UNIT 7
जेरेमी बेन्थम और उनके सिद्धांत
जेरेमी बेन्थम :- उपयोगितावाद के प्रवर्तक जेरेमी बेंथम का जन्म 1748 ईस्वी में इंग्लैंड के एक संपन्न घराने में हुआ था |
- बेंथम बचपन से ही असाधारण प्रतिभाशाली था और अपनी इस प्रतिभा के बल पर उसने 15 वर्ष की आयु में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास कर ली| बेंथम अपने असाधारण योग्यता के कारण ही अपने गुरुओं के और अयोग्य तथा साथियों को मूर्ख समझता था |
- स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद उसने 'लिकंस इन ' में कानून का अध्ययन करने के लिए प्रवेश लिया |
- 1772 में उसने वकालत करना प्रारंभ किया लेकिन थोड़े थोड़े समय के बाद ही उसने इस व्यवसाय को छोड़ दिया| अपने युग के इस बौद्धिक आचार्य को थोड़े समय तक वकालत करने पर तत्कालीन कानून व्यवस्था के दोषों का ज्ञान हो गया और वकालत करने के स्थान पर अपने जीवन का भी कानूनी पद्धिति के द्वारा संशोधन करना निश्चित किया|
उपयोगिता का सिद्धांत :- उपयोगितावाद नीतिशास्त्र का एक आधुनिक सिद्धांत है तथा एक परिणाम सापेक्षवादी विचारधारा है। किसी कार्य के शुभ या अशुभ होने का निर्णय उसके परिणामों या सामाजिक प्रभावों पर आधारित है। बेन्थम मानते हैं कि कोई कर्म या नियम अधिकतम व्यक्तियों के लिये अधिकतम उपयोगिता रखता है या नहीं इसका एकमात्र पैमाना सुख है।
उपयोगितावाद नीतिशास्त्र का एक आधुनिक सिद्धांत है तथा एक परिणाम सापेक्षवादी विचारधारा है। 18वीं शताब्दी में शेफ्टसबरी व बटलर तथा 19वीं शताब्दी में बेन्थम, मिल और सिज़विक इसके प्रमुख समर्थक माने जाते हैं।
उपयोगितावादी मानते हैं कि वही कर्म शुभ है जो सिर्फ व्यक्ति विशेष के हित में न होकर व्यापक सामाजिक हित की पुष्टि करता है। यदि यह संभव नहीं है, तो वह कार्य शुभ है जो अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को साधने में सहायक है।
उपयोगितावाद में शुभ की मूल परिभाषा किसी वस्तु या कार्य की उपयोगिता से तय होती है। जो समाज के लिये उपयोगी है वह शुभ है, और शुभ वही है जो सुख प्रदान करता है।
इसीलिये अधिकांश उपयोगितावादी सुखवादी भी हैं। किंतु अगर कोई यह माने कि सुख के अलावा कोई अन्य वस्तु है जो समाज के लिये उपयोगी है तो उपयोगितावाद सुखवाद से पृथक भी हो सकता है|
उपरोक्त आधार पर उपयोगितावाद के निम्न प्रकार हो सकते हैं-
- सुखवादी उपयोगितावाद - इसके समर्थक मानते हैं कि उपयोगिता का आधार सुख है।
- आदर्श मूलक उपयोगितावाद - इसमें उपयोगिता की धारणा व्यापक है, उसमें सुख तो शामिल है ही किंतु सुख के अलावा अन्य आधार भी हो सकते हैं, जैसे-ज्ञान, सत्य, सद्गुण और चारित्रिक श्रेष्ठता को भी सुख की तरह स्वतः शुभ माना जा सकता है।
- कर्म संबंधी उपयोगितावाद - इसके अंतर्गत कर्म विशेष के संबंध में तय किया जाता है कि वह समाज के लिये उपयोगी है या नहीं। इसे निम्न दो उप प्रकारों में बाँटा गया है-
(i) सीमित कर्म संबंधी उपयोगितावाद (ii) व्यापक कर्म संबंधी उपयोगितावाद।
- नियम संबंधी उपयोगितावाद - इसमें विशेष कृत्यों की नहीं बल्कि नियमों की उपयोगिता का निश्चय किया जाता है।
