UNIT 2
अरस्तू
अरस्तु एक ग्रीक यूनानी दार्शनिक था| अरस्तु प्लूटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे | वे दुनिया के बड़े विचारको में से एक थे | अरस्तु का मानना था कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड के केंद्र में है और केवल चार तत्वों से बनी है – मिट्टी , जल ,वायु और अग्नि | उनके मतानुसार सूरज , चाँद , और सितारों जैसे खगोलीय पिंड परिपूर्ण और ईश्वरीय है और सारे पांचवें तत्व से बने है जिसे वे ईथर कहते थे |
अरस्तु ने भौतिकी , अध्यातम ,कविता , नाटक , संगीत , तर्कशास्त्र , राजनीति शास्त्र , नीतिशास्त्र , जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना करी | अरस्तु का राजनीति पर प्रसिद्ध ग्रन्थ “पॉलिटिक्स “है | अरस्तु ने जंतु इतिहास नामक पुस्तक लिखी | अरस्तु को “Father of Biology” का सम्मान प्राप्त है |
अपने ग्रन्थ ‘पॉलिटिक्स’ में अरस्तु ने राज्य की उत्पत्ति , स्वरुप तथा लक्ष्य के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करते हुए कहा है कि ‘मनुष्य एक सामाजिक तथा राजनीतिक प्राणी है |’ अरस्तु के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व और विकास राज्य में ही संभव है |
अरस्तु को एक संगठन मानता है और व्यक्ति को उसकी एक इकाई मानता है जिसको राज्य से अलग नहीं किया जा सकता है |
राज्य की उत्पति :- अरस्तू ने राज्य की उत्पत्ति के बारे में प्रचलित तत्कालीन समझौता सिद्धान्त तथा दैवीय सिद्धान्त का खण्डन करते हुए यह
सिद्ध करने का प्रयास किया कि राज्य एक ऐसे ऐतिहासिक विकास का परिणाम है, जिसकी शुरुआत परिवार से होती है।
अरस्तू के अनुसार मनुष्य की दो मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं। अरस्तू के अनुसार मनुष्य की दो मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं – भौतिक आवश्यकता तथा प्रजनन की आवश्यकता। भौतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह दास के सम्पर्क में आता है तथा प्रजनन की आवश्यकता के कारण स्वामी और स्त्री परस्पर एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।
उसके मुख्य मूल वैचारिक आधार हैं :-
सर्वप्रथम अरस्तू का मानना है कि मनुष्य के दो प्राथमिक एवं स्वाभाविक सहजबोध हैं जिनके कारण वह दूसरों के साथ संगति करने पर बाध्य होता है।
ये मूल प्रवृत्तियाँ या सहजबोध हैं – आत्मरक्षा तथा यौन संतुष्टि |
अपनी सामाजिक आवश्यकता की प्रवृत्ति एवं अच्छे जीवन की आकांक्षा से प्रेरित होकर मनुष्य मात्र का निर्माण करता है।
अरस्तू का मानना है कि सभी वस्तुएँ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होने में दृढ़ संकल्प हैं। सभी वस्तुएँ अपने अन्त को प्राप्त करने पर ही सच्चे स्वरूप को प्राप्त करती हैं।
इसका अर्थ यह है कि मनुष्य प्रकृति से ही राजनीतिक प्राणी है। अत: राज्य ही मानव का स्वाभाविक ध्येय है। राज्य के बिना व्यक्ति या तो पशु होगा या देवता।
राज्य को स्वाभाविक संस्था सिद्ध करने के लिए अरस्तू का तीसरा तर्क यह है कि राज्य एक आंगिक संस्था है और उसका विकास और वृद्धि लगातार हो रही है।
