UNIT 3
कौटिल्य
कौटिल्य:- कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है | उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में चौथी ईसा पूर्व मगध राज्य में हुआ था और उन्होंने तक्षशिला (अब पाकिस्तान में) में अपनी शिक्षा प्राप्त की। उन्हें चिकित्सा और ज्योतिष का ज्ञान था, और यह माना जाता है कि वे ग्रीक और फारसी शिक्षा के तत्वों से परिचित थे जो भारत में ज़ोरोस्ट्रियनों द्वारा शुरू किए गए थे। कुछ लोगों का मानना है कि वह एक जोरास्ट्रियन थे या कम से कम उस धर्म से बहुत प्रभावित थे। उनके बचपन का नाम विष्णुगुप्त था तथा उन्हें चाणक्य भी कहा जाता है| उन्होंने विश्व प्रसिद्ध पुस्तक “अर्थशास्त्र” की रचना की | उनकी शिक्षा-दीक्षा तक्षशिला विश्वविद्यालय में हुई बाद में वे वहीं अध्यापक भी थे |
चाणक्य उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त (शासनकाल 321 c- 297c) के परामर्शदाता और सलाहकार थे| उन्होंने चंद्रगुप्त की मदद के लिए मगध क्षेत्र के पाटलिपुत्र में शक्तिशाली नंद वंश को उखाड़ फेंका था|
एक बार नन्द राजा द्वारा आयोजित ब्राह्मण भोज में उन्हें आमंत्रित किया गया जहाँ नन्द राजा ने कौटिल्य का अपमान किया | अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए कौटिल्य ने नन्द वंश का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा की| उन्होंने चन्द्र गुप्त मौर्य नामक एक सैनिक को प्रशिक्षण प्रदान किया तथा उसके द्वारा नन्द वंश का तख्तापलट कर दिया| इसी के साथ महान् मौर्य वंश का उत्थान हुआ| कौटिल्य ने सर्वप्रथम एक व्यवस्थित राज्य व्यवस्था का विचार प्रदान किया |
सप्तांग सिद्धांत :- कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है| जबकि आधुनिक राज्यों में राज्य के चार लक्षण या अंग पाए जाते हैं| कौटिल्य द्वारा वर्णित राज्य के सात अंग निम्नलिखित हैं-
- राजा या स्वामी :- कौटिल्य ने राजा को राज्य का केंद्र व अभिन्न अंग माना है तथा उन्होनें राजा की तुलना शीर्ष से की है | उनका मानना है कि राजा को दूरदर्शी, आत्मसंयमी, कुलीन,स्वस्थ,बौद्धिक गुणों से संपन्न तथा महावीर होना चाहिए | वे राजा को कल्याणकारी तथा जनता के प्रति उत्तरदायी होने की सलाह देते हैं क्योंकि उनके अनुसार राजा कर्तव्यों से बँधा होता है | हालाँकि वे राजा को सर्वोपरि मानते हैं परन्तु उसे निरंकुश शक्तियाँ नहीं देते| उन्होनें राजा की दिनचर्या को भी पहरों में बाँटा है अर्थात् वे राजा के लिए दिन को तथा रात को आठ-आठ पहरों में विभाजित करते हैं |
- अमात्य या मंत्री :- कौटिल्य ने अमात्य और मंत्री दोनों की तुलना की “आँख” से की है | उनके अनुसार अमात्य तथा राजा एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं | अमात्य उसी व्यक्ति को चुना जाना चाहिए जो अपनी जिम्मेदारियों को सँभाल सके तथा राजा के कार्यों में उसके सहयोगी की भांति भूमिका निभा सके |
- जनपद :- कौटिल्य ने इसकी तुलना “पैर” से की है | जनपद का अर्थ है “जनयुक्त भूमि”| कौटिल्य ने जनसंख्या तथा भू-भाग दोनों को जनपद माना है | उन्होनें दस गाँवों के समूह में “संग्रहण”, दो सौ गाँवों के समूह के बीच “सार्वत्रिक”, चार सौ गाँवों के समूह के बीच एक “द्रोणमुख” तथा आठ सौ गाँवों में एक “स्थानीय” अधिकारी की स्थापना करने की बात कही है|
- दुर्ग :- कौटिल्य ने दुर्ग की तुलना “बाँहों” या “भुजाओं” से की है तथा उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों की चर्चा की है:-
i) औदिक दुर्ग-जिसके चारों ओर पानी हो|
Ii) पार्वत दुर्ग-जिसके चारों ओर चट्टानें हों|
Iii) धान्वन दुर्ग-जिसके चारों ओर ऊसर भूमि|
Iv) वन दुर्ग-जिसके चारों ओर वन तथा जंगल हो|