- निकृष्ट उपयोगितावाद - इसमें सुखों में गुणात्मक भेद नहीं माना जाता।
- उत्कृष्ट उपयोगितावाद - इसमें सुखों में गुणात्मक भेद स्वीकार किया जाता है।
उपयोगितावाद का सिद्धान्त बेन्थम की सबसे महत्त्वपूर्ण एवं अमूल्य देन है। उसके अन्य सभी राजनीतिक विचार उसके उपयोगितावाद पर ही आधारित हैं। लेकिन उसे इसका प्रवर्तक नहीं माना जासकता। रोचक बात यह है कि बेन्थम ने कहीं भी उपयोगितावाद शब्द का प्रयोग नहीं किया। बेन्थम के उपयोगितावादी दर्शन का वर्णन उसकी दो पुस्तकों – ‘फ्रैग्मेण्ट्स ऑन दि गवर्नमेंट’ तथा ‘इण्ट्रोडक्शन टू दॉ पिंसिपल्स ऑफ मॉरल्स एण्ड लेजिस्लेशन’ में मिलता है।
उपयोगितावाद का विकास :- उपयोगितावाद के सर्वप्रथम आचारशास्त्र के एक सिद्धान्त के रूप में प्राचीन यूनान के एपीक्यूरियन सम्प्रदाय में ही दर्शन होते हैं।
इस सम्प्रदाय के अनुसार मनुष्य पूर्णतया सुखवादी है। वह सुख की ओर भागता है तथा दु:खों से बचना चाहता है। इसके बाद सामाजिक समझौतावादियों ने भी 17 वीं शताब्दी में इसका कुछ विकास किया।
हॉब्स ने कहा कि मनुष्य पशुवत आचरण करने वाला एक सुखवादी प्राणी है। लॉक तथा पाश्चात्य दर्शन के सिरेनाक वर्ग के प्रचारकों ने भी उपयोगितावाद का विकास किया। डेविड ह्यूम ने भी इसका विकास किया।
आगे चलकर ह्येसन ने अपनी पुस्तक ‘नैतिक दर्शन पद्धति’ में उपयोगितावाद के मूलमन्त्र ‘अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख’ का प्रथम बार प्रयोग किया। आगे प्रीस्टले ने भी इसी मूलमन्त्र का प्रयोग किया।
इसके बाद बेन्थम ने भी प्रीस्टले के निबन्ध से उपयोगितावाद की प्रेरणा ग्रहण की। बेन्थम ने बताया कि राज्य की सार्थकता तभी है जब वह अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख की व्यवस्था करे।
उपयोगितावाद का अर्थ :-
उपयोगितावाद राजनीतिक सिद्धान्तों का ऐसा कोई संग्रह नहीं है जिसमें राज्य और सरकार के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया हो। यह मानव आचरण की प्रेरणाओं से सम्बन्धित एक नैतिक सिद्धान्त है। उपयोगितावाद 18 वीं शताब्दी के आदर्शवाद के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है जो इन्द्रियानुभववाद की स्थापना करता है। उपयोगितावादियों की दृष्टि में उपयोगितावाद का अर्थ – ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ है। इसका अर्थ “किसी वस्तु का वह गुण है जो लाभ, सुविधा, आनन्द, भलाई या सुख प्रदान करता है तथा अनिष्ट, कष्ट, बुराई या दु:ख को पैदा होने से रोकता है।” बेन्थम के मतानुसार- “उपयोगिता किसी कार्य या वस्तु का वह गुण है जिससे सुखों की प्राप्ति तथा दु:खों का निवारण होता है।” बेन्थम ने आगे कहा है कि उपयोगितावाद की अवधारणा हमें यह बताती है कि हमें क्या करना चाहिए तथा क्या नहीं करना चाहिए। यह हमारे जीवन के समस्त निर्णयों की आधारशिला है। उपयोगितावाद का वास्तविक अर्थ सुख है। व्यक्ति ही नहीं सम्पूर्ण समाज का लक्ष्य भी सुख की प्राप्ति है।
उपयोगितावाद की विशेषताएँ :- बेन्थम के उपयोगितावाद के सिद्धान्त की विशेषताएँ हैं :-
- सुख: बेन्थम का उपयोगितावादी सिद्धान्त सुख और दु:ख के दो आधारों पर आधारित है। बेन्थम का मानना है कि जो कार्य हमें सुख देता है, उपयोगी है तथा जो कार्य दु:ख पहुँचाया
