण कर भर्ती करना श्रेष्ठ समझा जाता है। इस माध्यम को परिसर भर्ती या कैम्पस चयन कहा जाता है।
8. सेवा निवृत्त सैन्य कर्मचारी:- सेना में सेवानिवृत्ति की आयु 45 से 50 वर्ष के मध्य होती है। सेना के कर्मचारी अनुशासित, योग्य, चुस्त, ईमानदार तथा अनुभवी माने जाते हैं, अत: सैन्य सेवा से निवृत्ति के पश्चात् इच्छुक कर्मचारियों को अन्य सरकारी व गैर सरकारी संगठनों में भर्ती करना एक अच्छा माध्यम माना जाता है। विश्वविद्यालय के कुलपति, राज्यपाल, विभिन्न आयोगों तथा सुरक्षा क्षेत्र के लिए भी इस क्षेत्र से भर्ती श्रेष्ठ मानी जाती है।
9. अन्य स्त्रोत :- उपर्युक्त के अतिरिक्त विभिन्न सलाहकार संस्थाओं, अंशकालीन कर्मचारियों विभिन्न शिविरों के माध्यम से भर्ती, अनियमित आवेदन आदि तरीकों से भी भर्ती कार्य सम्पन्न किया जाता है।
भर्ती की विशेषताएं :- भर्ती की विशेषताए निमं प्रकार है -
- भर्ती योग्य व्यक्तियों के खोज की प्रक्रिया है।
- इसमें व्यक्तियों को आवेदन करने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया जाता है।
- इसमें भर्ती के विभिन्न स्त्रोतों का निर्धारण करके उन्हें बनाये रखने का प्रयास किया जाता है।
- भर्ती एक सकारात्मक प्रक्रिया है जिसमें चुनाव अनुपात )Selection Ratio) को बढ़ाने का उद्देश्य रहता है।
- भर्ती एवं चुनाव परस्पर सम्बद्ध हैं, यद्यपि दोनों में पर्याप्त अन्तर होता है।
- भर्ती वर्तमान व भावी दोनों प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की जा सकती है।
- भर्ती संस्था में निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।
- भर्ती के द्वारा प्रत्येक कार्य के लिए पर्याप्त मात्रा में आवेदकों की पूर्ति उत्पन्न होनी चाहिये ताकि नियोक्ता को चयन की सुविधा हो।
फिलिप्पों के अनुसार, ‘‘प्रशिक्षण किसी विशेष कार्य को करने के लिए एक कर्मचारी के ज्ञान एवं कौशल में रूचि उत्पन्न करता है।’’
- जूसियस के अनुसार, ‘‘प्रशिक्षण एक ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा विशेष कार्यो को करने के लिए कर्मचारियों की रूचि, योग्यता और निपुणता में वृद्धि की जाती है।
- डेल एस ब्रीच के अनुसार, ‘‘प्रशिक्षण एक ऐसी संगठित क्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ज्ञान अथवा चातुर्य सीखते है।’’
प्रशिक्षण की विशेषताएँ
- प्रशिक्षण एक पूर्ण व्यवस्थित, नियोजित एवं निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।
- प्रशिक्षण से कर्मचारी की कार्य-कुशलता बढ़ती है जिसके फलस्वरूप वह कार्य में पूर्णता एवं दक्षता प्राप्त कर लेता है।
- प्रशिक्षण चातुर्य और ज्ञान के विकास का एक साधन है।
- प्रशिक्षण कर्मचारी और संगठन दोनों के ही हित में है।
- प्रशिक्षण पर किया गया व्यय अपव्यय नहीं अपितु विनियोग है।
- प्रशिक्षण शिक्षा से भिन्न होता है।
प्रशिक्षण की आवश्यकता
1. नवीन कर्मचारियों को उस काम का प्रशिक्षण देना आवश्यक है जो उनके लिए नया है तथा जिसका उन्हें व्यावहारिक ज्ञान नहीं है।
2. विश्वविद्यालय की शिक्षा सैठ्ठान्तिक ज्ञान की ठोस नींव तो डाल देती है, किन्तु विभिन्न कार्यो के निष्पादन हेतु व्यावहारिक ज्ञान व विशिष्ट योग्यता कि आवश्यकता होती है जो प्रशिक्षण द्वारा ही पूरी की जा सकती है।
3. सामान्यत: कारखानों में काम के तरीके बदलते रहते हैं तथा कर्मचारी भी एक कार्य से दूसरे कार्य पर जाते रहते है, अत: नवीन दायित्व के कुशल निष्पादन के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
4. उत्पादन की नवीन विधियाँ व तकनीक का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षण एक अनिवार्यता है।
5. "कला" की प्रबन्धकीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी प्रशिक्षण आवश्यक है। देश में व्यावसायिक गतिशीलता बढ़ गयी है, क्योकिं स्थान-स्थान पर रोजगार के अवसरों में वृठ्ठि हो रही है। अत: विभिन्न स्तरों पर प्रशिक्षण की माँग बढ़ रही है।
6. निम्न स्तर से उच्च पर कर्मचारियों की पदोन्नति के लिए प्रशिक्षण आवश्यक होता है।
प्रशिक्षण के लाभ
1. अच्छे प्रशिक्षण का उद्देश्य कर्मचारी को कार्य की श्रेष्ठ पद्धत्तियों में दक्ष बनाना है। इससे कच्चे माल तथा साजो-सामान का सही तथा मितव्ययी उपयोग किया जाता है।
2. प्रशिक्षण से कर्मचारी की कुशलता बढ़ती है, इससे वह अधिक और अच्छा उत्पादन करता है।
3. प्रशिक्षित कर्मचारी अपने-अपने काम में निपुण तथा दक्ष होते है, प्रबन्धकों को अपना अधिकांश समय इनके कार्य की देख-रेख करने में नहीं लगाना पड़ता।
4. प्रशिक्षण उपयोग की सही विधियाँ है। फलस्वरूप इससे दुर्घटनाओं की सम्भावना कम हो जाती है।
5. अच्छे प्रशिक्षण से कर्मचारियों में कार्य-सन्तुष्टि अर्थात् अपना कार्य अच्छे और संतोषजनक ढंग से करने की प्रसन्नता होती है।
6. प्रशिक्षण के दौरान प्रबन्धक कर्मचारियों के चुनाव की जांच कर सकते है। यदि कोई कर्मचारी अधिक कुशल तथा योग्य है तो वह अपने कार्य को अधिक आसानी से सीख लेगा।
7. निरन्तर प्रशिक्षण के फलस्वरूप कर्मचारियों में नए-नए सुधारों तथा विधियों को सीखने तथा उनके अनुसार कार्य करने की योग्यता बढ़ जाती है। फलत: संस्था को नवीनतम पद्धत्तियों को लागू करने में कठिनाई नहीं होती।
8. प्रशिक्षण से कर्मचारियों का न केवल विकास होता है, बल्कि वे अपने से ऊँचे पदों को सम्भालने के योग्य भी हो जाते है। इससे उनको पदोन्नति में सहायता मिलती है।
