UNIT 4
थॉमस हॉब्स
थॉमस हाब्स का जन्म 5 अप्रैल 1588 को विल्टशायर (इंग्लैंड) में माम्स्बरी नामक स्थान पर हुआ था| हाब्स एक विलक्षण गुणों वाले बालक थे| उन्होने 4 वर्ष की अवस्था में शिक्षा प्रारंभ की और 6 वर्ष की आयु में ही ग्रीक तथा लैटिन भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करके अपनी विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया| उन्होने 14 वर्ष की आयु में यूरीपीडिया के 'मीडिया' नाटक का यूनानी भाषा से लैटिन भाषा में अनुवाद किया| 1603 में वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए और 1608 में मात्र 20 वर्ष की आयु में स्नातक परीक्षा पास करके इंग्लैंड के एक उच्च परिवार में विलियम को पढ़ाने लगे|
1610 ईसवी में हाब्स को अपने शिष्य के साथ यूरोप की पहली यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ | 1634 से 1637 तक उन्होंने यूरोप की पुनः यात्रा की इस बार इटली में गैलीलियो से और पेरिस में फ्रेंच दार्शनिक डेकार्ट से उनका परिचय हुआ| जब 1637 में वह अपनी विदेश यात्रा पूरी करके इंग्लैंड लौटे तो उस समय इंग्लैंड पर गृह युद्ध के बादल मंडरा रहे थे| अपने देश के तात्कालिक राजनीतिक वातावरण से प्रभावित होकर उन्होंने राजतंत्र के समर्थन में कुछ पुस्तकों की रचना की जिन्होंने उनके जीवन की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया और उन्हें इंग्लैंड छोड़कर वापस पेरिस जाना पड़ा|
निर्वासित व्यक्ति के रूप में वह फ्रांस में मानसिक रूप से राजनीतिक चिंतन में व्यस्त रहें और इसी दौरान उन्होंने दो ग्रंथ 'डीसीवे' तथा 'लिवियाथन' की रचना की जिसमें उन्होंने निरंकुश राजतंत्र को सही मानते हुए सामाजिक समझौते के सिद्धांत का प्रतिपादन किया| इन पुस्तकों के प्रकाशित होते ही फ्रांसीसी शासक उनके विरोधी बन गए और अपने खिलाफ इसी विरोध के चलते उन्हें वापस इंग्लैंड आना पड़ा, जहां उन्होंने 'डीकारपोरे' तथा 'डीहोमाइन' की रचना की| 1660 में कामनवेल की समाप्ति पर जब पुन: राजतंत्र की स्थापना हुई तो उनका शिष्य चार्ल्स द्वितीय गद्दी पर बैठा| इससे उनके जान तो बच गयी लेकिन उनके धार्मिक विचारों से मठाधीश अब भी नाराज थे| इसी कारण उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया | उन्हें सजा नहीं मिली| उन्होंने राजा की सलाह पर अपना जीवन शांति से व्यतीत करने का संकल्प लिया और लंदन के कैटसवर्थ में रहने लगे| इस दौरान वह अध्यनरत रहे और 84 वर्ष की आयु में लैटिन भाषा में अपनी आत्मकथा लिखी | 1679 में 91 वर्ष 10 महीने की दीर्घ आयु में उनकी जीवन यात्रा समाप्त हो गयी|
एक प्रबुद्ध राजनीतिक विचारक के रूप में हाब्स अपने विचारों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ निरंकुशवाद तथा धर्मनिरपेक्षवाद के लिए वैज्ञानिक भूमिका तैयार की| हाब्स ने राजनीतिक शास्त्र के क्षेत्र में सामाजिक संविदा के सिद्धांत की नवीन परंपरा को जन्म देकर, उसे विकसित करके महत्वपूर्ण कार्य किया| उन्होंने वैज्ञानिक पद्धति की स्थापना करके राजनीति शास्त्र को एक नया आधार प्रदान किया| हाब्स के चिंतन पर जिन परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा वह इस प्रकार है:-