है, उपयोगी नहीं। बेन्थम का मानना है कि प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दु:ख की दो शक्तियों के अधीन रखा है। यही शक्तियाँ हमें बताती हैं कि मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं। सही और गलत के मानदण्ड उन शक्तियों से बँधे हुए हैं।
2. सुख की प्राप्ति और दु:ख का निवारण : बेन्थम का मत है कि जो वस्तु सुख प्रदान करती है, वह अच्छी है और उपयोगी है। जिस कार्य या वस्तु से मनुष्य को दु:ख प्राप्त होता है वह अनुपयोगी है। मानव के समस्त कार्यों की कसौटी उपयोगितावाद है। बेन्थम का मानना है कि जिस कार्य से प्रसन्नता या आनन्द में वृद्धि होती है तो वह कार्य उपयोगी है। उससे सुख की प्राप्ति होती है और दुख का निवारण होता हैं|
3. सुख व दुख का वर्गिकरण : बेन्थम ने सुख और दुख को दो भागों – सरल व जटिल में विभाजित किया है। उसके अनुसार सरल सुख 14 प्रकार के तथा सरल दु:ख 12 प्रकार के हैं।
सरल सुख : (1) मित्रता का सुख (2) इन्द्रिय सुख (3) सहायता का सुख (4) सम्पर्क सुख (5) दया का सुख (6) स्मरण- शक्ति का सुख (7) आशा का सुख (8) सत्ता का सुख (9) धार्मिकता का सुख (10) ईष्र्या का सुख (11) उदारता का सुख (12) सम्पत्ति का सुख (13) कुशलता का सुख (14) यात्रा का सुख
सरल दु:ख – (1) अपमान का दुःख (2) धर्मनिष्ठा का दु:ख (3) सम्पर्क का दुःख (4) कल्पना का दु:ख शत्रुता का दुख (6) इन्द्रिय दुःख (7) अभाव का दु:ख (8) स्मरण शक्ति का दुःख (9) उदारता का दु:ख (10) आशा का दु:ख (11) ईर्ष्या का दुःख (12) अकुशलता का दु:ख
4. सुख-दुःख के स्रोत : बेन्थम ने सुख-दुःख के चार स्रोत – धर्म, राजनीति, नैतिकता तथा भौतिक मानते हैं। धार्मिक सुख धर्म में आस्था रखने से व धार्मिक व्यवस्था को स्वीकार करने से प्राप्त होता है। जैसे, कुम्भ के मेले में स्नान करने पर यदि कोई अनहोनी हो जाए तो उसे धार्मिक दुख कहेंगे|
5. सुखों में मात्रात्मक अन्तर : बेन्थम का मानना है कि सभी सुख गुणों में एक जैसे होते हैं। इसलिए उनमें गुणात्मक की बजाय मात्रात्मक अन्तर पाया जाता है, उसका कहना है कि “पुष्पिन (बच्चों का खेल) उतना ही अच्छा है जितना कविता पढ़ना” खेलने से भौतिक-सुख प्राप्त होता है जबकि कविता पढ़ने से मानसिक सुख। दोनों सुख की मात्रा को मापा जा सकता है। इनकी गणना सम्भव है। बेन्थम ने कहा है कि एक कील भी उतना ही दर्द करती है जितना कर्कश आवाज। अत: सुखो में मात्रात्मक अंतर हैं, गुणात्मक नहीं|
6. सुख और दुख का मापन- बेन्थम के अनुसार सुखों व दु:खों को परिमाणिक तौर पर मापा जा सकता है। इससे कोई अपने सुख या दु:ख को माप सकता है। यह मापन ही किसी वस्तु या कार्य को सुख-दु:ख के आधार पर अच्छा या बुरा प्रमाणित कर सकता है। ये सुख-दु:ख मानवीय क्रियाओं के आचार व उद्देश्य होते हैं। इन सुखों को फेलिसिफिक केलकुलस द्वारा मापा जा सकता है।
7. सुखवादी मापक यन्त्र - बेन्थम का विचार है कि सुख-दु:ख को तुलनात्मक आधार पर परखा
जा सकता है। बेन्थम ने सुख-दु:ख के मापन की जो पद्धति सुझाई है, उसे सुखवादी मापक यन्त्र का नाम दिया गया है। बेन्थम का मानना है कि सुख-दु:ख का गणित के सहारे पारिमाणिक नापतोल, सम्भव है।