प्रशिक्षण की विधियाँ :- विभिन्न संगठनों द्वारा प्रशिक्षण के लिए अनेक विधियों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक संगठन अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप इनमें से उपयुक्त विधि का चयन करता है। सामान्यत:, ये प्रशिक्षण विधियाँ प्रचालनात्मक तथा पर्यवेक्षकीय कर्मचारियों के लिए प्रयोग की जाती है। प्रशिक्षण की इन विधियों को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित करके समझा जा सकता है।
- कार्य पर प्रशिक्षण विधियाँ
- कार्य से पृथ्क प्रशिक्षण विधियाँ
कार्य पर प्रशिक्षण विधियाँ :- सामान्यत: कार्य पर प्रशिक्षण विधियाँ अत्यधिक प्रयोग में लायी जाती है। इन विधियों में प्रशिक्षार्थियों को संगठन के नियमित कार्यों पर नियुक्त करके उन्हें उन कार्यों को सम्पन्न करने हेतु अनिवार्य निपुणताओं को सिखाया जाता है। प्रशिक्षार्थियों योग्य कर्मचारियों अथवा प्रशिक्षकों के पर्यवेक्षण एवं निर्देशन में कार्य सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करते है। कार्य पर प्रशिक्षण, वास्तविक कार्य-दशाओं में प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त करते है। कार्य पर प्रशिक्षण, वास्तविक कार्य-दशाओं में प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान एवं अनुभवों को प्रदान करने में अत्यन्त उपयोगी होते हैं। प्रशिक्षार्थियों, कार्य के विषय में सीखने के दौरान, नियमित रूप से संगठन के कर्मचारी भी होते हैं, जो कि अपनी सेवायें संगठन को देते हैं तथा जिसके लिए उन्हें संगठन द्वारा परिश्रमिक का भुगतान भी किया जाता है। इससे प्रशिक्षार्थियों के स्थानान्तरण की समस्या भी समाप्त हो जाती है, क्योंकि वे अपने कार्य पर ही प्रशिक्षण प्राप्त कर लेते है। इन विधियों के अन्तर्गत कार्यों को किस प्रकार से सम्पादित किया जाये इसे सिखाने की अपेक्षा प्रशिक्षार्थियों की सेवाओं को अत्यधिक प्रभावपूर्ण रूप से प्राप्त करने पर अधिक बल दिया जाता है। कार्य पर प्रशिक्षण विधियों में सम्मिलित है:-
- कार्य परिवर्तन :- इस विधि के अन्तर्गत प्रशिक्षार्थियों का एक कार्य से दूसरे कार्य पर प्रतिस्थापन सम्मिलित होता है। प्रशिक्षार्थियों, विभिन्न निर्दिष्ट कार्यों में से प्रत्येक में अपने पर्यवेक्षक अथवा प्रशिक्षक से कार्य का ज्ञान प्राप्त करता है। तथा अनुभवों को अर्जित करना है। यद्यपि, यह विधि प्राय: प्रबन्धकीय पदों के लिए प्रशिक्षण में सामान्य होती हैं। परन्तु कर्मचारी- प्रशिक्षार्थियों को भी कार्यशाला कार्यों में एक कार्य से दूसरे कार्य पर परिवर्तित किया जा सकता है। यह विधि प्रशिक्षार्थी को दूसरे कार्यों पर नियुक्त कर्मचारियों की समस्याओं को समझने तथा उनका सम्मान करने का अवसर प्रदान करती है।
- कोचिगं :- इस विधि में प्रशिक्षार्थियों को एक विशेष पर्यवेक्षक के अधीन नियुक्त कर दिया जाता है, जो कि उसके प्रशिक्षण में शिक्षक की भाँति कार्य करता है। पर्यवेक्षक प्रशिक्षार्थियों को उसके कार्य-निष्पादन पर त्रुटियों एवं कमियों के विषय में बताता है तथा उसे उनके सुधार के लिए कुछ सुझावों को भी प्रस्तुत करता है। प्राय: इस विधि में प्रशिक्षार्थियों, पर्यवेक्षक के कुछ कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों में भागीदार बनता है तथा उसे उसके कार्य-भार से कुछ मुक्ति प्रदान करता है। प्रशिक्षण की इस विधि में जो दोष होता है वह यह कि प्रशिक्षार्थियों को कार्य सम्पन्न करने में किसी प्रकार की न तो स्वंतंत्रता होती है तथा न ही उसे अपने विचारों को व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है।
- समूह निर्दिष्ट कार्य :- समूह निर्दिष्ट कार्य प्रशिक्षण विधि के अन्तर्गत, प्रशिक्षार्थियों के एक समूह को कोई वास्तविक संगठनात्मक समस्या दी जाती है। तथा उनसे उसका समाधान करने को कहा जाता है। प्रशिक्षार्थियों संयुक्त रूप से समस्या का समाधान करते हैं। इस विधि से उनमें दलीय-भावना का विकास होता है।
कार्य से पृथ्क प्रशिक्षण विधियाँ :- कार्य से पृथक प्रशिक्षण विधियों के अन्तर्गत प्रशिक्षार्थियों को उनके कार्य की परिस्थितियों से अलग करके केवल उनके भावी कार्य निष्पादन से सम्बन्धित सीखने की विषय-वस्तु एवं सामग्री पर ही उनका ध्यान केन्द्रित करवाया जाता है। चूँकि इनमें प्रशिक्षार्थियों के कार्य से पृथक रहने से उनके कार्य की आवश्यकताओं द्वारा उनकी एकाग्रता भंग नहीं होती है, इसलिए वे अपना सारा ध्यान कार्य सम्पन्न करने में समय बिताने की अपेक्षा कार्य सीखने में लगा सकते है।
- वेस्टिब्यूल ट्रेनिंग :- इस विधि में प्रशिक्षण, कार्य स्थल से पृथक एक विशेष प्रशिक्षणशाला में प्रदान किया जाता है, जिसमें यन्त्र, उपकरण,कम्प्यूटर तथा अन्य साज-सामान आदि जो कि सामान्यत: वास्तविक कार्य निष्पादन में प्रयुक्त होते हैं, वे भी उपलब्ध होते हैं तथा जहाँ लगभग कार्य स्थल जैसा वातावरण स्थापित किया जाता है। सामान्यत: इस प्रकार का प्रशिक्षण लिपिकीय तथा अद्धकुशल कार्यों के कर्मचारियों के लिए प्रयोग किया जाता है। यह प्रशिक्षण कुशल पर्यवेक्षकों अथवा फोरमैन द्वारा प्रदान किया जाता है। इस विधि के अन्तर्गत सिद्धान्तों को अभ्यास के साथ सम्बद्ध करते हुए प्रशिक्षण दिया जा सकता है। जब प्रशिक्षार्थियों अपना प्रशिक्षण पूर्ण कर लेते है तो उन्हें कार्य पर नियुक्त कर दिया जाता है।