अरस्तू के अनुसार- “राज्य एक स्वाभाविक संस्था है, वह एक ऐसी आंगिक इकाई है, जिसमें प्राणी के सभी गुण मौजूद हैं।”
राज्य की प्रकृति का सिद्धांत
अरस्तू का मानना है कि मनुष्य एक सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। सामाजिकता का गुण अन्य जीवधारियों में भी पाया जाता है, किन्तु मनुष्य की सामाजिकता का गुण अन्य से अधिक है।
- इसलिए सिद्धांत के अनुसार राज्य के कानूनों का पालन करने के लिए मनुष्य के पास कोई स्वामित्व आधार नहीं रहता है क्योंकि मनुष्य इनका पालन केवल दंड के भय से या पुरस्कार के आशा से करता है |
- अरस्तु का मानना है कि विवेकशील मनुष्य बुद्धि द्वारा अपनी हित की वृद्धि करना अपना नैतिक दायित्व समझता है यह हित राज्य में ही पूरा हो सकता है अतः वह राज्य के नियमों का पालन करता है |
- इस प्रकार राज्य के नियमों का पालन करने का एक नैतिक आधार बन जाता है |राज्य को प्राकृतिक मानने का महत्वपूर्ण कारण है कि इसका विकास धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से हुआ है कोई भी व्यक्ति कुटुंब को कृत्रिम नहीं मानता राज्य में मनुष्य को पशु से अलग करने वाले भौतिक गुणों का विकास का अवसर मिलता है इस तरह राज्य प्राकृतिक है ।
राज्य की प्रकृति के कुछ उद्देश्य इस प्रकार है-
1 . राज्य का एकत्व और बहुत्व :- अरस्तु का मानना है कि राज्य में यदि एकता होगी तो राज्य ही नहीं रहेगा राज्य का स्वरूप बहुत्व में है राज्य के विभिन्न तत्व विभिन्न प्रकार के कार्य करते हुए उसे अधिक उन्नत उत्कृष्ट प्राधिकृत बनाते हैं राज्य में एकता होनी चाहिए किंतु यह कठोर अनुशासन के द्वारा विभिन्न भेदों का अंत करके स्थापित नहीं होना चाहिए अपितु विभिन्न संगठन द्वारा स्थापित होना चाहिए ।
2 . राज्य व्यक्ति से पूर्ववर्ती है :- राज्य का निर्माण व्यक्तियों से मिलकर होता है इससे पता चलता है कि पहले व्यक्ति होते हैं और बाद में वे मिलकर राज्य का निर्माण करते हैं यह ऐतिहासिक दृष्टि से भले ही सही हो लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अरस्तू का राज्य को व्यक्ति का पूर्ववर्ती मानता है |
3 . राज्य का उद्देश्य और कार्य :- अरस्तु का विचार है कि राज्य का उद्देश्य मनुष्य के अधिकतम भलाई करना है इसका कर्तव्य है कि व्यक्ति को भला और सदगुणी बनाने का तथा उसके नैतिक और बौद्धिक गुणों का विकास करें इसलिए उसने लिखा है कि राज्य की सत्ता उत्तम जीवन के लिए है ना कि केवल जीवन व्यतीत करने के लिए।
अरस्तु के अनुसार आदर्श राज्य का उद्देश्य उत्तम जीवन की उपलब्धि है, तथा ऐसे जीवन की प्राप्ति के लिए आवश्यक भौतिक और आत्मिक(नैतिक एवं अध्यात्मिक) साधनों की व्यवस्था करना है।
आदर्श राज्य की विशेषताएं –
1. नैतिक स्वरूप: – अरस्तु द्वारा प्रतिपादित आदर्श राज्य का स्वरूप भौतिक होने के साथ-साथ नैतिक भी है अर्थात् अरस्तु के अनुसार राज्य द्वारा व्यक्ति के भौतिक उत्थान का लक्ष्य उसका नैतिक दृष्टि से उत्थान करना है, उसे सद्गुणी चरित्र का बनाना है। अरस्तु के अनुसार उत्तम जीवन नैतिक जीवन के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता।