इस सिद्धान्त के अन्तर्गत तीव्रता,अवधि, निश्चिन्तता,अनिश्चित्तता, सामीप्य, अन्य सुख उत्पन्न करने की क्षमता, विशुद्धता व विस्तार के आधार पर सुख-दु:ख का मापन किया जाता है। बेन्थम ने स्पष्ट किया है कि जो सुख तीव्र होता है, वह अधिक समय तक टिका रहता है। कम तीव्र सुख कम समय तक रहते हैं। निश्चित सुख अनिश्चित की तुलना में अधिक मात्रा वाला होता है। इस प्रकार अन्य तथ्यों के आधार पर भी सुख-दु:ख का निरूपण किया जा सकता है। बेन्थम ने सुख-दु:ख की गणना करते समय सुखों के समस्त मूल्यों को एक तरफ तथा दु:खों के समस्त मूल्यों को दूसरी तरफ जोड़ने का सुझाव दिया है। यदि एक-दूसरे को आपस में घटाने से सुख बच जाए तो वह कार्य उचित है अन्यथा अनुचित। इस प्रकार इस सिद्धान्त के द्वारा बेन्थम ने यह सिद्ध किया है कि कोई कार्य उचित है या अनुचित।
8. परिणामों पर जोर : बेन्थम का उपयोगितावाद का सिद्धान्त परिणामों पर आधारित है, नीयत पर नहीं। बेन्थम का मानना है कि सुख और दु:ख स्वयं ही उद्देश्य हैं। इनके होते हुए अच्छे या बुरे इरादों को मानने की आवश्यकता नहीं। किसी भी कार्य की अच्छाई या नैतिकता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह किस उद्देश्य को लेकर किया जाता है, बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि उसके परिणाम क्या निकलते हैं। बेन्थम का मानना है कि किसी भी विधि या संस्था की उपयोगिता की जाँच इस आधार पर ही हो सकती है कि स्त्रियों या पुरुषों पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है। बेन्थम नीयत (Motive) को उसी सीमा तक स्वीकार करता है, जहाँ तक वह परिणाम को निर्धारित करती है। इस प्रकार उसने नैतिक बुद्धि, ईश्वरीय इच्छा, कानून के नियम आदि को तिलांजलि दे दी। उसने किसी वस्तु के परिणाम को ही सत्य-असत्य, अच्छाई-बुराई का मापदण्ड स्वीकार किया है।
9. राज्य का उद्देश्य अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख है : बेन्थम के अनुसार राज्य के वे कार्य ही उपयोगी हैं जो व्यक्तियों को लाभ पहुँचाते हैं। सभी व्यक्ति राज्य के आदेशों का पालन इसलिए करते हैं, क्योंकि वे उनके लिए उपयोगी हैं। राज्य का उद्देश्य किसी एक व्यक्ति को सुख प्रदान करना नहीं है बल्कि अधिक से अधिक व्यक्तियों को सुख प्रदान करना है। इसलिए बेन्थम कहता है कि व्यक्ति को अधिक से अधिक लोगों के कल्याण में राज्य को सहयोग देना चाहिए।
10. अनुशस्तियों का सिद्धान्त : बेन्थम का मानना है कि व्यक्ति के अधिकतम सुख तथा व्यक्तियों के अधिकतम सुख के मध्य संघर्ष की सम्भावना को देखते हुए व्यक्ति पर अंकुश लगाना आवश्यक होता है ताकि वह दूसरों के सुख को कोई हानि नहीं पहुँचाए। इसलिए दूसरों के सुखों का ध्यान रखने में व्यक्ति को प्रेरित करने के लिए कुछ अनुशस्तियों (Sanctions) की आवश्यकता पड़ती है। सुख की अनुशस्तियाँ शारीरिक, नैतिक, धार्मिक और राजनीतिक 4 प्रकार की होती है। धार्मिक अनुशस्ति व्यक्ति के आचरण को ठीक करती है। नैतिक अनुशस्ति व्यक्ति के मन को अनुशासित करती है। यह सदैव उपयोगी होती है। राजनीतिक अनुशस्ति राज्य द्वारा पुरस्कार और दण्ड के रूप में व्यक्तियों पर लगाई जाती है। इसे कानून अनुशस्ति भी कहा जाता है।