- रोल प्लेइंग :- इस विधि को मानवीय अन्त:क्रिया की एक पद्धति के रूप में पारिभाषिति किया जा सकता है, जिसमें अधिकल्पित परिस्थितियों में वास्तवित व्यवहार सम्मिलित होता है। प्रशिक्षण की इस विधि में कार्य, क्रियाशीलता तथा अभ्यास सम्मिलित होते है। इसमे प्रशिक्षार्थियों को विभिन्न पद काल्पनिक रूप से सौंपे जाते हैं। तथा उन्हैं। उन पदों की भूमिकाओं का निर्वाह करने को कहा जाता है। उदाहरणार्थ, प्रशिक्षार्थियों में से किसी को विक्रय अधिकारी, किसी को क्रय पर्यवेक्षक तथा किसी को विक्रेता की भूमिका सौंप कर किसी संगठनात्मक समस्या को हल करने के लिए कहा जाता है। प्रशिक्षार्थियों द्वारा भूमिका निर्वाह के समय प्रशिक्षक उनका गम्भीरतापूर्वक अवलोकन करता है तथा बाद में उन्हें उनकी त्रुटियों एवं कमियों के विषय में जानकारी देता है, ताकि वे वास्तविक कार्य निष्पादन के समय उन्हें दूर कर सकें। इस विधि का अधिकतर प्रयोग अन्तवैंयक्तिक अन्त: क्रियाओं एवं सम्बन्धों के विकास के लिए किया जाता है।
- व्याख्यान विधि :- यह एक परम्परागत विधि है, जिसके अन्तर्गत एक अथवा अधिक प्रशिक्षक, प्रशिक्षार्थियों के समूह को व्याख्यान देकर किसी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में ज्ञान प्रदान करते हैं। प्रशिक्षक को व्याख्यान कला एवं विषय-वस्तु का अच्छा ज्ञान होता है। व्यख्यान को प्रभावशाली बनाने के लिए, प्रशिक्षर्थियों को अभिप्रेरित करना तथा उनमें रूचि उत्पन्न करना अनिवार्य होता है। व्याख्यान विधि का एक लाभ यह हैं कि यह एक प्रत्यक्ष विधि है, जिसे कि प्रशिक्षार्थियों के एक बड़े समूह के लिए प्रयोग किया जा सकता है। अत: इससे समय एवं धन, दोनों की बचत होती है। इस विधि का प्रमुख दोष यह है कि इसके द्वारा केवल सैद्धान्तिक ज्ञान की प्रदान किया जा सकता है, व्यवाहारिक ज्ञान नहीं।
- सम्मेलन अथवा विचार-विमर्श विधि :- इस विधि के अन्तर्गत, सामूहिक विचार-विमर्श द्वारा सूचनाओं एवं विचारों का आदान-प्रदान किया जाता है। इसके उद्देश्य एक समूह के ज्ञान एवं अनुभव से सभी को लाभान्वित करना होता है। इस विधि के अन्तर्गत भाग लेने वाले परीक्षार्थी विभिन्न विषयों पर अपने विचारों को प्रस्ततु करते हैं, तथ्यों, विचारों एवं आँकडों का आदान-प्रदान एवं परीक्षण करते हैं, मान्यताओं की जाँच करते हैं, निष्कर्षों को निकालते है तथा परिणामस्वरूप कार्यों के निष्पादन में सुधार हेतु योगदान देते है।
- प्रोग्राम्ड इन्स्ट्रक्शन :- हाल ही के वर्षों में यह विधि काफी लोकप्रिय हुई है। इस विधि में जो भी विषय-वस्तु सिखायी जानी होती है, उसे सावधानीपूर्वक नियोजित कर क्रमिक इकाइयों के एक अनुक्रम में प्रस्तुत किया जाता है। ये इकाइयाँ अनुदेशक के सरल से जटिल स्तर की ओर व्यवस्थित की गयी होती हैं। इन इकाइयों को प्रशिक्षार्थियों प्रश्नों के उत्तर देकर अथवा रिक्त स्थानों को भरकर पर करते है। तथा आगे बढ़ जाते हैं। इस विधि का प्रमुख लाभ यह हैं। कि प्रशिक्षार्थियों अपने सीखने का समायोजन अपनी सुविधानुसार किसी भी स्थान पर कर सकते है। आज सांख्यिकी विज्ञान एवं कम्प्यूटर के क्षेत्र में अनेक प्रोग्राम्ड बुक उपलब्ध हैं। यह विधि समय एवं धन के हिसाब से खर्चीली होता है।
प्रशिक्षण की प्रक्रिया :- प्रशिक्षण प्रक्रिया में एक कुशल प्रशिक्षण कार्यक्रम होने के लिए व्यवस्थित रूप से पालन किए जाने वाले चरणों की एक श्रृंखला शामिल है। प्रशिक्षण एक व्यवस्थित गतिविधि है जिसे किसी विशेष कार्य को करने के लिए कौशल, दृष्टिकोण और एक कर्मचारी के व्यवहार को संशोधित करने के लिए किया जाता है।
प्रशिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया हैं। जिसके द्वारा संगठनों के कर्मचारियों के ज्ञान, निपुणताओं तथा रूचियों में वृद्धि की जाती है। विभिन्न संगठनों की परिवर्तित आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए यह अत्यन्त आवश्यक है कि कर्मचारियों के लिए उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जायें। एक आदर्श प्रशिक्षण प्रक्रिया के महत्वपूर्ण चरण इस प्रकार से है –
- प्रशिक्षण आवश्यकताओं की निर्धारण - प्रशिक्षण प्रक्रिया चरण में प्रशिक्षण की आवश्यकताओं का निर्धारण किया जाता है। प्रशिक्षण आवश्यकताओं की निर्धारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण होता है, क्योंकि इसी के आधार पर ही प्रशिक्षण कार्यक्रम, प्रशिक्षण की विधियों तथा प्रशिक्षण की विषय-वस्तु को निर्धारित किया जाता है। प्रशिक्षण आवश्यकताओं का निर्धारण निम्नलिखित प्रकार के विश्लेषणों के माध्यम से किया जा सकता है।
- संगठनात्मक विश्लेषण: इसमें संगठन के उद्देश्य, विभिन्न क्षेत्रों में संगठनात्मक वातावरण का गहन अवलोकन जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में संगठनात्मक क्षमताओं एवं कमजोरियों, जैसे- दुर्घटनाओ, बार-बार यन्त्रों की टूट-फूट, अत्याधिक कर्मचारी-परिवर्तन बाजार अंश एवं बाजार सम्बन्धी अन्य क्षेत्रों, उत्पादन की गुणवत्ता एवं मात्रा उत्पादन-सारणी, कच्चा माल तथा वित्त आदि का विश्लेषण सम्मिलित है।
- विभागीय विश्लेषण: इसमें विभिन्न विभागों की विशेष समस्याओं अथवा उन विभागों के कर्मचारियों के एक समूह की सामान्य समस्या, जैसे-ज्ञान एवं निपुणताओं को प्राप्त करने की समस्या सहित, विभिन्न विभागीय क्षमताओं एवं कमजोरियों आदि का विश्लेषण सम्मिलित है।
- कार्य एवं भूमिका विश्लेषण: इसमे विभिन्न कार्यों एवं उनकी भूमिकाओं, परिवर्तनों के परिणामस्वरूप किये गये कार्य अभिकल्पों, कार्य-विस्तार तथा कार्य समृद्धिकरण आदि का विश्लेषण सम्मिलित है।
- मानवीय संसाधन विश्लेषण : इसमें कार्यों के ज्ञान एवं निपुणताओं के क्षेत्रों में संगठन के कर्मचारियों की क्षमताओं एवं कमजोरियों का विश्लेषण सम्मिलित है।
2. प्रशिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण - प्रशिक्षण की प्रक्रिया का अगला चरण इसके उद्देश्य का निर्धारण करना होता है एक बार प्रशिक्षण की आवश्यकता का निर्धारण कर लेने से इसके उद्देश्यों को इंगित करना सरल हो जाता है। प्रशिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण अत्यन्त ही सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए क्योंकि सम्पूर्ण प्रशिक्षण की सफलता इसके उद्देश्यों द्वारा ही निर्देशित होती है|