2. मध्यम मार्ग के सिद्धांत का प्रतिपादन:– अरस्तु प्लूटो की तरह एक अति आदर्शवादी नहीं बल्कि व्यवहारिक आदर्शवादी है। उसने अपनी हर सिद्धांत का प्रतिपादन इसी तथ्य को ध्यान में रखकर किया है। व्यावहारिक होने के नाते इसलिए उसने मध्यम मार्ग के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है।
अरस्तु के अनुसार मध्य वर्ग द्वारा प्रशासित राज्य अधिक सुरक्षित है। जिस राज्य में 2 वर्ग ही विद्यमान है- अत्यधिक धनी और अत्यधिक निर्धन वहां मित्रताभाव और भाईचारा की भावनाएं उत्पन्न नहीं हो सकते। ऐसा राज्य हमेशा संघर्षों में गिरा रहेगा।
विधि का शासन :– अरस्तु का आदर्श राज्य हमेशा एक संवैधानिक किया विधिनुसार प्रशासित राज्य है। अरस्तु के अनुसार प्रत्येक अच्छे या आदर्श राज्य में अंतिम संप्रभु विधि होनी चाहिए बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी नहीं। वह कहता हैं “व्यक्ति के शासन की तुलना में विधि का शासन श्रेष्ठ होता है, क्योंकि विधि ऐसा विवेक है जिस पर व्यक्ति की इच्छा का प्रभाव नहीं पड़ता”|
प्लूटो दास प्रथा के प्रति मौन था परन्तु परंपराओं में अरस्तु की बहुत श्रद्धा थी इसलिए वह दास्तां का समर्थक था| उसका कहना था कि परिवार की व्यवस्था के लिए सजीव तथा निर्जीव दो प्रकार की वस्तुओं की आवश्यकता होती है| निर्जीव वस्तु संपत्ति है, तो सजीव वस्तु दास है|
अरस्तु स्वयं अनेक दासो का मालिक था| जो बुद्धि से शून्य है वह दास है| जो स्वयं का नहीं दूसरों का है, वह दास है| अरस्तु के अनुसार दास और स्वामी दोनों एक दूसरे के लिए उपयोगी है| दासों की वजह से स्वामियों को अवकाश प्राप्त होता है तथा दास बुद्धिजीवी व्यक्ति के पास रहता है जिससे उसमें बुद्धि का संचार होता है| अरस्तु ने दासता प्राकृतिक बताई है- अपने जन्म काल से ही कुछ शासित होने के लिए और कुछ शासन करने के लिए पैदा होते हैं| अरस्तु के अनुसार दास के प्रति मित्रता पूर्ण व्यवहार करना चाहिए|
अरस्तु के अनुसार दो प्रकार के दास होते हैं-
1 .स्वभाविक दास- जो व्यक्ति जन्म से मंद बुद्धि, अकुशल एवं अयोग्य होते हैं|
2 .वैधानिक दास- युद्ध में अन्य राज्य को पराजित कर लाए हुए बंदी|
अरस्तु के अनुसार नागरिकता किसी स्थान पर रहने से नहीं आ सकती । अगर ऐसा होता तो विदेशी और दास भी नागरिक समझे जाते । इसी तरह से उन लोगों को भी नागरिक नहीं माना जा सकता, जिनके माता-पिता नागरिक थे या जिसने उसी राज्य में जन्म लिया क्योंकि नागरिकता किसी स्थान पर जन्म लेने से नहीं मिल सकती ।
नागरिकता का सरल अर्थ है राज्य के राजनीतिक समुदाय में भरपूर सहभागिता| आधुनिक काल में नागरिकता की अवधारणा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समता की अवधारणाओ और सामाजिक कल्याण तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़ी हुई है|
नागरिक कौन हो सकता है और कौन नहीं ''नागरिक कौन है तथा ''नागरिकता से क्या तात्पर्य है अर्थात सर्वप्रथम वह यह बताता है कि नागरिक कौन नहीं हो सकते हैं।