समझौतावादी विचारक रूसो के अनुसार- “नागरिकों की वह इच्छा जिसका उद्देश्य सामान्यहित हो, सामान्य इच्छा कहलाती है। ग्रीन के शब्दों में, “सामान्य हित ही सामान्य चेतना है।” वेपर के अनुसार- “सामान्य इच्छा नागरिकों की वह इच्छा है जिसाक उद्देश्य ही सबकी भलाई है, व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं। यह सबकी भलाई के लिए सबकी आवाज है।”
- यह सिद्धान्त रूसो के दर्शन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण, मौलिक, केन्द्रीय एवं रोचक विचार है। यह रूसो के सम्पूर्ण राजनीतक दर्शन की आधारशिला है।
- इसी धारणा के आधार पर रूसो ने स्वतन्त्रता, अधिकार, कानून, सम्प्रभुता, राज्य की उत्पत्ति, संगठन आदि विषयों पर अपने विचार प्रकट किये हैं।
- जोन्स के शब्दों में- “सामान्य इच्छा का विचार रूसो के सिद्धान्त का न केवल सबसे अधिक केन्द्रीय विचार है, अपितु यह उसका अधिक मौलिक व रोचक विचार भी है। रूसो का राजनीतिक क्षेत्र में उसकी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण देन है।”
- इसी प्रकार मैक्सी ने भी कहा है- “सामान्य इच्छा की धारणा सूक्ष्म मनोयोग की पात्र है। वह रूसो के दर्शन का मर्म है और शायद राजनीतिक चिन्तन के प्रति उनका सबसे विशिष्ट योगदान है।” रूसो के राजनीतिक विचारों को समझने के लिए उसकी सामान्य इच्छा की धारणा समझना आवश्यक है।
- सामान्य इच्छा का सिद्धान्त रूसो की सबसे विवादास्पद धारणा है। जहाँ प्रजातन्त्र के समर्थकों ने रूसो की सामान्य इच्छा का स्वागत किया है, वहीं निरंकुश शासकों ने इसका गलत प्रयोग करके जनता पर अत्याचार किये हैं।
रूसो ने जब एकान्त में रहने वाले व्यक्तियों से अनुशासनपूर्ण संस्था का निर्माण कराना चाहा तो ऐसा करना तार्किक दृष्टि से असम्भव हो गया। रूसो का समझौता किसी चमत्कार का परिणाम लगने लगा। पशुत्व का जीवन जीने वाले रातों-रात नागरिक बन गए। इस विसंगति को दूर करने के लिए रूसो ने सामान्य इच्छा का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। रूसो ने इस सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा सामाजिक सत्ता में समन्वय का प्रयास किया है। रूसो के सामान्य इच्छा के सिद्धान्त को समझने के लिए सबसे पहले ‘यथार्थ या स्वार्थी’ इच्छा तथा वास्तविक या आदर्श इच्छा में भेद करना आवश्यक है। सामान्यत: इन दोनों इच्छाओं का एक ही अर्थ लिया जाता है। परन्तु रूसो द्वारा इनका प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है।
- यथार्थ या स्वार्थी इच्छा :- यह व्यक्ति की क्षणिक आवेग से उत्पन्न इच्छा है। यह सदैव निम्न व परिवर्तनशील कोटि की होती है। यह प्रत्येक क्षण व्यक्ति का स्वार्थ देखने के लिए उठती है। इससे सारे समाज को स्थायी आनन्द प्राप्त नहीं होता। यह इच्छा स्वार्थ-प्रेरित, संकीर्ण और अस्थिर है। इसे व्यक्तिगत या ऐन्द्रिक इच्छा का नाम भी दिया गया है। इसी इच्छा के कारण व्यक्ति दूसरों से झगड़ता रहता है। आशीर्वादन के अनुसार- “यह व्यक्ति की समाज विरोधी इच्छा है। यह क्षणिक एवं तुच्छ इच्छा है। यह संकुचित तथा स्वविरोधी भी है।”