1) इंग्लैंड में गृह युद्ध - हाब्स के युग में इंग्लैंड में गृह युद्ध के कारण अराजकता का माहौल था| सर्वोच्चता को लेकर राजा और संसद में संघर्ष छिड़ा हुआ था| इस अशांत वातावरण में हाब्स के चिंतन पर गहरा प्रभाव डाला | वह स्थाई शांति की स्थापना का मार्ग तलाश करना चाहते थे| इस अशांत वातावरण और अराजकता की स्थिति से निपटने के लिए हाब्स ने मानव स्वभाव का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि शांति की स्थापना शक्तिशाली राष्ट्र की स्थापना द्वारा ही संभव है| उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि प्रभुसत्ता को राजा और संसद में बांटने से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है | इसका समाधान तो पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राजतंत्र में ही संभव है|
2) विज्ञान का विकास- हाब्स का युग विज्ञान का युग था| इस युग में वैज्ञानिक क्रांति का सूत्रपात व विकास हो रहा था और वो विज्ञान की अनदेखी नहीं कर सकते थे| वह वही युग था जब कैपलर, गैलीलियो, डेकार्ट की खोजों ने यंत्र विज्ञान की स्थापना करके मानव विकास को प्रभावित किया था| हाब्स ने इस वैज्ञानिक विचारधारा से प्रभावित होकर राजनीति शास्त्र में इनके प्रयोग की स्वीकृति प्रदान कर दी और उन्होने वैज्ञानिक विचारधारा से प्रभावित होकर अपने चिंतन का आधार गैलीलियो के गति के नियमों को बनाया| उन्होंने महसूस किया कि विज्ञान व गणित के नियमों को अन्य शास्त्रों के अध्ययन के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है| इसलिए वैज्ञानिक क्रांति ने हाब्स के चिंतन को ही बदल डाला और उन के चिंतन को एक नई दिशा प्रदान की|
3) सामंतवाद का पतन- विज्ञान के आविष्कारों के कारण समाज में परंपरागत ढांचे का पतन होने लगा और एक शक्तिशाली नए सामाजिक वर्ग, जिसे व्यापारिक वर्ग भी कहा जा सकता है , का उदय हुआ| इस सामाजिक वर्ग ने सामंतवादी व्यवस्था को चुनौती दी | हब्स ने इस वर्ग के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की | उन्होने अपने चिंतन के अंतर्गत राज्य को प्रथम संस्था और मात्र एक साधन के रूप में माना | उन्होंने एक ऐसे निरंकुश राजतंत्र का समर्थन किया जिसमें नवीन बुर्जुआ वर्ग के विकास की संभावनाएं हों|
राज्य की उत्पत्ति से संबंधित समझौतावादियों में हॉब्स का प्रथम स्थान आता है जो एक अंग्रेज राजनीतिक विचारक था । हॉब्स के समय में इंग्लैण्ड संक्रमणकालीन अवस्था से गुजर रहा था । वहाँ गृहयुद्ध की स्थिति थी, जिसका काफी प्रभाव हॉब्स के राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन पर पड़ा ।
अगर ये कहा जाए कि उसके सारे विचार उसी परिस्थिति की देन है जिसमें वह पला बढ़ा तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है । गृहयुद्ध में जब चार्ल्स प्रथम को फाँसी की सजा दी गई तो इस घटना का बहुत गहरा प्रभाव हॉब्स के जीवन पर पड़ा । इसी आधार पर उसने राज्य के संबंध में अपना विचार व्यक्त किया, जिन्हें हम निम्न बिन्दुओं की सहायता से समझने का प्रयास कर सकते हैं:-
- हाब्स के युग में राजनीतिक विचार विवाद का प्रमुख विषय बने हुए थे और उन्होंने अपने विचारों को सुनिश्चित कर एक ऐसा निर्विवादित रूप प्रदान किया जो सर्वमान्य हो|
- हाब्स प्रथम आधुनिक दार्शनिक है जिन्होंने राजनीतिक सिद्धांत को वैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया | उन्होंने अपने समय में प्रचलित ऐतिहासिक तथा धार्मिक पद्धतियों से हटकर वैज्ञानिक भौतिकवाद तथा सहायता के रूप में भौतिक मनोवैज्ञानिक पद्धति को स्वीकार किया | उन्होंने राजनीतिक दर्शन, वैज्ञानिक भौतिकवाद पर आधारित ,उसके सामान्य दर्शन का ही एक अंग माना|
- हॉब्स का वैज्ञानिक भौतिकवाद वस्तुतः दो पद्धतियों का सम्मिश्रण है, वैज्ञानिक शब्द का अर्थ कार्य कारण संबंध तथा व्यवस्था एवं निष्कर्ष निकालने की प्रवृत्ति है | उन्होंने अपने दर्शन का निर्माण इन्हीं आधारों पर किया|