1. नागरिकता का आधार निवास नहीं है, किन्तु राज्य में निवास करने वाले अवयस्क, दास, महिलाएँ तथा विदेशी नागरिक नहीं होते।
2. किसी पर अभियोग चलाने का अधिकार रखने वाला व्यकित नागरिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि राज्य में रहने वाले विदेशियों की सम्पत्ति आदि की रक्षा करना राज्य का कत्र्तव्य है। क्षति होने पर विदेशियों को भी मुकदमा दायर करने का अधिकार मिलता है।
3. जिस व्यकित के माता-पिता दूसरे राज्य के नागरिक हैं, वह भी नागरिक नहीं माना जाएगा।
4. निष्कासित तथा मताधिकार से वंचित व्यकित भी नागरिकता से वंचित रहेगा। अरस्तु ने इस श्रेणी में देशद्रोहियों, कुख्यात अपराधियों तथा सेना से भागे हुए सैनिकों को रखा है।
5. अरस्तु ने महिलाओं को दायित्व और योग्यता के आधार पर नागरिकता से वंचित रखा है। उसके अनुसार महिलाएँ सार्वजनिक पदों के योग्य नहीं हैं। उनका कार्य बच्चों का पालन-पोषण करना है। यदि वे सार्वजनिक जीवन में भाग लेने लगेंगी तो उनका घरेलू दायित्व बाधित होगा, जो उचित नहीं है।
6. अरस्तु दासप्रथा का समर्थक है। उसके अनुसार कुछ व्यकित जन्म से मन्दबुद्धि होते हैं तथा दासता के लिए जन्म लेते हैं। ये शारीरिक श्रम करते हैं तथा दूसरों (स्वामियों) के नियंत्राण में रहते हैं। इनके पास सार्वजनिक कार्य हेतु न समय है, न ही योग्यता। अत: दास नागरिक नहीं हो सकते।
7. अरस्तु ने श्रमिकों तथा कारीगरों को भी नागरिकता की श्रेणी से बाहर रखा है। ये व्यकित शारीरिक श्रम करते हैं तथा भौतिक आवश्यकताओं की पू£त के लिए कार्य करते हैं। अत: शासन-कार्य या बौद्धिक कार्य के लिए इनके पास अवकाश नहीं होता है।
इसमें शासन करने की योग्यता नहीं होती। अरस्तु के अनुसार प्रत्यक्ष लोकतंत्रा में यांत्रिकों को नागरिकता का अधिकार दिया जा सकता है, किन्तु राजतंत्रा या कुलीनतंत्रा में यह सम्भव नहीं है।
8. अवयस्क या बच्चे भी नागरिकता से वंचित रखे गए हैं। अरस्तु ने वयस्क होने की आयु-सीमा निर्धारित नहीं की है।
नागरिक कौन हैं?
अरस्तु ने नागरिकता को कार्यों के संदर्भ में परिभाषित किया है। उसके अनुसार, ''नागरिकता का अर्थ है- राज्य की सर्वोच्च शकित में सक्रिय भागीदारिता राज्य के सभी निवासी स्वाभाविक रूप से राज्य के नागरिक नहीं होते। नागरिक वही हैं, जो-
1. राज्य का क्रियाशील सदस्य होते हुए न्यायिक प्रशासन तथा सार्वजनिक कार्यों में भाग ले।
2. वह आम सभा का सदस्य होने के नाते विधायी कार्य में भाग ले।
नागरिक के गुण :-
अरस्तु ने अच्छे व्यकित तथा अच्छे नागरिक में भेद किया है। अच्छे मानव का लक्षण सभी राज्यों में एक समान है, किन्तु अच्छे नागरिक होने के लिए योग्यता व क्षमता के साथ-साथ उसमें अच्छे मानव के भी गुण होने चाहिए। नागरिकों के गुणों का निश्चय शासन-प्रणाली द्वारा होता है, अर्थात भिन्न-भिन्न शासन-प्रणालियों में नागरिकों के गुण परस्पर भिन्न हो सकते हैं।
अच्छे नागरिक में शासक व शासित दोनों के गुण होने चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में वह नीति-निर्माता व न्यायकत्र्ता है, किन्तु वह कानून से ऊपर नहीं है। आज्ञा-पालन की दृषिट से वह सेनापति भी है तथा सैनिक भी।