- वास्तविक इच्छा :- वास्तविक इच्छा निश्चित और स्थिर होती है। इसमें स्वार्थ सार्वजनिक हित के अधीन
रहता है। यह शाश्वत, विवेकपूर्ण एवं सामाजिक कल्याण के हित में होती है। इस इच्छा से व्यक्ति अपने हित को सार्वजनिक हित के रूप में देखता है। यह मनुष्य की श्रेष्ठता तथा स्वतन्त्रता की द्योतक है। नागरिक के बौद्धिक चिन्तन का परिणाम एवं वैयक्तिक स्वार्थ से रहित होने के कारण यह व्यक्ति की आदर्श इच्छा भी कही जा सकती है। वास्तविक इच्छा निर्विकार, नित्य और स्थिर है। डॉ आशीर्वादन के अनुसार- “यह जीवन के सभी पहलुओं पर व्यापक रूप में दृष्टिपात करती है। यह विवेकपूर्ण इच्छा है। यह व्यक्ति तथा समाज के सामंजस्य में प्रदर्शित होती है।”
वास्तविक इच्छा व स्वार्थी इच्छा के अन्तर को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है – यदि एक व्यक्ति रिश्वत लेकर नौकरी देता है तो यह उसकी स्वार्थी या यथार्थ इच्छा है। यदि वह रिश्वत न लेकर नौकरी देता है तो यह उसकी वास्तविक या आदर्श इच्छा है।
सामान्य इच्छा का अर्थ :- सामान्य इच्छा राज्य के सभी नागरिकों की वास्तविक या आदर्श इच्छाओं का योग है। इस इच्छा द्वारा वे अपने व्यक्तिगत हितों की कामना न करके सार्वजनिक कल्याण की कामना करते हैं, यह सभी के कल्याण के लिए सभी की आवाज है।
- बोसाँके के अनुसार- “सामान्य इच्छा सम्पूर्ण समाज की सामूहिक अथवा सभी व्यक्तियों की ऐसी इच्छाओं का समूह है जिसका लक्ष्य सामान्य हित है।” समाज में व्यक्तिगत हितों का सामाजिक हितों के साथ समन्वय और सामंजस्य ही सामान्य इच्छा है।
- समझौतावादी विचारक रूसो के अनुसार- “नागरिकों की वह इच्छा जिसका उद्देश्य सामान्यहित हो, सामान्य इच्छा कहलाती है। ग्रीन के शब्दों में, “सामान्य हित ही सामान्य चेतना है।”
- रूसो के अनुसार- “जब बड़ी संख्या में लोग आपस में एकत्रित होकर अपने को ही एक समुदाय का निर्माता मान लेते हैं तो उनसे केवल एक ही इच्छा का निर्माण होता है जिसका सम्बन्ध पारस्परिक संरक्षण और सबके कल्याण से होता है। यही सार्वभौमिक इच्छा है।”
सामान्य इच्छा का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व सामान्य हित पर आधारित अर्थात् आदर्श या वास्तविक इच्छा है। रूसो ने स्वयं कहा है- “मतदाताओं की संख्या से कम तथा उस सार्वजनिक हित की भावना से अधिक इच्छा सामान्य बनती है, जिसके द्वारा वे एकता में बँधते हैं। इससे स्पष्ट है कि सामान्य इच्छा का निर्माण दो तत्त्वों से होता है – सामान्य व्यक्तियों की इच्छा तथा सार्वजनिक हित पर आधारित इच्छा। इनमें यथार्थ व वास्तविक इच्छा ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। हम सबकी इच्छा पर चलकर सामान्य इच्छा पर पहुँचते हैं। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण के अनुसार विभिन्न समस्याओं पर चिन्तन करता है।
यह चिन्तन उनकी व्यक्तिगत या वास्तविक इच्छा जहाँ-जहाँ एक-दूसरे को रद्द कर देती है। अत: उनकी वास्तविक इच्छा उभर कर ऊपर आ जाती है जो सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार सामान्य इच्छा का निर्माण होता है।
