UNIT 10
भारत मे चुनावी व्यवहार
चुनाव एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से एक आधुनिक राज्य अपने नागरिकों में सार्वजनिक मामलों में शिरकत एवं भागीदारी का भाव उत्पन्न करता है। एक अच्छी चुनाव-प्रणाली ही असली प्रतिनिधि सरकार की आधारशिला है। काफी कुछ बात पर निर्भर है कि व्यवहार में यह प्रणाली किस प्रकार चलती है, क्या राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त सक्षम एवं सद्चरित प्रशासकगण चुनावों को कुशलतापूर्वक और निष्पक्ष रूप से करवाते हैं। मतपत्र के फैसले में व्यापक विश्वास का अभाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता की आस्था को ध्वस्त कर सकता है। चुनाव-प्रक्रिया के महत्त्व पर जोर देते हुए पुलॉक ने पाया - “(जब तक कि आम चुनाव यथार्थता एवं कुशलता के साथ न कराये जाएँ, न सिर्फ लोक सेवाओं की मान-प्रतिष्ठा घटती है बल्कि पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली खतरे में पड़ जाती है।'' हमारा देश सरकार की संसदीय प्रणाली वाला एक संवैधानिक लोकतंत्र है, और इस प्रणाली के अंतस्तल में है- नियमित, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने हेतु एक वचन | ये चुनाव सरकारी की संरचना, संसद के दो सदनों, राज्य व संघ-शासित विधानसभाओं की सदस्यता, तथा राष्ट्रपति पद एवं उप-राष्ट्पति पद का निर्धारण करते हैं।
लोकतंत्र यह निर्धारित करने में मदद करते है कि देश किस प्रकार शासित हो, और साथ ही, उनका चयन करते हैं जो राज्य सत्ता का प्रयोग करेंगे । चुनाव वे मूल क्रियाविधि भी हैं जिनके द्वारा नागरिक जन सरकारों को जिम्मेदार ठहराते हैं, पूर्व प्रभावी रूप से उनकी नीतियों के साथ-साथ अधिक स्थूल रूप से उस कार्यप्रणाली के लिए भी, जिसमें वे शासन करती हैं । ये चुनाव पार्टी गतिविधियों को मजबूती प्रदान करते हैं और जनसाधारण की राजनीतिक जागरूकता को बढ़ाते हैं। वे मतदाताओं को शिक्षित करते हैं और सरकार को वैधता प्रदान करते हैं। यद्यपि चुनाव लोकतांत्रिक राजनीति में मुख्य संस्थाओं में से एक माने जाते हैं, उनका दुरुपयोग कोई असामान्य बात नहीं। ये चुनाव सरकार की भिन्न-भिन्न प्रणालियों में भिन्न-भिन्न परिणाम सामने लाते हैं। सभी प्रकार के नेतागण, फौजी तानाशाह से लेकर असैनिक अधिनायकों तक, शासन करने हेतु वैधता प्रदान करने में चुनावों की शक्ति और महत्त्व को मान्यता देते हैं । गैर-लोकतांत्रिक तरीकों से देश को चलाने के इच्छूक सैनिक अथवा असैनिक नेतागण सत्ता में बने रहने के लिए चुनावों को एक हथियार के रूप प्रयोग करते हैं | ये नेतागण चुनावों में चालबाज़ी करने के लिए बड़े-बड़े प्रयास करते हैं । तथापि, किसी चुनाव-प्रणाली की सभी कमियों व असंगतियों के बावजूद, ये चुनाव किसी भी राज्य-व्यवस्था में मुख्य मुद्दों को तय कर सकते हैं | चुनाव ही यह व्यवस्था देते हैं जिससे कि वैध राजनीतिक सत्ता नीचे से ऊपर प्रवाहित होती है। अत: लोकतंत्र के लिए चुनाव अनिवार्य हैं, लेकिन तभी जब वे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष तथा अनियमितताओं एवं क्रीतियों से रहित हों। चुनावी क्रीतियाँ न सिर्फ लोगों के मताधिकार को व्यर्थ कर देती हैं, बल्कि लोकतंत्र को सांस्थानीकृत करने के प्रयास में भी अड़चन डालती हैं।
i. निर्वांचन-तंत्र