वह अनुभवी तथा शिक्षित हो, आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त हो तथा सार्वजनिक कार्य करने हेतु उसके पास अवकाश हो। वह साहसी, समझदार व संयमी हो।
प्लूटो से तुलना :- नागरिकता के सम्बन्ध में अरस्तु के विचार प्लेटों से भिन्न हैं।
1.प्लूटो ने अपने ग्रन्थ 'रिपबिलक में आदर्श राज्य में निवास के आधार पर नागरिकता के अधिकार का समर्थन किया है। उसके अनुसार अशिक्षित व अराजनीतिक व्यकित भी नागरिक हैं, जबकि अरस्तु ने नागरिकता का आधार निवास-स्थल न मानते हुए, राज्य में रहने वाले दासों व श्रमिकों को नागरिकता के अधिकार से वंचित रखा है।
2. प्लूटो ने अच्छे व्यकित तथा अच्छे नागरिक में भेद नहीं किया, किन्तु अरस्तु इस मत से सहमत नहीं है। उसके अनुसार एक अच्छे व्यकित के गुण सदा समान रहते हैं। किन्तु एक अच्छे नागरिक के गुण संविधान के स्वरूप के अनुसार बदल सकते हैं।
3. प्लूटो शासन-क्षमता के सैद्धानितक पक्ष पर बल देते हुए दार्शनिक राजा के लिए ज्ञान-प्रापित को आवश्यक मानता है, जबकि अरस्तु-नागरिक की व्यवहारिक शासन-योग्यता का पक्ष होता है।
4. प्लूटो के अनुसार शासन की योग्यता केवल दार्शनिक राजा तक सीमित है किन्तु अरस्तु ने इसे विस्तृत रूप दिया है।
मूल्यांकन :- अरस्तु ने नागरिकता के लिए जो अनिवार्य गुण बताए हैं, वे राज्य के सभी निवासियों पर लागू नहीं होते हैं। अत: यूनानी नगर-राज्यों की थोड़ी-सी जनसंख्या ही नागरिकता पाने की अधिकारी थी। उसके नागरिकता सम्बन्धी विचार अत्यन्त अनुदार व अभिजाततंत्राीय हैं। एक ओर श्रमिकों को नागरिकता से वांचित करके वह वर्गीय भेद-भाव को बढ़ावा देता है तथा नागरिकता को केवल उच्च वर्ग तक ही सीमित रखता है, दूसरी ओर महिलाओं को नागरिक का दर्जा न देकर वह लिंग-भेद का पक्ष लेता है।
दास-प्रथा के सम्बन्ध में उसके विचारों की आलोचना की जाती है। अरस्तु द्वारा 'कुलीनतंत्रा को उत्तम शासन प्रणाली कहे जाने को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि नागरिकता उन्हीं व्यकितयों को प्रदान की जाए, जो आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त होते हुए पर्याप्त अवकाश भी प्राप्त करते हैं, तो नि:संदेह उनके द्वारा निर्धारित नीतियाँ धनी वर्ग के ही पक्ष में होंगी|
इससे लोकतंत्र के स्थान पर वर्गतन्त्रा को बढ़ावा मिलेगा। इस व्यवस्था में नागरिकता अल्पसंख्यक वर्ग तक सीमित होकर बहुसंख्यक वर्ग के शोषण का कारण बनेगी। इसके अतिरिक्त अरस्तु ने नागरिक के कत्र्तव्यों का तो वर्णन किया है, किन्तु अधिकारों का स्पष्टीकरण नहीं किया है।
अन्तत: अरस्तु के नागरिकता सम्बन्धी विचार दोषपूर्ण होते हुए भी इस दृषिट से उपयोगी हैं कि वह नागरिकता प्रापित के लिए शासन में सहभागिता को आवश्यक मानता है।
अरस्तु के अनुसार सरकार व लोकतांत्रिक सरकार के विभिन्न रूप है | अरस्तु का संविधान संख्या व हित पर आधारित है|
राजतंत्र :- सर्वश्रेष्ठ शासन तंत्र बताया, इसमें राज्य का शासन व्यक्ति के हाथ में होता है|