- कोष :- इसकी तुलना कौटिल्य ने “मुख” से की है | उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिए माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है| उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग करारोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में अदा करना होगा |
- दंड या सेना:- कौटिल्य ने सेना की तुलना “मस्तिष्क” से की है| | उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं- हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना | उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिए जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम हो तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो |
- मित्र : - मित्र को कौटिल्य ने “कान” कहा है| उनके अनुसार राज्य की उन्नति के लिए तथा विपत्ति के समय सहायता के लिए राज्य को मित्रों की आवश्यकता होती है|
- वैदेशिक नीति :- कौटिल्य ने राज्य के परराष्ट्रीय संबंधों के लिए षाड्गुण्य नीति सुझाई है जिसके अनुसार राज्य को दूसरे देशों के साथ अपने सम्बन्ध किस परिस्थिति में कैसा रखना चाहिए इसके लिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध में 6 प्रकार बताये हैं-
i) संधि- दो देशों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना |
Ii) विग्रह- इसका अर्थ दो देशों में सम्बन्ध को समाप्त करना |
Iii) यान-आक्रमण करना |
Iv) आसन-मौन रहना |
v) संश्रय-दूसरे के आश्रय में स्वयं को समर्पित करना |
Vi) द्वैधीभाव-एक राज्य की दूसरे राज्य से संधि कराना |
कौटिल्य ने राज्य की विदेश नीति के सन्दर्भ में कूटनीति के चार सिद्धांतों साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना), दण्ड (बलप्रयोग, युद्ध) तथा भेद (फूट डालना) का वर्णन किया। कौटिल्य के अनुसार प्रथम दो सिद्धांतों का प्रयोग निर्बल राजाओं द्वारा तथा अंतिम दो सिद्धांतों का प्रयोग सबल राजाओं द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर है। दण्ड (युद्ध) का प्रयोग अन्तिम उपाय के रूप में किया जाए, क्योंकि इससे स्वयं की भी क्षति होती है।
- आचार्य चाणक्य आदर्श विदेश नीति की विवेचना करते हुए आगे लिखते हैं कि अरिमित्र (शत्रु का मित्र) भी अपना शत्रु होता है इसलिए हमें सदैव उससे सावधान रहना चाहिए। लेकिन हमारे ‘शत्रु का शत्रु’ हमारा मित्र हो सकता है इसलिए हमें उससे संधि करने का प्रयास करना चाहिए।
- आचार्य ने देवरानी-या-जेठानी-की-भोजाई-राज्य को विजीगीषु का संभावित सहयोगी माना है तथा उनसे सहयोग प्राप्त करने का प्रयास करने का सुझाव विजीगीषु को दिया है।
- चूंकि जेठानी राज्य तथा देवरानी राज्य भी कभी वृहद सास राज्य के अंग हुआ करते थे जो कि बाद में इससे अलग हो कर इसके पड़ोसी हो गए, जैसे भारत से पाकिस्तान और बांग्लादेश। इसलिए वो भी निश्चित रुप से सास राज्य के अरि (शत्रु) होते हैं।
- इसलिए चाणक्य ने सुझाव दिया है कि विजीगीषु को शत्रु का शत्रु= मित्र की नीति अपना कर इस स्थिति का लाभ उठाते हुए शुरुआत में उनसे संधि करके विशाल सास राज्य से मुकाबला करना चाहिए जिस प्रकार मुहम्म्द गौरी ने जयचंद से संधि करके पृथ्वीराज चौहान से मुकाबला किया था।
- हालांकि विजीगीषु-जेठानी-देवरानी गठबंधन भी हितों के टकराव की वजह से ज्यादा समय तक टिक पाना संभव नहीं है लेकिन अथाह शक्तिशाली सास राज्य को पराजित करने के लिए आचार्य ने इसे एकमात्र ऊपाय बताया है।
- विजीगीषु को अपने शत्रु राज्य को कमजोर करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद द्वारा इसके सहयोगी राज्यों को इस से अलग करने का प्रयास करना चाहिए।
- इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु दंड की बजाय भेद को उत्तम बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि सर्वप्रथम विजीगीषु को मौका मिलते ही अपने ननद राज्य को अपने सास राज्य के प्रभुत्व से छुटकारा पाने के लिए उकसाना चाहिए ताकि वो सास राज्य के खिलाफ विद्रोह कर दे।
- यदि इस से काम ना बने तो फिर विजीगीषु को देवरानी-जेठानी गठबंधन की मदद से ननद राज्य के राजा को खदेड़ कर उसके राज्य पर कब्जा कर लेना चाहिए ताकि उसे भागकर किसी अन्य दूरस्थ राज्य से गठबंधन (विवाह संबंध) स्थापित कर के शरण लेनी पड़े।
- हालांकि इस ऐतिहासिक पराजय के बाद भी ननद राज्य जीवनभर वर्ष में एकाध बार (अधिकतर जुलाई की छुट्टियों में) विजीगीषु पर हमले करता रहेगा। परन्तु उसकी शक्ति इतनी क्षीण हो चुकी होगी कि निरंतर हमलों के बावजूद वो कभी भी अपना राज्य पुन: नहीं प्राप्त कर सकेगा और फिर कालांतर में उसके वंशज उसी दूरस्थ स्थान पर बस कर रह जाएंगे जिस प्रकार मुगल समरकंद से खदेड़े जाने पर भारत में आ कर बस गए थे।
राजतन्त्र मंडल :- कौटिल्य ने न केवल राज्य के आन्तरिक कार्य, बल्कि वाह्य कार्यों की भी विस्तार से चर्चा की है। इस सम्बन्ध में वह विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों तथा युद्ध व शान्ति के नियमों का विवेचन करता है। कूटनीति के सम्बन्धों का विश्लेषण करने हेतु उसने मण्डल सिद्धांत प्रतिपादित किया है-
चाणक्य ने अपने मण्डल सिद्धांत में विभिन्न राज्यों द्वारा दूसरे राज्यों के प्रति अपनाई नीति का वर्णन किया। प्राचीन काल में भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था। शक्तिशाली राजा युद्ध द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे।
- राज्य कई बार सुरक्षा की दृष्टि से अन्य राज्यों में समझौता भी करते थे। कौटिल्य के अनुसार युद्ध व विजय द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करने वाले राजा को अपने शत्रुओं की अपेक्षाकृत मित्रों की संख्या बढ़ानी चाहिए, ताकि शत्रुओं पर नियंत्रण रखा जा सके।
- दूसरी ओर निर्बल राज्यों को शक्तिशाली पड़ोसी राज्यों से सतर्क रहना चाहिए। उन्हें समान स्तर वाले राज्यों के साथ मिलकर शक्तिशाली राज्यों की विस्तार-नीति से बचने हेतु एक गुट या ‘मंडल’ बनाना चाहिए।
- कौटिल्य का मंडल सिद्धांत भौगोलिक आधार पर यह दर्शाता है कि किस प्रकार विजय की इच्छा रखने वाले राज्य के पड़ोसी देश (राज्य) उसके मित्र या शत्रु हो सकते हैं।
- इस सिद्धांत के अनुसार मंडल के केन्द्र में एक ऐसा राजा होता है, जो अन्य राज्यों को जीतने का इच्छुक है, इसे ‘‘विजीगीषु’’ कहा जाता है। ‘‘विजीगीषु’’ के मार्ग में आने वाला सबसे पहला राज्य ‘‘अरि’’ (शत्रु) तथा शत्रु से लगा हुआ राज्य ‘‘शत्रु का शत्रु’’ होता है, अतः वह विजीगीषु का मित्र होता है। कौटिल्य ने ‘‘मध्यम’’ व ‘‘उदासीन’’ राज्यों का भी वर्णन किया है, जो सामर्थ्य होते हुए भी रणनीति में भाग नहीं लेते।_
कौटिल्य का यह सिद्धांत यथार्थवाद पर आधारित है, जो युद्धों को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की वास्तविकता मानकर संधि व समझौते द्वारा शक्ति-सन्तुलन बनाने पर बल देता है।
छः सूत्रीय विदेश नीति
300 ईसा पूर्व में अर्थशास्त्र को "राजनीति के विज्ञान" के रूप में लिखा गया था। राजा चंद्रगुप्त के प्रमुख सलाहकार के रूप में, कौटिल्य ने युद्ध और कूटनीति पर विचार-विमर्श के रूप में अस्त्रशास्त्र की पेशकश की। कौटिल्य ने विदेश नीति के छह तरीके सुझाए। इस नीति में उन्होने,
- शांति बना रहे हैं,
- युद्ध लड़ रहे हैं,
- शांत रह रहे हैं,
- युद्ध की तैयारी कर रहे हैं,
- समर्थन मांग रहे हैं, और
- दूसरे के खिलाफ युद्ध छेड़ते हुए एक के साथ शांति बनाने की दोहरी नीति बना रहे हैं।