स्वतंत्रता-पश्चात् प्रथम तीन दशकों में चुनाव आयोग की भूमिका बाहय परिधि वाली रही क्योंकि दुराचार और हिंसा कम ही देखने में आते थे। अस्सी का दशक समाप्त होते-होते, मण्डल और मन्दिर मुद्दे राजनीतिक परिषद् पर उभरे और एकमत की राजनीति ढेर हो गई। जातीय और सांप्रदायिक आधारों पर राजनीतिक रण मुख्य रंगमंच पर दिखाई पड़ने लगा। चुनावी प्रक्रिया बिगाड़ दी गई और फिर हिंसा, छल-कपट, मतदाओं को डराना- धमकाना तथा सरकारी तंत्र का दुरुपयोग आम बात हो गई। इस स्थिति के चलते चुनावी प्रक्रिया में द्रुत सुधारों हेतु आह्वान किया गया। तथापि, सभी तरह की छवि रखने वाले राजनीतिज्ञों द्वारा गंभीर चिंता व्यक्त किए जाने के बावजूद, कोई सार्थक सुधार नहीं लाया गया। चुनाव आयुक्त के पास कोई चारा नहीं था, बजाय इसके कि स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं शान्तिपूर्ण चुनाव के वास्ते अपने सांविधानिक एवं न््यायसंगत शक्तियों के प्रयोग का सहारा ले। उसने स्वस्थ लोकतांत्रिक विकास के प्रति हानिकारक ताकतों के खिलाफ देश की शीर्ष अदालतों में तमाम लड़ाइयाँ लड़ीं। यदि कहीं मूल चुनाव बिगाड़ा गया तो चुनाव आयोग ने बहिचक मतदान-केन्द्रों व समस्त चुनाव-क्षेत्रों में पुनर्नतदान के आदेश जारी किए। गत वर्षों अनेक चुनावक्षेत्रों में चुनाव रद्द किए गए, कारण मतदान-केन्द्रों पर कब्जा (बूथ कैपचरिंग), छल-कपट और व्यापक स्तर पर हिंसा। आदर्श आचार-संहिता को चुनाव आयोग द्वारा सख्ती से लागू किया जा रहा है। प्रत्याशियों व पार्टियों को अनुशासित करने के लिए चुनाव-कानून भी प्रभावशाली ढंग से लागू किया जा रहा है। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कानून एवं आदर्श आचार-संहिता को प्रभावी ढंग से लागू किए जाने के फलस्वरूप नब्बे के दशक से चुनाव प्रक्रिया पर हितकर प्रभाव पड़े । देश में निर्वाचन-तंत्र की कार्यवाही को सुधारने का श्रेय पूर्व-मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन को जाता है।
Ii. चुनाव-प्रणाली एव प्रक्रिया
चुनाव एक बेहतर राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं, जिसमें शामिल हैं - नामांकन, चुनाव-अभियान और असल मतदान संक्षिप्तत:. उन सभी साधनों को जिनके द्वारा कोई व्यक्ति एक निर्वाचित सभा का सदस्य बनता है, चुनावी प्रक्रिया का नाम दिया जा सकता है। डल्ल्यु जे. मैकेन्जी ने स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव हेतु चार शर्ते रखी हैं, नामत:, चुनावी कानून की व्याख्या हेतु एक स्वतंत्र न्यायपालिका; चुनाव कराने हेतु एक ईमानदार, सक्षम, गैर-हिमायती प्रशासन; राजनीतिक दलों का एक विकसित तंत्र, जो अपनी नीतियों को सामने रखने हेतु भली प्रकार संगठित हो, और चुने जाने वाले विकल्पों के रूप में मतदाताओं के सामने प्रत्याशियों के दल; तथा इस योजना के ऐसे कछ निश्चित नियमों के प्रति सम्पूर्ण राजनीतिक समुदाय में एक आम सहमति, जो इस संघर्ष को नियंत्रित करें। कोई भी विकासशील देश इन शर्तों का पूरी तरह से पालन करने का दावा नहीं कर सकता। फिर भी, भारत दूसरे देशों के मुकाबले इन शर्तों को पूरा करने के सबसे करीब है। वह एक स्वतंत्र न्यायपालिका और एक गैर-हिमायती चुनाव प्रशासन का वाजिब तौर पर दम भर सकता है। यद्यपि भारत राजनीतिक दलों का कोई विकसित तंत्र रखने का दावा नहीं कर सकता, इस योजना के कुछ निश्चित नियमों को आम सहमति प्राप्त है, जो कि समय के साथ गहरी जड़ें पकड़ चुकी है। चुनाव भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में एक खास जगह बना चुके हैं। चुनाव अभियानों में गहरी राजनीतिक बहसें, प्रतीकात्मक जुलूस और बड़े राजनीतिक दलों द्वारा इलैक्ट्रॉनिक प्रौद्योगिकी का बढ़ता प्रयोग सहज ही दिखाई पड़ते हैं। व्यापक निरक्षरता के चलते द श्य-प्रतीकों को भारत में अधिक महत्त्व दिया जाता है। मतदाता प्रत्याशियों की पहचान उन्हें आबंटित प्रतीक-चिहनों के माध्यम से करते हैं। नारों के रूप में मुद्दे अक्सर ही समालोचना के गुण से परिपूर्ण होते हैं.