3. प्रशिक्षण कार्यक्रम का संगठन - प्रशिक्षण आवश्यकताओं एवं उद्देश्यों का निर्धारण हो जाने के पश्चात् अगला चरण प्रशिक्षण कार्यक्रम का संगठन अथवा नियोजन करना होता है। यह अत्यंत ही महत्वपूर्ण चरण होता है। क्योंकि इसके द्वारा सम्पूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की जाती है। इसके अन्तर्गत संगठन का प्रबन्धतन्त्र विचार-विमर्श के द्वारा इन बातों के विषय में निर्णय करता है कि:
1. किन-किन कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जाना है।
2. प्रशिक्षण की विषय-वस्तु क्या होगी ।
3. किन-किन विधियों द्वारा प्रशिक्षण प्रदान किया जायेगा।
4. प्रशिक्षण का समय, अवधि एवं स्थान क्या होगा।
5. कौन-कौन से व्यक्ति प्रशिक्षक होंगे, आदि।
प्रशिक्षण के प्रकार :- विभिन्न संगठनों द्वारा अपने उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं के आधार पर भिन्न -भिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रमों का उपयोग अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने हेतु किया जाता है। उनमें से कुछ प्रमुख का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है:-
- कार्य-परिचय अथवा अभिमुखीकरण प्रशिक्षण :- इस प्रकार के प्रशिक्षण के उद्देश्य नव-नियुक्त कर्मचारियों को उनके कार्य एवं संगठन से परिचित कराना होता है। इसके द्वारा नव-नियुक्त कर्मचारियों को संगठन की नीतियों, उद्देश्यों, संगठन की सरंचना, उत्पादन-प्रणालियों तथा कार्य-दशाओं आदि की जानकारी प्रदान की जाती है। यह प्रशिक्षण नव-नियुक्त कर्मचारियों में संगठन के प्रति निष्ठा, रूचि एवं विश्वास उत्पन्न करने तथा संगठन के साथ एकात्मकता स्थापित करने के लिए आवश्यक होता है।
- कार्य प्रशिक्षण :- कार्य प्रशिक्षण, कर्मचारियों को उनके कार्यों में दक्ष एवं निपुण बनाने तथा कार्यों की बारीकियाँ समझाने के लिए प्रदान किया जाता है, ताकि वे अपने कार्यों का कुशलतापूर्वक सम्पादन कर सकें। इसमें कर्मचारियों को कार्य के विभिन्न पहलुओं, उसमें प्रयुक्त यन्त्रों एवं उपकरणों तथा कार्यविधियों की जानकारी प्रदान की जाती है। इस प्रकार के प्रशिक्षण से कर्मचारियों की कार्यकुशलता एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है। यह प्रशिक्षण नये तथा पुराने दोनों प्रकार के कर्मचारियों को दिया जाता सकता है।
- पदोन्नति प्रशिक्षण :- संगठन में जब कर्मचारियों को पदोन्नत किया जाता है तो उन्हें उच्च पद के कार्य का प्रशिक्षण दिया जाना आवश्यक होता है, ताकि वे अपने नवीन कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वाह कर सकें। सामान्यत: संगठन द्वारा उच्च पदों की भावी रिक्तियों का अनुमान लगाकर सम्भावित प्रत्याशियों को पहले से ही प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की जाती है। कई बार कर्मचारियों को पदोéति के तुरन्त बाद भी प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है इसमें कर्मचारियों को नये पदों के कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों, अधिकारों तथा अन्य कार्यों से सम्बन्धों आदि का ज्ञान करवाया जाता है।
- पुनअभ्यास प्रशिक्षण :- वर्तमान परिवर्तनशील वातावरण एवं तीव्र प्रौद्योगिकीय विकास के परिणामस्वरूप इस प्रकार के प्रशिक्षण का महत्व बढ़ गया है। अत: कर्मचारियों को केवल एक बार प्रशिक्षित कर देना ही पर्याप्त नहीं होता है। उत्पादन में नवीन तकनीकों एवं यन्त्रों का प्रयोग किये जाने तथा नवीतम कार्य-प्रणालियों को अपनाये जाने की दशा में पुराने कर्मचारियों को पुन: प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है पुराने कर्मचारियों के ज्ञान को तरा-ताजा करने उनकी मिथ्या धारणाओं को दूर करने, उन्हें नवीन कार्य-पद्धतियों एवं नये सुधारों से परिचित करवाने तथा उन्हें नवीन परिवर्तन से अवगत कराने की दृष्टि से यह प्रशिक्षण आवश्यक है। इस प्रकार ज्ञान का नवीनीकरण एंव विकास सूचनाओं का प्रसार, कार्य-शैलियों में परिवर्तन तथा वैयक्तिक विकास आदि इस प्रशिक्षण के प्रमुख उद्देश्य हैं।
प्रशिक्षण के सिद्धान्त :- विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के लिए प्रशिक्षण के सर्वमान्य सिद्धान्तों की सूची तैयार करना, यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य प्रतीत होता है। प्रत्येक व्यवसाय की अपनी विशेषता होती है जिसका व्यवसाय में दिए जाने वाले प्रशिक्षण की प्रकृति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रशिक्षण के सिद्धान्त है, जिनका प्रयोग व्यवसाय में किया जा सकता है।
- प्रेरणा का सिद्धान्त - प्रत्येक, व्यक्ति (कर्मचारी) अपने जीवन में कुछ अभिलाषाएँ रखता है जैसे धनोपार्जन, पदोन्नति, प्रशंसा, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त करने के लिए वह सदैव उत्सुक रहता है। यदि प्रशिक्षण के माध्यम से वह अपनी इन अभिलाषाओं को पूरा करना सरल समझता है तो उसे प्रशिक्षण के लिए सरलता से अभिप्रेरित किया जा सकता है।
- अभ्यास का सिद्धान्त – वास्तव में प्रशिक्षण की सफलता के लिए सैठ्ठान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार का ज्ञान आवश्यक है। अत: प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले कर्मचारी को मूल कार्य स्थितियों में अभ्यास करने का पर्याप्त अवसर दिया जाना चाहिए।