निरंकुश :- कभी-कभी राजतंत्र प्रणाली में कमी आने से वह निरंकुश बन जाती है जिसे आदर्श राज्य भ्रष्ट हो जाता है, उसका उत्तराधिकारी भ्रष्ट हो जाता है, इस शासन का लक्ष्य सार्वजनिक भलाई न होकर स्वार्थ सिद्धि होता है ऐसा शासन सर्वथा त्याज्य है|
कुलीन तंत्र :- ऐसी सत्ता जिसका शासन कुछ व्यक्तियों के हाथों में होता है और सत्ता का प्रयोग सामान्य हित के लिए किया जाता है| इसमें प्रोढ व्यक्तियों को ही शासन संचालन का अधिकार दिया जाता है|
धनिक वर्ग तंत्र :- कुलीन तंत्र दूषित होकर यह बन जाता है, कुछ धनी व्यक्ति कानून की अवहेलना करके अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए शासन करने लगते हैं|
प्रजातंत्र :- केवल निर्धनों के हित के लिए जनता का शासन| इसमें राज्य का संचालन कानून के अनुसार न होकर सभी की अपनी इच्छा अनुसार होता है|
इस प्रकार अरस्तु के अनुसार संविधान के स्वरूप एक निश्चित क्रम में बदलते रहते हैं जिस प्रकार ऋतुए बदलती है| सर्व प्रथम स्वरूप राजतंत्र हैं किंतु जब यह भ्रष्ट हो जाता है तो निरंकुश बन जाता है इसी प्रकार परिवर्तन चलता रहता है|
प्लूटो अरस्तु का गुरु थे परन्तु इनके विचार बहुत विभिन्न थे | इसी विभिन्नता के कारण प्लूटो के विचारों का खण्डन किया हैं |
• प्लूटो आदर्शवादी थे क्योंकि उनका मानना था कि हर अवधारणा का आदर्श या सार्वभौमिक रूप था।
• अरस्तू एक सार्वभौमिक रूप में विश्वास नहीं करती थी। उन्होंने सोचा कि हर अवधारणा या वस्तु को व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करने के लिए उन्हें समझना चाहिए।
• प्लूटो के लिए एक तर्क को साबित करने के लिए तर्क और विचार प्रयोग पर्याप्त थे
अरस्तू को सीधा अवलोकन और अनुभव को एक अवधारणा साबित करना था।
• प्लूटो का मानना था कि अच्छा जानना अच्छा काम करने के बराबर था। उन्होंने कहा कि यदि कोई व्यक्ति सही बात जानता है जो स्वतः ही उसे सही काम करने के लिए प्रेरित करेगा।
अरस्तू का मानना था कि अच्छा जानना अच्छा नहीं था। उनका मानना था कि अगर किसी को अच्छा होना है तो उसे अच्छा अभ्यास करना होगा।
• प्लूटो ने विज्ञान में ज्यादा योगदान नहीं दिया है क्योंकि उनके अधिकांश विचार केवल सिद्धांत थे और व्यावहारिक नहीं थे
अरस्तू ने विज्ञान के लिए बहुत योगदान दिया है वह अतीत में एक सच्चा वैज्ञानिक के रूप में जाना जाता है।
- अरस्तू द्वारा प्लूटो की आलोचना कई आधारों पर की गई । आलोचना के इन आधारों पर आगे विचार किया जाएगा । अरस्तू की प्लूटो से सबसे बडी शिकायत यह थी कि उसने अनुभव को बिल्कुल महत्व नहीं दिया । अरस्तू कहता है – ”हमें यह याद रहना चाहिए कि हमें कालों से प्राप्त अनुभव को छोड़ नहीं देना है । इतने वर्षों में, ये चीजें अगर अच्छी होतीं तो अन्य तक अज्ञात नहीं रहतीं ।”
- अरस्तू ने प्लूटो के राज्य की, एक अकृत्रिम निर्माण के रूप में आलोचना की जो कि क्रमिक रूप में तीन चरणों में बना जिसमें पहले उत्पादक वर्ग आया, उसके बाद सहायक और फिर शासक वर्ग आया । एक वास्तुविद् की तरह प्लूटो ने राज्य का निर्माण किया । इसके विपरीत, अरस्तू ने राज्य को एक प्राकृतिक संगठन के रूप में लिया जो उदभव और विकास का परिणाम था ।