- वह मानव स्वभाव तथा उसके चरित्र का पूर्ण अध्ययन करके इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि मानव व्यवहार तथा कार्यों को नियंत्रित करने में राज्य को कैसा होना चाहिए |
- उन्होंने स्पष्ट किया कि मनुष्य का स्वभाव एक मूल नियम से अनुशासित होता है और राजनीति में यही नियम कार्य करता है|
- उनका मानना था कि सामाजिक समझौते द्वारा राज्य की उत्पत्ति होती है परंतु इसके पूर्व वह एक प्राकृतिक अवस्था का चित्रण करता है, जिसके पश्चात नागरिक समाज का निर्माण आवश्यक हुआ|
राज्य की उत्पत्ति के संबंध में सामाजिक समझौता सिद्धांत बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। 17 वीं और 18वीं सदी की राजनीतिक विचारधारा में तो इस सिद्धांत की पूर्ण प्रधानता थी। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य दैवीय न होकर एक मानवीय संस्था है जिसका निर्माण व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया गया है।
सिद्धांत के प्रतिपादक मानव इतिहास को दो भागों में बांटते हैं (1) प्राकृतिक अवस्था का काल, (2) नागरिक जीवन के प्रारंभ के बाद का काल।
इस सिद्धांत के सभी प्रतिपादक अत्यंत प्राचीन काल में एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं जिसके अंतर्गत जीवन को व्यवस्थित रखने के लिए राज्य या राज्य जैसी कोई अन्य संस्था नहीं थी।
इस समझौते के परिणामस्वरुप प्रत्येक व्यक्ति की प्राकृतिक स्वतंत्रता आंशिक या पूर्ण रूप से समाप्त हो गई और स्वतंत्रता के बदले उसे राज्य व कानून की ओर से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त हुआ।
इस सिद्धांत का विकास :– समझौता सिद्धांत राजनीति के दर्शन की तरह ही पुराना है तथा इसे पूर्व और पश्चिम दोनों ही क्षेत्रों से समर्थन प्राप्त हुआ है।
- महाभारत के शांति पर्व में इस बात का वर्णन मिलता है कि पहले राज्य नहीं था, उसके स्थान पर अराजकता थी। ऐसी स्थिति में तंग आकर मनुष्य में परस्पर समझौता किया और मनु को अपना शासक स्वीकार किया।
- आचार्य कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में इस बात को अपनाया है कि प्रजा ने राजा को चुना और राजा ने प्रजा की सुरक्षा का वचन दिया।
- 16वीं और 17वीं सदी में यह विचार बहुत अधिक लोकप्रिय हो गए और लगभग सभी विचारक इसे मानने लगे।
- रिचर्ड हूकर ने सर्वप्रथम वैज्ञानिक रूप में समझौते की तर्कपूर्ण व्याख्या की और डच न्यायाधीश ग्रोशियश पूफेण्डोर्फ तथा स्पिनोजा ने इसका पोषण किया, किंतु इस सिद्धांत का वैज्ञानिक और विधिवत रूप में प्रतिपादन हाब्स, लांक और रूसो द्वारा किया गया, जिन्हें ‘समझौतावादी विचारक’ कहा जाता है।
हॉब्स ने सामाजिक समझौते की व्याख्या इस प्रकार की है –
मानव स्वभाव :– हाब्स के समय में चल रहे इंग्लैंड के बीच में उसके सामने मानव स्वभाव का घृणित पक्ष ही रखा। उसने अनुभव किया कि मनुष्य एक स्वार्थी, अहंकारी और आत्मभिमानी प्राणी है। वह सदा ही से स्नेह करता है और शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है।
प्राकृतिक अवस्था :– इस स्वार्थी अहंकारी और आत्माभिमानी व्यक्ति के जीवन पर किसी प्रकार का नियंत्रण न होने का संभावित परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दूसरे मनुष्य को शत्रु की दृष्टि से देखने लगा और सभी भूखे भेड़ियों के समान एक दूसरे को निकल जाने के लिए घूमने लगे। मनुष्य को न्याय और अन्याय का कोई ज्ञान नहीं था और प्राकृतिक अवस्था ‘शक्ति ही सत्य है’ की धारणा पर आधारित थी।
समझौता :– नवीन समाज का निर्माण करने के लिए सब व्यक्तियों ने मिलकर एक समझौता किया।