- प्रगति प्रतिवेदन का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के अनुसार कर्मचारी को प्रशिक्षण की पूर्ण सूचना दी जानी चाहिए ताकि प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले ने प्रशिक्षण अवधि में क्या-क्या सीखा है और कार्य के सम्बन्ध में उसकी क्या कठिनाई है।
- पूर्ण बनाम आंशिक प्रशिक्षण का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के अनुसार इस बात का निर्णय किया जाता है कि कर्मचारियों को समपूर्ण कार्य का प्रशिक्षण दिया जाए अथवा कार्य के एक भाग का प्रशिक्षण दिया जाए। इस बात का निर्णय संस्था के साधनो, कार्य की प्रगति और कर्मचारियों की योग्यता के आधार पर किया जाता है।
- पुन: प्रवर्तन का सिद्धान्त- प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक कर्मचारियों को आकर्षित करने के लिए जिस उद्देश्य से प्रशिक्षण दिया गया था प्रशिक्षण की अवधि समाप्त होने पर उस उद्देश्य की पूर्ति की जानी चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि वेतन में बढ़ाने की बात थी तो वेतन वृठ्ठि की जानी चाहिए और पदोन्नति की बात थी तो पदोन्नति होनी चाहिए।
- व्यक्तिगत गुणों का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के अनुसार प्रशिक्षण देते समय जिन व्यक्तियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है उनके शारीरिक, मानसिक और बौठ्ठिक गुणों एवं योग्यताओं का ध्यान पूरा-पूरा रखना चाहिए।
प्रशिक्षण के तीन उद्देश्य है :-
- सेवा की शर्तो को परिभाषित करना,
- नए कर्मचारियों को अपने कार्य की आवश्यकता के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी देना।
- ऐसा प्रयत्न करना कि कर्मचारी में उपक्रम के प्रति स्वयं अपने काम करने की योग्यता का विश्वास पैदा हो।
- कार्य प्रशिक्षण :- इसका उद्देश्य कर्मचारियों को काम करने की श्रेष्ठतम प्रणाली सिखाना और उपलब्ध माल और साजो-सामान के अनुकूलतम उपयोग में दक्ष बनाना है। इस तरह के प्रशिक्षण में कर्मचारियों को कार्य से संबंधित पूरी प्रक्रिया में प्रशिक्षण किया जाता है, जिससे वे उत्पादन-प्रक्रिया में स्थान-स्थान पर काम के एकित्रात हो जाने से पैदा होने वाले गतिरोध की समस्या को आसानी से समझ सकते हैं और उससे बचने की व्यवस्था कर सकते हैं। । इससे बेहतर होने की सम्भावना भी कम हो जाती है।
- पुर्नाभ्यास प्रशिक्षण: - योडर के शब्दों में, '' इसका उद्देश्य पुराने कर्मचारियों को काम करने की पठ्ठति फिर से सिखाना है, जिससे वे समय के पारितने के साथ अपने पुराने प्रशिक्षण में सीखे गए ज्ञान को, भूल जाने पर: फिर से ताजा कर रहे हैं। चाहिए। '' यह प्रशिक्षण निश्चय: केवल पुराने प्रशिक्षण की तुलना में कम अवधि में ही पूरा किया जाता है। कभी-कभी इस प्रशिक्षण में पुराने कर्मचारियों को नए-नए तरीकों से भी परिचित और प्रशिक्षित बनाया जाता है।
- पदोन्नति के लिए प्रशिक्षण: - अधिकाशं संस्था अपने यहाँ उच्च पदों पर अपनी ही योग्य अधिकारी को पदोन्नति देकर पदोन्नति देती है। कर्मचारियों को प्रेरणा देने की यह एक महत्वपूर्ण विधि है। लेकिन कर्मचारियों को निम्नलिखित पदों से उच्चतर पदों पर पदोन्नति देने में समय लगता है, उन्हें नए पदों की जिम्मेदारियों और बारीकियों के बारे में प्रशिक्षण अनिवार्य हो जाएगा।] प्रशिक्षण के बल पर ही वे नए वातावरण और अपनी योग्यता में दृढ़ता और सफल सिठ्ठ हो सकते हैं।
प्रशिक्षण की कार्य पद्धति: -
- प्रशिक्षण कार्य को पूरा करने के लिए एक समयभंगी तैयार की जानी चाहिए। उसी के अनुसार कार्य प्रारम्भ करना चाहिए जिसमें प्रशिक्षणाथ्रिी द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान प्रमण्डल हो सके।
- कार्य का विभाजन प्रमुख क्रियाओं के मध्य होना चाहिए। कार्य विश्लेषण और कार्य विवरण प्रशिक्षण से पूर्व की परिभाषाएँ है।
- प्रशिक्षण के स्थान की उचित व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे समय पर कोई कठिनाई न हो।
- प्रशिक्षण के लिए सभी आवश्यक सामग्री उपलब्ध होनी चाहिए। प्रशिक्षण देने वाले और प्रशिक्षण पाने वाले की तैयारी की जाँच होनी चाहिए। इसके बाद जो कार्य किया जाना है उसकी स्वयं की भी जांच होनी चाहिए।
- सभी प्रकार की आवश्यकता व्यवस्था और जांच के बाद कर्मचारी को स्वतन्त्र रूप से कार्य पर छोड़ दिया जाना चाहिए जिससे वह स्वयं भी कार्य कर सके। आवश्यकता पड़ने पर किसी की सहायता भी सुलभ कराई जा सकती है, जिससे वह स्वयं कार्य में दक्षता प्राप्त कर ले।
पदोन्नति अंग्रेजी शब्द ‘प्रमोशन’ का मूलत: लेटिन शब्द ‘प्रेमोवीर’ से बना है जिसका मूल अर्थ ‘‘आगे बढ़ना है।’’ इस प्रकार पदोन्नति, पद, स्तर सम्मान में वृद्धि एवं योग्यता के आधार पर आगे बढ़ना है।
- पिफनर ने लिखा है- ‘‘पदोन्नति निम्न पद से उच्च पद की ओर प्रगति है जिसमें कर्तव्यों मे भी परिवर्तन आ जाता है।’’
- व्हाईट के अनुसार-’’पदोन्नति का अर्थ है एक पद से किसी दूसरे ऐसे पद पर नियुक्ति, जो उच्चतर श्रेणी का है तथा जिसमें बड़े उत्तरदायित्व तथा कार्यों की कठिन प्रकृति होती है और पदोन्नति के साथ ही पद-नाम परिवर्तन एवं वेतन-वृद्धि हो जाती है।
- टोर्पे के अनुसार- ‘‘पदोन्नति एक पद से दूसरे पद पर पहुचने का परिचायक है जिसमें कर्मचारी के कर्तव्यों में वृठ्ठि हो जाती है एवं वेतनमान भी उच्चतर हो जाता है।’’
- स्कॉट एवं स्प्रीग्रल द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार- ‘‘पदोन्नति किसी कर्मचारी का ऐसे कार्य पर स्थानान्तरण है जो उसे पहले से अधिक धन अथवा अधिक ऊँचा स्तर प्रदान करता है।’’
पदोन्नति की विशेषताएँ या लक्षण