Iii. चुनावी व्यवहार के निर्धारक तत्त्व
चुनाव संबंधी अध्ययन दर्शाते हैं कि जाति तत्त्व का संयोजन ही सबसे ताकतवर कारक है, जो चुनाव-व्यवहार को निर्धारित करता है। पंजाब में प्रमुख दलों के माफंत वोट बटोरने के लिए अकाली दल द्वारा धार्मिक भाषाई एवं क्षेत्रीय कारकों का लाभ उठाया गया है। ये क्षेत्रीय एवं भाषाई कारक ही थे जो द्रमुक व अन्नाद्रमुक द्वारा तमिलनाडु में, तेलुगुदेशम् द्वारा आंध्र प्रदेश में, और गण परिषद् द्वारा असम में मतदाताओं की लामबंदी में प्रयोग किए गए। उन्नत लोकतंत्रीकरण एवं राजनैतिक जागरूकता के साथ ही, राजनीतिक दलों ने चुनाव के प्रयोजन हेतु जाति तत्त्व से अनुचित लाभ उठाने का प्रयास किया है, जो कि बदले में जातियों के अभिजात-वर्ग को राजनीतिक प्रक्रिया में घुस जाने में समर्थ करता है। इसका मतलब, हालाँकि यह नहीं है कि सभी जातियाँ अथवा कोई पूरी-की-पूरी जाति ही राजनीति व्यवस्था को प्रभावित करने हेतु राजनीतिक-रूप से जागरूक अथवा संघटित हो जाती हो । भारत में जाति संघ सामाजिक क्रम-परम्परा में अपनी जाति की प्रतिष्ठा को बढ़ाने हेतु शैक्षिक, सेवा व अन्य सुविधाएँ सुनिश्चित करने के प्रयास में संस्कृतीकरण के एजेण्टों के रूप में स्वतंत्रताप्राप्ति से काफी पहले ही जन्म ले चुके थे। परन्तु उनकी स्वातंत्र्योत्तर भूमिका कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण व जटिल हो गयी है क्यों कि अब वे आर्थिक के साथ-साथ राजनीति के क्षेत्र में भी दबाव समूहों की भूमिका से जुड़ गए हैं। जाति संघों ने लोगों को उनके अधिकारों एवं विशेषाधिकारों के प्रति जागरूक किया है। सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान इस बात में है कि निरक्षर जनता भी अब राजनीति में प्रभावशाली ढंग से भाग लेती है। इस प्रक्रिया के माध्यम से, जाति का राजनीतिकरण एक ऐसी स्थिति में पहँच चुका है, जहाँ न सिर्फ मतदाताओं द्वारा किसी प्रत्याशी के पक्ष में फैसला करने के लिए जाती को ही मुख्य मुद्दों मे से एक मुद्दा माना जाता है।
Iv. चुनावी-व्यवहार निर्धारक के रूप में जाति
जाति-व्यवस्था का उसके सबसे आम लेकिन बुनियादी पहलू में पदस्थिति व पदानुक्रम की एक आरोप्य व्यवस्था के रूप में वर्णन किया जा सकता है, जो लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक संबंधों को नियंत्रित एवं परिभाषित करने के लिए जानी जाती है। जाति पद चूँकि जन्म से ही आरोपित कर दिया जाता है, यह व्यवस्था वंशानुक्रमित सामाजिक स्थिति व विशेषाधिकारों की परिकल्पना करती है। यह व्यवस्था इसी वजह से सीमित है। विभिन्न जातियाँ कर्मकाण्ड, सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक स्थितियों में एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। जाति एक व्यक्ति की सामाजिक स्थिति के साथ-साथ उसकी आर्थिक स्थिति को भी इंगित करती है। जाति क्रम-परम्परा का वर्ग क्रम-परम्परा से निकट संबंध है। के.एन. राज, ऑर्दे बैतिएल, एम.