- हाब्स के मतानुसार यह समझौता प्रत्येक व्यक्ति ने शेष व्यक्ति समूह से किया जिसमें प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक दूसरे व्यक्ति से कहता है कि “मैं इस शक्ति अथवा सभा को अपने अधिकार और शक्ति का समर्पण करता हूं जिससे कि वह हम पर शासन करें परंतु इसी शर्त पर कि आप भी अपने अधिकार और शक्ति का समर्पण इसे इसी रूप में करें और इसकी आज्ञाओं को माने।
- ” इस प्रकार सभी व्यक्तियों ने एक व्यक्ति अथवा सभी के प्रति अपने अधिकारों का पूर्ण समर्थन कर दिया और यह शक्ति या सत्ता उस क्षेत्र में सर्वोच्च सत्ता बन गई, यही राज्य का श्रीगणेश है।
नवीन राज्य का रूप :– हाब्स के समझौते द्वारा एक ऐसी निरंकुश राजतंत्रात्मक राज्य की स्थापना की गई है, जिसका शासक संपूर्ण शक्ति संपन्न है और जिसके प्रजा के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है सासित वर्ग को शासक वर्ग के विरुद्ध विद्रोह का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।
हाब्स आधुनिक राजदर्शन का जन्मदाता कहा जाता है | यद्यपि उसने निरंकुश संप्रभुता का समर्थन किया, तथापि व्यक्तिवाद उसके दर्शन की आधारशिला है। संप्रभु की असीम अधिकार देते हुए भी व्यक्ति के जीवन में राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप को वह अवांछनीय मानता है।
हॉब्स प्रभुसत्ता का प्रबल समर्थक है । उसकी प्रभुसत्ता का आधार है सामाजिक संविदा (समझौता) । स्पष्ट या अस्पष्ट किसी भी रूप में हो, संविदा या अनुबंध से ही प्रभुसत्ता प्राप्त होती है ।
हॉब्स के अपने ही शब्दों में प्रभुसत्ता सम्पन्न अधिकारी वह व्यक्ति है ”जिसके कार्यों से जनसाधारण पारस्परिक प्रसंविदा द्वारा अपने आपको बाध्य मानता है ।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह उन सबकी शक्ति और साधनों का उस प्रकार प्रयोग करें कि जिस प्रकार वह उनकी शांति तथा सामान्य रक्षा के लिए समयोचित समझता है ।”
इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रभुसत्ता ऐसे कानून बनाने की शक्ति में निहित है जो सारी प्रजा पर बाध्यकारी है । हॉब्स का ‘लेवियाथन’ अथवा सम्पूर्ण सर्वप्रभुत्व सम्पन्न शासक पूर्णतः निरंकुश है ।
उसका आदेश ही कानून है । उसका प्रत्येक कार्य न्यायपूर्ण है । प्रभुसत्ता निरपेक्ष, अविभाज्य, स्थाई एवं अदेय है । उसका हस्तक्षेप कार्यों और विचारों पर है ।
बोन्दा ने प्रभुसत्ता पर जो मर्यादाएं लगाई है हॉब्स ने उन्हें हटा दिया है । गैटेल के अनुसार “हॉब्स के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा लेखक नहीं हुआ है जिसने प्रभुसत्ता के बारे में इतना अतिवादी दृष्टिकोण अपनाया हो ।”
हॉब्स के प्रभुसत्ता की विशेषताएं:
1. संप्रभुसत्ता अप्रतिबंधित तथा सर्वव्यापक है :- संप्रभु को सर्वसाधारण पर अपरिमित अधिकार प्राप्त है । वह निरपेक्ष है । उसकी विधि निर्माण शक्ति किसी भी मानवीय शक्ति से अप्रतिबंधित है और उसके आदेश सभी पर समान रूप से लागू होते हैं । हॉब्स का मत है कि, ”संप्रभु की घोषणा चूंकि एक बड़े भाग के सहमतिपूर्ण स्वर से होती है । अतः उसे भी जो उससे सहमत नह हैं, शेष से सहमत होना चाहिए अर्थात् उसे सम्प्रभु के सब कार्यों से सहमत होना चाहिए अन्यथा यह न्याय होगा कि शेष उसे नष्ट कर दें ।”
हॉब्स लिखता है कि राज्य में संप्रभु का कोई भी समकक्ष अथवा प्रतिद्वंदी नहीं होता । संप्रभु ही कानूनों का व्याख्याता भी है । प्राकृतिक कानून भी उस पर बंधन नहीं लगा सकते क्योंकि वे वस्तुतः कानून न होकर विवेक के आदेश होते हैं जिनके पीछे किसी विवशकारी शक्ति का अभाव होता है । दैवी कानून भी संप्रभु को प्रतिबंधित नहीं करते क्योंकि वही उनका व्याख्याता होता है ।