- पदोन्नति में पद का नाम परिवर्तित हो जाता है;
- यह निम्न पद से उच्च पद पर पहुचंने की प्रक्रिया है;
- पदोन्नति से कार्मिक का वेतन भी बढ़ जाता है;
- पदोन्नति प्रतिष्ठा तथा सम्मान का सूचक है;
- पदोन्नति में कार्मिक के दायित्व उच्च तथा अधिक हो जाते है;
- यह संगठन की आंतरिक प्रक्रिया है।
पदोन्नति का महत्व :- पदोन्नति प्रक्रिया से कार्मिक एवं संगठन दोनो के लिए संगठन की जीवंतता बनी रहती है तो दूसरी और कर्मचारियों की महत्वकांक्षाओं की पूर्ति भी होती है। संक्षेप में पदोन्नति के महत्व है:-
- यह अनुभवी कर्मचारियों को संगठन में बनाए रखती है।
- मनुष्य स्वभावत: महत्वाकांक्षी तथा उन्नतिगामी होता है अत: इस व्यवस्था से कार्मिक-विकास को दिशा मिलती है।
- यह कार्मिकों को श्रेष्ठ कार्य करने को प्रोत्साहित करती है।
- पदोन्नति की श्रृंखला उपलब्ध होने पर निम्न पदों पर भी योग्य कार्मिक आना पसंद करते है।
- पदोन्नति के कारण कर्मचारी तथा संगठन में अपनत्व का रिश्ता कायम होता है।
- पदोन्नति के कारण संगठन की प्रतिष्ठा तथा कार्यकुशलता बढ़ती है क्योंकि जिन संगठनो में पदोन्नति के कम अवसर होते है उनको योग्य तथा श्रेष्ठ कर्मचारी शीघ्र ही छोड़ देते है।
- वृत्तिका विकास तथा मनोबल वृठ्ठि में पदोन्नति का महत्व स्वंय सिठ्ठ है।
पदोन्नति के प्रकार
भारत में पदोन्नति दो प्रकार की होती है-
- संवर्ग परिवर्तन - जब एक संवर्ग का कर्मचारी दूसरे संवर्ग में पदोन्नत होता है तो यह संवर्ग परिवर्तन पदोन्नति कहलाती है।
- वेतमान पदोन्नति - जब एक ही सेवा या संवर्ग के अधिकारी वर्तमान स्थिति से उच्च स्थिति की ओर पदोन्नत होते हैं तो यह वेतनमान पदोन्नति कहलाती है।
पदोन्नति के उद्देश्य :- संगठनों द्वारा कर्मचारियों को पदोन्नति की उद्देश्यों की प्राप्ति को ध्यान में रखते हुए की जाती है -
- कर्मचारियों को अधिक उत्पादकता के लिए अभिप्रेरित करना।
- संगठनात्मक पद सोपानिकी में समुचित स्तरों पर कर्मचारियों के ज्ञान एवं निपुणताओं का उपयोग करना, जो कि संगठनात्मक प्रभावशीलता तथा कर्मचारी सन्तुष्टि में परिणत होता है।
- संगठन के उच्च स्तर के कार्यों के लिए आवश्यक ज्ञान एवं निपुणताओं की प्राप्ति हेतु कर्मचारी में प्रतिस्पर्धात्मक भावना का विकास करना तथा उत्साह का संचार करना।
- योग्य एवं सक्षम लोगों को संगठन के प्रति आकर्षित करना तथा उनकी सेवायें प्राप्त करना।
- परिवर्तित वातावरण में उच्च स्तर के रिक्त पदों का उत्तरदायित्व ग्रहण करने हेतु तत्पर रहने के लिए कर्मचारियों के समक्ष आन्तरिक स्त्रोत का विकास करना।
- कर्मचारियों में आत्म-विकास को बढ़ावा देना तथा उन्हें उनकी पदोन्नति के अवसरों की प्रतीक्षा करने हेतु तैयार करना।
- कर्मचारियों में संगठन के प्रति निष्ठा एवं अपनत्व की भावना को विकसित करना तथा उनके मनोबल को उच्च करना।
- कर्मचारियों में प्रशिक्षण एवं विकास कार्यक्रमों के प्रति रूचि उत्पन्न करना।
- अच्छे मानवीय सम्बन्धों के निमार्ण हेतु संगठन के प्रति बचनबद्ध एवं निष्ठावान कर्मचारियों को पुरस्कृत करना।
- श्रम संघों का संगठन के प्रति विश्वास सृजन का प्रयास करना।
पदोन्नति के आधार
पदोन्नति के लिए विभिन्न आधार अपनाये जाते हैं। पदोन्नति: पदोन्नति के दो सु प्राप्त आधार योग्यता और वरिष्ठता हैं। एक अन्य पदोन्नति का आधार है, वरिष्ठ अधिकारियों की सिफारिश, जो कि विभिन्न रूपों में सभी प्रकार के सगथनों के आधार पर पदोन्नति के समर्थक होते हैं, जबकि दूसरी ओर श्रम संघों की दृष्टि से वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति दी जानी चाहिए।
1. योग्यता के आधार पर पदोन्नति :- योग्यता के आधार पर पदोन्नति करने हेतु यह आकलन किया जाता है कि कोई कर्मचारी उस नये उच्च पद के लिए कितना योग्य है? उसके उस नये पद पर सफल होने की कितनी सम्भावना है? इन सभी बातों को ध्यान में रखकर ही उसकी पदोन्नति की जाती है। इसके अन्तर्गत उसकी सेवा की अवधि को ध्यन में नहीं रखा जाता है।
योग्यता के आधार पर पदोन्नति से होने वाले लाभ :-
- योग्य एवं कुशल कर्मचारी अपनी प्रगति हेतु अधिक परिश्रम से काय्र करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं|
- अकुशल कर्मचारियों को यदि यह विश्वास हो जाता है कि पदोन्नति केवल योग्यता के आधार पर ही की जायेगी तो वे अपनी कमियों को दूर करने के प्रयास करते हैं। इस प्रकार, सम्पूर्ण संगठन के कर्मचारियों की कार्यकुशलता एवं योग्यता में वृद्धि होती है; तथा
- यदि संगठन के समस्त कर्मचारी परिश्रम एवं लगन से कार्य करते हैं तो उत्पादन में वृद्धि होती है, जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण समाज भी लाभान्वित होता है।
योग्यता के आधार पर पदोन्नति से होने वाले लाभो के होते हुए भी इसके कुछ दोष :-
1. यह संगठन के प्रबन्धकों और पर्यवेक्षकों आदि को, जिन्हे कर्मचारियों की योग्यताओं के विषय में अपनी राय देनी होती है। पक्षतापूर्ण नीति को अपनाने का अवसर प्रदान करता है। इससे योग्यता की आड़ में जातिवाद और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिलता है;
2. यह उन कर्मचारियों में असंतुष्ट और निराशा की भावना को उत्पन्न करता है, जो कि वरिष्ठ होते हैं और जिनकी पदोन्नति नहीं होती है;
3. श्रम संघ, योग्यता के आधार पर पदोन्नति के समर्थक नहीं होते हैं, जिसके फलस्वरूप असन्तोष फैलता है और औद्योगिक सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है।
2. वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति :- वरिष्ठता का तात्पर्य एक ही संगठन के अन्तर्गत पर ही कार्य पर सेवा की अवधि से है। इसकी गणना किसी कर्मचारी के कार्य आरम्भ करने की तिथि से की जाती है। वरिष्ठता को पदोन्नति के आधार के रूप में मानने के पीछे यह तर्क है कि एक ही कार्य पर सेवा की अवधि और किसी कर्मचारी द्वारा संगठन के अंतर्गत अर्जित ज्ञान की मात्रा और निपुणता के स्तर के बीच एक सकारात्मक सह-सम्बन्ध होता है। यह व्यवस्था इस प्रथा पर भी आधारित होती है कि जो संगठन में पहले आयेगा उसे ही सभी हित-लाभ और विशेषाधिकारों में पहले अवसर में जाने चाहिए।
वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति के गुण है :-
- यह एक उचित आधार है तथा इसके अपनाने से प्रबन्धकों एवं पर्यवेक्षकों को अपने विवेकानुसार अथवा पक्षपातपूर्ण ढंग से पदोन्नति हेतु कर्मचारियों के चयन करने की छूट नहीं मिल पाती हैं।
- यह अधिक व्यावहारिक आधार है, क्योकि योग्यता का मापन अत्यन्त कठिन कार्य है;
- इससे कर्मचारियों में संगठन के प्रति निष्ठा एवं अपनत्व की भावना में वृद्धि होती है, क्योंकि उन्हें पता रहता है कि वरिष्ठता के आधार पर उनके पदोन्नति के अवसर आने पर उनके साथ अन्याय नहीं होगा;
- यह आधार कर्मचारियों को अधिक सन्तुष्टि प्रदान करता है, क्योंकि उनकी पदोन्नति उचित समय पर हो जाती है; तथा
- पदोन्नति के इस आधार का श्रम संघों द्वारा प्रबल समर्थन किये जाने से यह विवादों को भी कम करने में सहायक होता है।
वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति में होने वाले गुणों के साथ-साथ इसमें विद्यमान कुछ दोष :-
- यह कर्मचारियों को परिश्रम और कौशल के साथ कार्य करने को प्रोत्साहित नहीं करता है, क्योंकि उन्हें यह आश्वासन रहता है कि वे चाहे कार्य करें या न करें उनकी पदोन्नति तो होगी|
- यह योग्य, परिश्रमी एंव कुशल कर्मचारियों के मनोबल को गिरता है तथा उन्हें हतोत्साहित करता है, क्योंकि वे सोचते हैं कि परिश्रम से कार्य करने पर भी उन्हें पदोन्नति नहीं मिल पायेगी; तथा
- इससे संगठन की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, क्योंकि आयोग्य एवं अकुशल कर्मचारी इसलिए परिश्रम नहीं करते हैं, क्योंकि उनकी पदोन्नति में कोई रूकावट नहीं होती, जबकि योग्य एवं कुशल कर्मचारी असन्तुष्ट होने के कारण उत्साह एवं लगन से कार्य नहीं करते हैं।
वरिष्ठता के साथ योग्यता :- वरिष्ठता और योग्यता, दोनों ही पदोन्नति के आधारो कें सापेक्षिक गुण-दोषों का विवेचन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि दोनों ही आधार के अपने-अपने लाभ हैं। और साथ ही उनमें कछु दोष भी हैं। व्यवहार में, वरिष्ठता को ही आधार मानकर पदोन्नति की जाती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि योग्यता के महत्व को स्वीकार ही किया जाए। वास्तव में, दोनों ही आधारों के प्रति सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाना उचित ही होता है। यदि यह स्पष्ट है कि कोई वरिष्ठ कर्मचारी नए और उच्च पद के कार्य को सम्पन्न कर सकता है तो चाहे वह थोड़ा कम ही योग्य क्यों न हो, उसकी पदोन्नति की होनी चाहिए। लेकिन, यदि वह बिल्कुल ही अयोग्य है तो केवल वरिष्ठता के आधार पर उसकी पदोन्नति किए जाने से संगठन का नुकसान ही होगा। अत: इस सम्बन्ध में निर्णय लेते समय सम्बन्धित कर्मचारी, प्रबन्ध एवं सेवायोजक तीनों के मूल्यों को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है।)
लोक प्रशासन का भर्ती में बहुत योगदान है | लोक प्रशासन में भर्ती होती है उसके बाद किस प्रकार से प्रशिक्षण दिया जाता है उसके प्रकार क्या होते है | इसके बाद ही किसी व्यक्ति का चयन किया जाता है| उसी पद पर कार्य करते हुए पदोन्नति भी हो जाती है उसके बारे में भी विस्तृत वर्णन ऊपर किया गया है |
कार्यस्थल में नैतिकता और नैतिक चुनौतियां
सार्वजनिक प्रशासन के सभी स्तरों पर, सभी गैर-लाभकारी संस्थाओं और सरकारी संगठनों में, नैतिक चुनौतियां मौजूद हैं,जो कि निम्न उल्लेखित हैं:-
- ब्याज और निष्पक्षता के वित्तीय संघर्ष: उदाहरण के लिए, एक सरकारी कर्मचारी जो किसी व्यवसाय के लिए एक सरकारी अनुबंध प्रदान करता है।
- उपहार और भुगतान: एक शीर्ष अधिकारी छुट्टी उपहार के लिए अपने सचिव से पूछ रहा है।
- सरकारी पद और संसाधनों का उपयोग: एक परिवार की छुट्टी के लिए भुगतान करने के लिए सरकारी धन का उपयोग करने वाला कर्मचारी।
- रोजगार और गतिविधियों के बाहर: एक सैन्य ठेकेदार के लिए एक सैन्य अधिकारी काम कर रहा है।
पिछले एक दशक में, लोक प्रशासन में नैतिक विफलताओं और दुविधाओं के कई उदाहरण हैं। लोक सेवकों के बीच अन्य प्रकार के नैतिक उल्लंघनों में पुलिस भ्रष्टाचार, सार्वजनिक आंकड़ों से जुड़े बाहरी रिश्वत घोटालों और राजनीतिक भ्रष्टाचार शामिल हैं।
नैतिकता की अवधारणा
नैतिकता की अवधारणा सही और गलत मानव आचरण के सिद्धांतों से संबंधित है। मानव में नैतिक गुण उनके चरित्र लक्षण जैसे ईमानदारी, अखंडता, आदि हैं। नैतिकता की अवधारणा मानव जाति के लिए काफी जटिल है। यह एक समूह, एक पेशे या एक संगठन के सदस्यों के लिए स्वीकार्य आचरण के मानकों से संबंधित है। चूँकि पूरे संगठन या समूह का संबंध है, यह व्यक्ति के लिए सही और गलत के बीच चयन करने के लिए समस्या पैदा करता है और यह डोनेट्स के बीच भी होता है।
किसी संगठन की प्रभावी कार्यप्रणाली उसके जनशक्ति और नेतृत्व की गुणवत्ता पर टिकी होती है। इस प्रकार, एक कर्मचारी या संगठन या समूह से जुड़ा एक व्यक्ति अपने प्रशासन में सबसे महत्वपूर्ण इनपुट स्थापित करता है। जनशक्ति को विभिन्न व्यवस्थित नियोजन, पर्याप्त प्रशिक्षण और पर्याप्त शिक्षा का उपयोग करके मानव संसाधनों में परिवर्तित किया जाना है। इन विधियों का उपयोग करते हुए, संगठन के सदस्यों के बीच प्रभावी नैतिक और नैतिकता का विकास होता है।