एन. श्रीनिवास व कैथलीन गफ के अध्ययनों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि जाति और वर्ग के बीच एक अनुरूपता है। जमींदार व धनी किसान आमतौर पर ऊँची जातियों से संबंध रखते हैं, जैसे ब्राहमण, भूमिहार व ठाकर, जबकि दलितों, आदिवासियों व जनजातियों में बहतायत से खेतीहर मजदूरों का योगदान है। मध्यवर्ती स्तर पर, बहरहाल, जाति और वर्ग एक-दूसरे से परे हैं। जाट, गूजर, यादव व कर्मी जैसी मँझली जातियों के अधिकतर सदस्य छोटे व मध्यम दर्जे के किसान अथवा काशतकार हैं, हालाँकि एक उपरिमुखी आन्दोलन की प्रव त्ति देखी गई है। इन पिछड़ी जातियों में से कुछ धनी किसानों अथवा जमींदारों के रूप में उभरे हैं | मध्यवर्ती व पिछड़ी जातियाँ इस प्रकार मँझले व छोटे किसान-बहुल का निर्माण करती हैं। आमतौर पर बहुत थोड़ी-सी जमीन रखने वाले किसान निचली जातियों से संबंध रखते हैं और कृषि-श्रमिकों के रूप में भी काम करते हैं । तथापि, दलित, अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ व गरीब पिछड़े वर्ग ही हैं जो भूमिहीन श्रमिक बहुल की आपूर्ति करते हैं।
v. चुनाव-प्रणाली के दोष
भारतीय चुनाव-प्रणाली की कार्यशैली ने अनेक दोषों व दुराचारों का सामना किया है। किसी पार्टी के लिए डाले गए वोटों और संसद में जीती गई सीटों के बीच विसंगति, राजनीतिक दलों की बहलता, दलीय व्यवस्था में व्यक्ति-पूजा, जातीय व साम्प्रदायिक निष्ठाओं का शोषण, मांसल व धनशक्ति की भूमिका, सरकारी तंत्र का दुरुपयोग, मतदान-केन्द्र पर कब्जा, मतदाताओं को डराना-धमकाना व नकली मतदाता बनकर धोखा करना जैसे कपटपूर्ण कार्य भारतीय चुनाव-प्रणाली के मुख्य दोष हैं। चुनावी क्रीतियाँ मतदान-केन्द्रों पर बलात् कब्जा करने से लेकर उन पार्टियों के युवा उग्र दलों अथवा गुण्डा गुटों को चलाने तक देखी जाती हैं जो कुछ खास समुदायों को चुनाव से पूर्व निशाना बनाकर आतंकित कर सकते हैं ताकि उन्हें मतदान से रोका जा सके। यहाँ तक कि चुनाव कर्मचारियों को भी गुप्त सहयोग के लिए घूस खिलायी जाती है अथवा आँख मूँदकर चुपचाप काम करने के लिए डराया-धमकाया जाता है | मतदान-केन्द्रों पर कब्जा करने जैसा दुष्कार्य 1957 के द्वितीय आम चुनाव से प्रचलन में आया, खासकर बिहार में | यह दृश्य-प्रपंच धीरे-धीरे पूरे देश में विभिन्न रूपों एवं आयामों में फैल गया। चुनावों में मांसल शक्ति की बढ़ती आवश्यकता ने ज़्यादा पैसा लगाये जाने को भी जरूरी कर दिया। पहले मतदाताओं को व्यक्तिगत रूप से घूस दी जाती थी, फिर यह ज़्यादा सुविधाजनक लगा कि मतदाताओं को अलग-अलग पैसा खिलाने की बजाय कुछ हटूटे-कट्टे पहलवानों को खरीदा जाए जो मतदान-केन्द्र पर कब्जा करके या फिर मतदाताओं को डरा-धमकाकर जीत सुनिश्चित कर सकें |
भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है। लोकतंत्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताने-बाने में एक सुनहरे धागे की तरह चलता है, जिसे 'हम, भारत की जनता' द्वारा दिए गए संविधान ने बुना है। संविधान द्वारा पूर्व की तरह लोकतंत्र की अवधारणा चुनाव की विधि द्वारा संसद और राज्य विधानसभाओं में लोगों के प्रतिनिधित्व को स्थान देती है। सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि लोकतंत्र भारत के संविधान की एक मूल आधारभूत विशेषता है और इसकी मूल संरचना का हिस्सा है। भारत के संविधान ने सरकार का संसदीय स्वरूप अपनाया। संसद में भारत के राष्ट्रपति और दो सदन होते हैं - राज्यसभा और लोकसभा। भारत, राज्यों का संघ होने के नाते, प्रत्येक राज्य के लिए अलग-अलग राज्य विधानसभाएँ हैं। राज्य विधानसभाओं में राज्यपाल और दो सदन - विधान परिषद और विधान सभा शामिल हैं - सात राज्यों, अर्थात् आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश और राज्यपाल और राज्य विधान सभा में। शेष 22 राज्य। उपरोक्त के अलावा, सात केंद्र शासित प्रदेशों में से दो, अर्थात् राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और पुदुचेरी में भी अपनी विधानसभाएं हैं।