उपरोक्त किसी एक परिस्थिति को निर्धारित करने के लिए किन विधियों का उपयोग किया जाना चाहिए, ये उपाय सूझाये हैं|
शांति बनाने के लिए, किसी व्यक्ति को दूसरे के साथ संधि में प्रवेश करना चाहिए, जैसे कि एक संधि, विशेष शर्तों के साथ। संधियों की विशिष्ट शर्तें हो सकती हैं, या उनकी कोई बाध्यता नहीं होगी। बिना शर्तों के संधियां मुख्य रूप से दुश्मन पर जानकारी प्राप्त करने के लिए उपयोग की जाती हैं, इसलिए राजा प्रतिपक्षी के कमजोर बिंदुओं को जानने के बाद हमला कर सकते हैं।
जब एक राजा अपने दुश्मन की तुलना में एक बेहतर स्थिति में होता है, तो वह हमला करेगा और युद्ध करेगा। विदेश नीति की इस दूसरी पद्धति के हिस्से के रूप में तीन प्रकार के युद्ध हैं:-
- खुला युद्ध है, जिसमें एक निर्दिष्ट समय और स्थान है;
- गुप्त युद्ध जो अचानक होता है| इसमें आतंकित करना, एक तरफ से धमकी देना और दूसरे से हमला करना, आदि आते हैं, और
- अघोषित युद्ध जो गुप्त एजेंटों, धर्म या अंधविश्वास और महिलाओं को दुश्मनों के खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग करता है।
यदि किसी राजा को लगता है कि उसका शत्रु और वह बराबर हैं और न तो दूसरे को नुकसान पहुंचा सकते हैं और न ही दूसरे के उपक्रमों को बर्बाद कर सकते हैं, तो वह कुछ भी नहीं करने का विकल्प चुनेगा।
जब एक राजा अपनी शक्ति बढ़ाता है और अपने शत्रु पर विशेष लाभ उठाता है, तो वह युद्ध की तैयारी करके कौटिल्य की विदेश नीति के अगले दृष्टिकोण में भाग लेगा। युद्ध की तैयारी करते समय, राजा को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दुश्मनों के उपक्रमों को नष्ट कर दिया जाएगा, जबकि उसका अपना कोई नुकसान नहीं होगा|
युद्ध की तैयारी के विपरीत, एक राजा को अपने स्वयं के उपक्रमों की रक्षा के लिए दूसरे की सहायता की आवश्यकता हो सकती है। गठबंधन बनाने का यह विचार कौटिल्य की विदेश नीति का पांचवा तरीका है। एक गठबंधन की मांग करने वाले राजा को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह पड़ोसी दुश्मन की तुलना में अधिक शक्तिशाली राजा को पाता है। कभी-कभी दुश्मन से मजबूत राजा को ढूंढना संभव नहीं होता है; इस मामले में शत्रु के साथ शांति स्थापित करनी चाहिए।
अंत में, शांति के माध्यम से एक के साथ दोस्ती करने और एक के स्वयं के उपक्रम को बढ़ावा देने की दोहरी नीति होने के साथ, उनके खिलाफ युद्ध छेड़कर दूसरे के मिशन को बर्बाद करना छठा तरीका है। इस पद्धति के तहत विजेता के पास सहयोगियों से प्रदान की गई आपूर्ति और सुदृढीकरण हो सकते हैं, पीछे से एक हमले को रोक सकते हैं जहां राज्यों के सर्कल हमें चेतावनी देते हैं कि पड़ोसी के रूप में एक दुश्मन है, और दूसरे के ताकत के रूप में कई सैनिक हैं। सहयोगियों के साथ युद्ध छेड़ने पर चर्चा करने और शर्तों पर सहमत होने के बाद एक संधि संपन्न होती हैं। हालांकि, यदि सहयोगी अपने दायित्वों को स्वीकार नहीं करते हैं और उन्हें शत्रुतापूर्ण माना जाता है
इस तरह से हम कौटिल्य के विदेश नीति को संक्षेप में कुछ इस तरह से कह सकते हैं:-
संधि शान्ति बनाए रखने हेतु समतुल्य या अधिक शक्तिशाली राजा के साथ संधि की जा सकती है। आत्मरक्षा की दृष्टि से शत्रु से भी संधि की जा सकती है। किन्तु इसका लक्ष्य शत्रु को कालान्तर निर्बल बनाना है।
विग्रह या शत्रु के विरुद्ध युद्ध का निर्माण।
यान या युद्ध घोषित किए बिना आक्रमण की तैयारी,
आसन या तटस्थता की नीति,
संश्रय अर्थात् आत्मरक्षा की दृष्टि से राजा द्वारा अन्य राजा की शरण में जाना,
द्वैधीभाव अर्थात् एक राजा से शान्ति की संधि करके अन्य के साथ युद्ध करने की नीति।
कौटिल्य के अनुसार राजा द्वारा इन नीतियों का प्रयोग राज्य के कल्याण की दृष्टि से ही किया जाना चाहिए।