नैतिकता और नैतिकता की अवधारणा मूल रूप से दार्शनिक लक्षण हैं जो हमारी समझ की सीमाओं से परे हैं। निम्नलिखित अवधारणा के निर्धारित मानक हैं जिनका प्रशासन द्वारा पालन किए जाने की उम्मीद है:
- स्वार्थ का विचार: एक लोक सेवक को अपने निर्णय को किसी भी पक्ष या पूर्वाग्रह से वंचित रखना चाहिए।
- व्यवहारिक अखंडता: एक लोक सेवक का झुकाव कभी भी किसी वित्तीय या अन्य दायित्वों के प्रति नहीं होना चाहिए।
- तर्कसंगतता और वस्तुनिष्ठता की अवधारणा: पुरस्कार या दंड देने के मामलों में चाहे उनकी पसंद बना रहे हों, एक कार्यालय धारक योग्यता के आधार पर उसके निर्णय के लिए उत्तरदायी है।
- कार्यात्मक जवाबदेही: एक सार्वजनिक कार्यालय धारक जनता के लिए अपने निर्णयों और कार्यों के लिए ज़िम्मेदार होता है और उसे अपने कार्यालय को जो भी जाँच उपयुक्त होती है, उसे स्वयं / स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए।
- ईमानदारी और खुलेपन: सार्वजनिक निर्णय खुले और ईमानदार तरीके से किए जाने हैं।
ये मानक संक्रामक हैं और पूरे सिस्टम और हमारे समाज में और साथ ही सार्वजनिक अधिकारी के दृष्टिकोण और जिम्मेदारी में आवश्यक बदलावों के साथ फैलेंगे। ये जिम्मेदारियां इस प्रकार हैं:
- नागरिकों की सेवा करना और उस सेवा में निष्पक्ष और मैत्रीपूर्ण होना
- प्रबंधन के लिए, ग्राहकों के लिए और सामान्य रूप से जनता के लिए जवाबदेह होना
- भ्रष्टाचार के खिलाफ सतर्क रहना, और उनके काम में हितों के टकराव की अनुमति नहीं देना
- ये नैतिक या नैतिक प्रश्न हैं, जिन्हें सार्वजनिक हित सुनिश्चित करने में सिविल सेवकों द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए।
- इसलिए, सुशासन की भावना नैतिकता और नैतिकता में निहित है, और यह मूल्यों, नैतिक विचलन, विपथन और भ्रष्ट व्यवहार और कार्यों के क्षरण के साथ पैदा होती है।
- यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमारी प्रशासनिक प्रणाली मानकों के वांछित सेट के अनुसार काम कर रही है, सबसे महत्वपूर्ण कदम नीति निर्माता और नीति कार्यान्वयनकर्ता, यानी राजनेता और सिविल सेवक के बीच के मौजूदा संबंध को देखना है।
- भारत में, हमने अपनी पसंद की राजनीतिक प्रणाली को अपनाया था, लेकिन यह प्रशासनिक प्रणाली के लिए सही नहीं है, हमारी प्रशासनिक प्रणाली अतीत की विरासत है जिसे हमने अपनी पर्यावरणीय सेटिंग्स के अनुरूप अपनाया है।
नैतिकता का महत्व
आधुनिक दुनिया में, हर सरकार भूमंडलीकरण, राष्ट्रीय सीमाओं पर आर्थिक प्रतिस्पर्धा, सामाजिक और राजनीतिक गड़बड़ी, तकनीकी परिवर्तन, आतंकवाद के खतरे और तेजी से बदलते श्रम बाजार जैसी कुछ चुनौतियों से निपट रही है। ये चुनौतियाँ केवल राष्ट्र के ईमानदार और परिश्रमी लोगों को ही मिल सकती हैं। यह इस प्रकार सार्वजनिक प्रशासनिक प्रणाली के व्यवहार में नैतिकता और नैतिकता के महत्व को तेज करता है।
नौकरशाही मुख्य रूप से अपने पारंपरिक मूल्यों जैसे आज्ञाकारिता, ईमानदारी, गुमनामी, राजनीतिक टुकड़ी, विशेषज्ञता की श्रृंखला, समानता, व्यावसायिकता और सार्वजनिक सेवाओं पर मुख्य रूप से झुकाव के लिए पहचानी जाती है। लोकतांत्रिक मूल्य, जैसे समानता, कानून, न्याय, अधिकार और स्वतंत्रता के नैतिक संबंध हैं, जो शासन करने वालों से दृढ़ प्रतिबद्धता का दावा करते हैं। सिविल सेवकों से नैतिक और नैतिक व्यवहार सुनिश्चित करने की बढ़ती मांग के लिए कई कारकों को प्रमुख कारण के रूप में सूचीबद्ध किया जा सकता है। ये इस प्रकार है:-
- सरकारों के कार्यों में वृद्धि और कल्याणकारी राज्य अवधारणा।
- नागरिक द्वारा एक खुली और जवाबदेह सरकार के लिए बढ़ती मांग।
- नागरिकों के अधिकारों में वृद्धि।
- सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के बढ़ते मामले।
- नागरिकों की ओर से बढ़ती अपेक्षाएँ और परिणामी कुंठाएँ।
विशेषज्ञों के अनुसार, निर्णय को सार्वजनिक करने के दौरान, नौकरशाही लगातार दो परस्पर विरोधी स्थितियों का सामना करती है जैसे कि व्यक्तिगत या सामूहिक हित और सार्वजनिक हित की सेवा के बीच। इसलिए, सार्वजनिक अधिकारियों के व्यवहार को सार्वजनिक हित के अनुरूप बनाए रखने के लिए, प्रशासकों की नैतिकता का सवाल विभिन्न संस्थागत जांचों के साथ-साथ आधुनिक प्रशासनिक प्रक्रिया में एक सिद्धांत चिंता का विषय बन जाता है।
प्रशासनिक निर्णयों का नियामक होना और पावर मोंगरों द्वारा शक्तियों में हेरफेर करना हमेशा एक जोखिम भरा सवाल रहा है। आधुनिक समाजों में प्रशासनिक शक्तियों के उपयोग में वृद्धि के साथ, प्रशासकों में नैतिक चेतना विकसित करने की आवश्यकता प्रमुख हो गई है।
यद्यपि सिविल सेवा के बीच निष्पक्षता, ईमानदारी और भक्ति सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न कानून, नियम और कानून हैं, फिर भी प्रशासनिक शक्तियों के दुरुपयोग की गुंजाइश काफी अधिक है जिसे निर्धारित कानूनों, प्रक्रियाओं और विधियों द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। एक प्रशासक को अपने स्वयं के सिद्धांतों के लिए, अपनी स्वयं की भक्ति के लिए और गरिमा और गर्व की अपनी इंद्रियों के लिए और अपने स्वयं के ईमानदार प्रयासों के लिए जवाबदेह होना चाहिए ताकि एक आदर्श कल्याणकारी राज्य के विचार को पूरी तरह से स्थापित किया जा सके। सार्वजनिक सेवाओं में नैतिक मानकों का विकास करना चाहिए जो उनके सर्वोत्तम प्रदर्शन मानकों में उनकी मदद करते हैं। इन मानकों का समग्र रूप से समाज पर आजीवन प्रभाव पड़ेगा।