मतदाता क्षेत्र और सीटों का रिसर्वेशन
देश को 543 संसदीय क्षेत्रों में विभाजित किया गया है, जिनमें से प्रत्येक एक सांसद को लोकसभा, संसद के निचले सदन में लौटाता है। फेडरल डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ इंडिया की छत्तीस घटक इकाइयाँ हैं। सभी उनतीस राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में से दो की अपनी विधानसभाएं हैं - विधान सभाएं। इकतीस विधानसभाओं में 4120 निर्वाचन क्षेत्र हैं।
कुल जनसंख्या 1.2 बिलियन
कुल क्षेत्रफल 3.3 मिलियन किमी 2
मतदाताओं की संख्या 834,082,814 (173,212,343 1951-52 की तुलना में)
पुरुष मतदाता
437,035,372
महिला मतदाता 397,018,915
थर्ड जेंडर 28,527
युवा (18-19) 13,430,193
मतदान केंद्रों की कुल संख्या 9,27,553
राज्य सभा 250 से अधिक सदस्य नहीं (वर्तमान में 243); संविधान के अनुच्छेद 80 के तहत राष्ट्रपति द्वारा 12 सदस्यों को नामित किया जाता है
लोकसभा 543 सदस्य और संविधान के अनुच्छेद 331 के तहत राष्ट्रपति द्वारा नामित एंग्लो-इंडियन समुदाय के 2 सदस्य हैं|
विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का निर्धारण
संसदीय या विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के पुनर्वितरण को सुनिश्चित करने के लिए जितने व्यावहारिक होने चाहिए, प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में उतने ही लोग हैं। जनसंख्या में बदलाव को प्रतिबिंबित करने के लिए दस-वर्षीय जनगणना के बाद सीमाओं का पुन: परीक्षण किया जा रहा है, जिसके लिए कानून द्वारा संसद एक स्वतंत्र परिसीमन आयोग की स्थापना करती है, जो मुख्य चुनाव आयुक्त और दो न्यायाधीशों या सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों से बना होता है। । हालाँकि, 1976 के एक संविधान संशोधन के तहत, 2001 की जनगणना के बाद तक परिसीमन को निलंबित कर दिया गया था, ताकि राज्यों के परिवार नियोजन कार्यक्रम लोकसभा और विधानसभा में उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को प्रभावित न करें। इससे निर्वाचन क्षेत्रों के आकार में कुछ विसंगतियां पैदा हुईं।
- इस तरह के कानून से संबंधित तर्क यह था कि कुछ राज्य जो जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को लागू कर रहे थे, महसूस किया कि वे 1981 और 1991 की जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में कुछ प्रतिनिधित्व खो सकते हैं उनकी तुलना में, जो राज्य जनसंख्या नियंत्रण में इतने प्रभावी नहीं थे।
- हालांकि, समय के बीतने के साथ, उपरोक्त कानून के परिणामस्वरूप, लगभग सभी संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों के मतदाताओं में व्यापक असमानता पैदा हुई, जिससे ‘एक आदमी, एक वोट, एक मूल्य’ के सिद्धांत को प्रभावित किया गया।