2. संप्रभुसत्ता निरंकुश होती है :- हॉब्स राज्य की उत्पत्ति में सामाजिक समझौते का वर्णन करता है और कहता है कि यह समझौता मनुष्यों द्वारा आपस राजनीतिक विचार में किया गया है जिसमें संप्रमुसत्ता शामिल नहीं होती । समझौते में शामिल न होने के कारण वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है तथा वह पूर्णतः निरंकुश होती है । अतः स्पष्ट है कि संप्रभु की सत्ता अपार है उस पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है और वह निरंकुश होता है ।
3. सम्प्रभु का कोई कार्य अन्यायपूर्ण नहीं हो सकता :- हॉब्स का मत है कि संप्रभुसत्ता का कोई भी कार्य अन्यायपूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि वह उन सब व्यक्तियों की प्रतिनिधि होती है तथा उसमें उन सब व्यक्तियों के हित निहित होते हैं जिन्होंने परस्पर समझौता करके उसकी स्थापना की होती है ।
4. संप्रभुसत्ता मतों व नीतियों की निर्णायक एवं नियंत्रक होती है :- हॉब्स के अनुसार संप्रभु शक्ति का अधिकार व्यक्ति के शरीर पर ही नहीं होता वरन् उसके विचारों व विश्वासों पर भी होता है क्योंकि लोगों के विचारों व विश्वासों पर भी समाज की शांति व व्यवस्था निर्भर होती है, जिसे बनाए रखना उसका एकमात्र उद्देश्य होता है ।
5. संप्रभुसत्ता मनुष्य के सम्पत्ति संबंधी अधिकारों व कार्यों का नियमन करती है :- हॉब्स ने बोदी द्वारा संप्रभु पर लगाए गये सम्पत्ति संबंधी बंधन को ठुकरा दिया है । उनके अनुसार संप्रभु ही सम्पत्ति का सृजनहार है क्योंकि वही समाज में शांति और व्यवस्था स्थापित करता है जिसके फलस्वरूप लोग धनोपार्जन कर पाते हैं ।
6. संप्रभुसत्ता अविभाज्य व अपृथक्करणीय होती है :- हॉबर के अनुसार संप्रभु सत्ताधारी की शक्ति को विभाजित नहीं किया जा सकता और न ही उसके किसी भाग को संप्रभु के अतिरिक्त किसी अन्य में निहित किया जा सकता है । उसके विविध अधिकारों के प्रयोग की अंतिम शक्ति उसी में निहित होती है, क्योंकि ऐसा न होने पर शासन कार्य का सुचारू रूप से संचालन संभव नहीं हो सकता ।
7. प्रभुसत्ता की शक्ति किसमें है अथवा इसका प्रयोग कौन करेगा?:- बोदी की भांति ही हॉब्स ने भी शासन-प्रणालियों का अंतर इस बात पर आधारित किया है कि प्रभुसत्ता का निवास कहीं है? यदि प्रभुसत्ता एक व्यक्ति में निहित है तो शासन का स्वरूप राजतंत्र है, कुछ व्यक्तियों में निहित है तो कलीनतंत्र है और सब लोगों में निहित है तो लोकतंत्र है । मिश्रित अथवा सीमित शासन-प्रणाली की बात करना व्यर्थ है क्योंकि प्रभुसत्ता अविभाज्य है ।
हॉब्स ने राजतंत्र को सर्वश्रेष्ठ इसलिए माना है कि प्रथम तो इसमें राजा का और राज्य का वैयक्तिक तथा सार्वजनिक हित एक होता है, एवं द्वितीय इसमें शासन का स्थायित्व अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है । यद्यपि राजतंत्र में कृपा पात्रों को धन और अधिकार देने की प्रवृत्ति होती है, तथापि कुलीनतंत्र और लोकतंत्र गे यह प्रवृत्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है ।
हॉब्स की बहुत बड़ी देन उसके व्यक्तिवाद की है । सम्प्रभुतावादी हॉब्स के विचारों में हमें व्यक्तिवाद का प्रबल समर्थन मिलता है । उसने व्यक्ति के कल्याण और उसकी सुरक्षा को साध्य घोषित किया है । उसने राज्य के निरंकुश अधिकार इसीलिए दिए हैं कि वह समाज में शांति स्थापित रखे, व्यक्तियों का जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित रखे ।