- प्लूटो के साथ अरस्तू भी व्यक्ति लिए राज्य के महत्व को पहचानता था और प्लूटो की तरह राज्य को एक मानव शरीर की तरह भी मानता । अरस्तू के लिए राज्य अनेकता में एकता था ।
- जहाँ प्लूटो ने अपनी कल्पना को उडाने भरने दी वहीं अरस्तू तथ्यपरक और नीरस है, जहाँ प्लूटो वाक्पटु है, वहीं अरस्तू स्पष्ट वक्ता है, जहाँ प्लूटो तार्किक निष्कर्षों की सामान्य धारणाओं से छलांग लगाता है
- वहीं अरस्तू तथ्यों की विविधता का विश्लेषण करते हुए निष्कर्षों पर पहुँचता है जो तर्कसंगत है किंतु अंतिम नहीं हैं, जहाँ प्लूटो हमें एक आदर्श गणराज्य देता है, जोकि उसके द्वारा कल्पनीय सर्वोत्तम राज्य है, वहीं अरस्तू हमारे सामने उसकी भौतिक आवश्यकताएँ प्रस्तुत करता है जिन्हें परिस्थितियों के अनुरूप बनाकर एक आदर्श राज्य का निर्माण किया जा सकता है ।’
- अरस्तू द्वारा प्लूटो की आलोचना कई आधारों पर की गई । आलोचना के इन आधारों पर आगे विचार किया जाएगा । अरस्तू की प्लूटो से सबसे बडी शिकायत यह थी कि उसने अनुभव को बिल्कुल महत्व नहीं दिया । अरस्तू कहता है – ”हमें यह याद रहना चाहिए कि हमें कालों से प्राप्त अनुभव को छोड़ नहीं देना है । इतने वर्षों में, ये चीजें अगर अच्छी होतीं तो अन्य तक अज्ञात नहीं रहतीं ।”
- अरस्तू ने प्लूटो के राज्य की, एक अकृत्रिम निर्माण के रूप में आलोचना की जो कि क्रमिक रूप में तीन चरणों में बना जिसमें पहले उत्पादक वर्ग आया, उसके बाद सहायक और फिर शासक वर्ग आया । एक वास्तुविद् की तरह प्लूटो ने राज्य का निर्माण किया । इसके विपरीत, अरस्तू ने राज्य को एक प्राकृतिक संगठन के रूप में लिया जो उदभव और विकास का परिणाम था ।
- प्लूटो के साथ अरस्तू भी व्यक्ति लिए राज्य के महत्व को पहचानता था और प्लूटो की तरह राज्य को एक मानव शरीर की तरह भी मानता । अरस्तू के लिए राज्य अनेकता में एकता था ।
- अरस्तू प्लूटो की न्याय की धारणा से सहमत नहीं था । प्लूटो से भिन्न उसके मत में न्याय व्यक्ति द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते जाने की अपेक्षा अपने अधिकारों उपयोग में अधिक था । अरस्तू के लिए न्याय एक व्यावहारिक क्रिया का गुण था न कि अपनी प्रकृति के अनुरूप कार्य करने का ।
- प्लूटो का न्याय नैतिक प्रकार का जबकि अरस्तू का कानूनी प्रकार का । प्लूटो का न्याय, कि अरस्तू मानता था, अधूरा था क्योंकि यह मुख्य रूप से केवल कर्तव्यों से संबंधित था और अधिकारों को लगभग अनदेखा करता था । दूसरे शब्दों में अरस्तू ने प्लूटो के न्याय पर नैतिक प्रकार का होने का ठप्पा लगा दिया क्योंकि वह व्यक्ति के कर्तव्यों को प्राथमिकता देता था ।
- अरस्तू प्लूटो के आदर्श राज्य की तीन वर्गों की धारणा का भी पक्षधर नहीं था, विशेष रूप से संरक्षक वर्ग द्वारा सारी शक्ति अपने हाथों में रखने का । वह इस विचार से सहमत नहीं था कि एक ही वर्ग (संरक्षक, जोकि शासकों और सहायकों से मिलकर बना था) सारी शक्तियों का लाभ उठाए ।