- इसलिए, 2001 में 84 वें संशोधन द्वारा संविधान में एक और संशोधन किया गया जिसमें यह प्रावधान किया गया था कि 1991 की जनगणना के आधार पर सभी संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों की क्षेत्रीय सीमा को फिर से समायोजित किया जा सकता है| लेकिन जनगणना के आधार पर लोकसभा में राज्यों को सीटों का आवंटन और राज्य विधानसभाओं में कुल सीटों की संख्या को निर्धारित भी किया जा सकता है।
- इस कानून को वर्ष 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना तक अपरिवर्तित रखा गया हैं, ताकि उपरोक्त राज्यों के हितों की रक्षा के लिए जनसंख्या को अधिक प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जा सके।
- 2003 में संविधान के 87 वें संशोधन द्वारा, संसद ने फैसला किया कि 1991 की जनगणना के बजाय 2001 की जनगणना के आधार पर संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों की सीमा को फिर से लागू किया जा सकता है।
- उक्त सदनों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण भी 2001 की जनगणना के आधार पर पुन: लागू किया जाना तय किया गया था।
- उपरोक्त संवैधानिक संशोधनों के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय परिसीमन आयोग की स्थापना जुलाई 2002 में परिसीमन अधिनियम, 2002 के प्रावधानों के तहत की गई थी।
- मुख्य चुनाव आयुक्त या इनमें से एक पूर्व द्वारा नामित चुनाव आयुक्त परिसीमन आयोग के सदस्यों में से एक थे। परिसीमन आयोग ने सभी राज्यों (संसदीय क्षेत्रों अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर और नागालैंड को छोड़कर, जहां 2008 में परिसीमन प्रक्रिया को एक संशोधन द्वारा टाल दिया गया था) को छोड़कर संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों की क्षेत्रीय सीमा को फिर से समायोजित कर लिया।
- 2008 में उक्त अधिनियम में उसी संशोधन द्वारा, झारखंड राज्य के संबंध में परिसीमन आयोग द्वारा किए गए परिसीमन आदेश को भी निष्क्रिय कर दिया गया था। परिसीमन अधिनियम 2002 को जम्मू और कश्मीर राज्य तक विस्तारित नहीं किया गया और, परिणामस्वरूप, 2001 की जनगणना के आधार पर उस राज्य में निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन नहीं हुआ ।
- परिसीमन आयोग द्वारा, अनुच्छेद 82 और 170 के तहत राष्ट्रपति के आदेश से, 19 फरवरी, 2008 से सभी राज्यों में, मेघालय और त्रिपुरा राज्यों को छोड़कर, जहाँ ये आदेश 20 मार्च, 2008 से प्रभावी किए गए थे, पारित सभी आदेशों को प्रभावी बनाया गया ।
- तदनुसार, लोक सभा और राज्य विधानसभाओं के लिए 19 फरवरी, 2008 के बाद हुए सभी चुनाव, जिनमें आखिरी महाधिवेशन भी शामिल है, 2009 में लोकसभा और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के आधार पर संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों के आधार पर फिर से समायोजित किए गए हैं।
सीटों का आक्षण
संविधान 550 निर्वाचित सदस्यों के साथ लोकसभा के आकार पर एक नियंत्रण रखता है, इसके अलावा दो सदस्य हैं जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए नामित किया जा सकता है। आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के साथ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए भी प्रावधान हैं, जहां केवल इन समुदायों के उम्मीदवार चुनाव के लिए खड़े हो सकते हैं। महिला उम्मीदवारों के लिए आरक्षित एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का कानून 1999 की शुरुआत में लोकसभा में पेश किया गया था। इससे पहले कि विधेयक पर विचार किया जा सके और संसद द्वारा पारित किया जा सके, निचले सदन को भंग कर दिया गया।
चुनाव की प्रणाली
लोकसभा और प्रत्येक विधानसभा के चुनाव मतदाता वोटिंग सिस्टम के चुनावी प्रणाली का उपयोग करके किए जाते हैं। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए, मतदाता किसी एक उम्मीदवार (अपनी पसंद के) के लिए अपना वोट डाल सकते हैं, विजेता वह उम्मीदवार होता है जिसे सबसे अधिक वोट मिलते हैं।
संसद
संघ की संसद में राष्ट्रपति, लोकसभा (लोक सभा) और राज्य सभा (राज्यों की परिषद) शामिल होती हैं।
राज्य सभा – द काउंसिल ऑफ सिट्स
राज्यसभा के सदस्यों को बड़े पैमाने पर नागरिकों के बजाय बजाय अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। राज्य सभा सदस्यों को प्रत्येक राज्य विधानसभा द्वारा एकल हस्तांतरणीय वोट प्रणाली का उपयोग करके चुना जाता है। अधिकांश संघीय प्रणालियों के विपरीत, प्रत्येक राज्य द्वारा चुने गए सदस्यों की संख्या लगभग उनकी जनसंख्या के अनुपात में होती है। वर्तमान में, विधान सभा द्वारा चुने गए राज्यसभा के 233 सदस्य हैं, और साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में प्रख्यात व्यक्तित्वों में से राष्ट्रपति द्वारा नामित बारह सदस्य भी हैं। राज्यसभा के सदस्य छह साल तक सेवा दे सकते हैं| परिषद के एक तिहाई सदस्यों को हर 2 साल में चुना जाता है।
लोक सभा - लोगों का सदन (House of the people)
भारत का राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख होता है, जो प्रधानमंत्री को नियुक्त करता है, उसके पास मंत्रिपरिषद होती है, जो लोकसभा की राजनीतिक संरचना के अनुसार सरकार चलाती है। यद्यपि सरकार का नेतृत्व एक प्रधान मंत्री द्वारा किया जाता है, मंत्रिमंडल सरकार का केंद्रीय निर्णय लेने वाला निकाय है। एक से अधिक दलों के सदस्य सरकार बना सकते हैं, और यद्यपि शासन करने वाली पार्टियाँ लोकसभा में अल्पमत में हो सकती हैं, वे केवल तब तक शासन कर सकती हैं जब तक कि उनके पास अधिकांश सांसदों, लोकसभा के सदस्यों का विश्वास है। लोकसभा राज्य सभा के साथ-साथ मुख्य विधायी निकाय है। लोकसभा के सदस्य भारत के वयस्क नागरिकों द्वारा एकल सदस्य क्षेत्रीय संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों से सीधे चुने जाते हैं, जो पहले के चुनाव की प्रणाली ही है। वर्तमान में एंग्लो इंडियन कम्युनिटी का प्रतिनिधित्व करने के लिए राष्ट्रपति द्वारा नामित दो सदस्यों के अलावा लोकसभा के 543 प्रत्यक्ष निर्वाचित सदस्य हैं।
राज्य विधानमंडल
भारत एक संघीय देश है, और संविधान राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपनी सरकार पर महत्वपूर्ण नियंत्रण देता है। विधान सभाएँ (विधान मण्डल) भारत के 29 राज्यों में सरकार के प्रशासन को चलाने के लिए सीधे निर्वाचित निकाय हैं। कुछ राज्यों में, ऊपरी और निचले सदन दोनों के साथ विधायिकाओं का द्विसदनीय संगठन है। सात केंद्र शासित प्रदेशों में से दो, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और पांडिचेरी की विधानसभाएं द्विसदनीय संगठन हैं। जनसंख्या के हिसाब से विधानसभाएं की आकार तय होती हैं। 403 सदस्यों के साथ सबसे बड़ी विधानसभा उत्तर प्रदेश का और पुडुचेरी का सबसे छोटा, जिसमें 30 सदस्य हैं। राज्य सभा के चुनाव, संसद के उच्च सदन, विधान पार्षद, राज्य विधान मंडलों के ऊपरी सदन (केवल कुछ राज्यों में मौजूद) एकल हस्तांतरणीय वोट प्रणाली के माध्यम से होते हैं|
राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति
राष्ट्रपति को विधान सभा, लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुना जाता है और 5 वर्षों की अवधि के लिए कार्य करते है। एक सूत्र, जो राज्य की जनसंख्या से जुड़ा है, संसद के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के लिए वोट का मूल्य निर्धारित करता है, लोकसभा और राज्यसभा दोनों के लिए और सभी सदस्यों के वोट के कुल मूल्य से जुड़े सूत्र द्वारा निर्धारित किया जाता है। यदि किसी उम्मीदवार को अधिकांश मत प्राप्त नहीं होते हैं, तो एक ऐसी प्रणाली है जिसके द्वारा उम्मीदवारों को हारने पर उन्हें चुनाव से हटा दिया जाता है और उनके लिए वोट अन्य उम्मीदवारों को हस्तांतरित कर दिए जाते हैं, जब तक कि कोई बहुमत हासिल नहीं कर लेता। उपराष्ट्रपति का चुनाव लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित और नामांकित सभी सदस्यों के प्रत्यक्ष मत से होता है। राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद के लिए एक सफल उम्मीदवार फिर से चुनाव के लिए योग्य है।
चुनावी वय्वहार मे हमने राजनीतिक व्यवस्था में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और लोकतंत्र को मजबूत करने में चुनाव की भूमिका पर चर्चा की। यदि मतदान स्वतंत्र और निष्पक्ष न हो तो चुनाव लोकतंत्र को कमजोर भी कर सकते हैं। इसी कारण, हमारे संविधान-निर्माताओं ने निष्पक्ष चुनाव-तंत्र की व्यवस्था दी है, जो संघ व राज्य विधानसभाओं तथा राष्ट्रपति व उपन-राष्ट्रपति हेतु चुनाव करवाने के लिए कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त है। भारत में चुनाव व्यापक स्तर पर एक अनुष्ठान है जिसमें लाखों मतदाता, चुनाव कर्मचारीगण और सुरक्षाकर्मी, आदि शामिल होते हैं। चुनाव मनोरंजन और उत्तेजना से भरपूर त्योहारों की मानिंद हैं।
भारत में चुनाव जटिल राजनीतिक प्रक्रिया हैं। उन्होंने अशिक्षित और अर्ध-शिक्षित मतदाताओं वाली विशाल मानव-जाति के लिए जनसाधारण का राजनीतिकरण और सरकार की संसदीय प्रणाली का सरलीकरण किया है। जाति, सम्प्रदाय, धर्म, भाषा, क्षेत्र, आदि चुनावी व्यवहार के मुख्य निर्धारक तत्त्व हैं। तथापि, जाति चुनाव में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विभिन्न राजनीतिक दल प्रक्रियाओं को संबद्ध चुनाव-क्षेत्र की जातीय संरचना के आधार पर नामज़द करते हैं और मतदातागण जाति के आधार पर ही संघटित किए जाते हैं। चुनाव के बाद भी जाति को मंत्रिमण्डल के गठन में यथेष्ट सम्मान दिया जाता है। इस प्रकार, भारतीय चुनाव को निर्वाचन में जाति की भूमिका को भली प्रकार समझे बगैर नहीं समझा जा सकता। भारत में चुनावों को धन व मांसल शक्ति के दुष्प्रभाव द्वारा विकृत रूप प्रदान कर दिया गया है। इसने चुनावी राजनीति के आपराधीकरण की ओर प्रव त्त किया है। पहले अपराधी लोग बाहर से समर्थन दिया करते थे, परन्तु अब वे खुद ही चुनाव के अखाड़े में उतर चुके हैं और न सिफ सदन के सदस्य हैं बल्कि मंत्री तक बन गए हैं ।
तब ही स्वतंत्र एवं निष्पछ मतदान कराया जा सकता है , जो की भारत मे लोकतंत्र को मजबूत बनाये जाने की ओर अग्रसर करेगा।