सामान्य इच्छा का निर्माण :- व्यक्ति में दो प्रकार की इच्छाएँ – यथार्थ तथा वास्तविक होती हैं। यथार्थ इच्छाएँ भावना प्रधान होती हैं, जबकि वास्तविक इच्छाएँ भावना प्रधान नहीं होतीं। ये वास्तविक अर्थात् आदर्श इच्छाएँ इसलिए कहलाती हैं कि इनमें स्वार्थ की भावना का समावेश नहीं होता। यथार्थ इच्छाएँ हमेशा पक्षपातपूर्ण व स्वार्थी होती हैं। वास्तविक इच्छा हमेशा कल्याणकारी होती है। यह किसी की अहित नहीं करती। यदि मनुष्य के स्वभाव में से यथार्थ या स्वार्थी इच्छाओं को निकाल दिया जाए तो वास्तविक इच्छा ही शेष बचेंगी। अत: सामान्य इच्छा व्यक्ति की सभी वास्तविक या आदर्श इच्छाओं का योग है। वास्तविक इच्छाएँ ही निर्णय लेने वाली इच्छाएँ हैं। अत: सामान्य इच्छा के निर्णय के निर्णय आदर्श होते हैं और सभी उसका पालन करते हैं। सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति के लिए विषयों को सामान्य हित के रूप में देखना चाहिए।
सामान्य इच्छा और बहुमत की इच्छा :- रूसो के अनुसार सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति के लिए मतदाताओं की संख्या नहीं, बल्कि सार्वजनिक का विचार ही प्रधान होता है। रूसो के अनुसार “जो तत्त्व इच्छा को सामान्य बनाता है, वह इसे रखने वाले व्यक्तियों की संख्या नहीं, अपितु वह सार्वजनिक हित है जो उन्हें एकता के सूत्र में बाँधता है।” बहुसंख्यक मतदाता सार्वजनिक हित के बदले सामूहिक स्वार्थ का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं अर्थात् वे सार्वजनिक हित के विपरीत कार्य कर सकते हैं। रूसो के अनुसार- “समाज के समस्त सदस्यों की इच्छाओं का कुल योग सामान्य इच्छा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि समस्त सदस्यों की इच्छाओं में सदस्यों के व्यक्तिगत स्वार्थों का मिश्रण होता है, जबकि सामान्य इच्छा का सम्बन्ध केवल सामान्य हितों से होता है।” सर्वसम्मति सामान्य इच्छा की कसौटी नहीं हो सकती। सामान्य इच्छा बहुमत की इच्छा से सर्वथा अलग है। सामान्य इच्छा लोक-कल्याण के उद्देश्य
से प्ररित है।
सामान्य इच्छा और सर्वसम्मति से इच्छा :- रूसो ने इन दोनों में भेद किया है। समस्त सदस्यों की इच्छाओं में व्यक्तिगत हितों का समावेश होता है। सामान्य इच्छा का सम्बन्ध सामान्य हितों से ही होता है। रूसो के अनुसार- “सामान्य इच्छा का लक्ष्य सार्वजनिक होता है, जबकि सर्वसम्मति या
सभी की इच्छा का लक्ष्य वैयक्तिक हित होता है। यह सभी द्वारा व्यक्त इच्छा भी हो सकती है। सर्वसम्मति व्यक्तियों के हितों से भी सम्बन्धित हो सकती है, पर सामान्य इच्छा अनिवार्यत: सारे समाज के कल्याण से ही सम्बन्धित होती है।”
सामान्य इच्छा और लोकमत :- रूसो सामान्य इच्छा और लोकमत में अन्तर स्पष्ट करता है। लोकमत का रूप हमेशा समाज की भलाई नहीं है। कभी-कभी लोकमत समाज के हित में नहीं होता। परन्तु सामान्य इच्छा सदैव समाज के स्थायी हित का ही प्रतिनिधि होती है। प्रचार साधनों; जैसे- रेडियो, टीñ वीñ, समाचार-पत्र व पत्रिकाओं आदि द्वारा लोकमत पथभ्रष्ट हो सकता है, परन्तु सामान्य इच्छा कभी भ्रष्ट नहीं होती।
सामान्य इच्छा की विशेषताएँ :- रूसो द्वारा प्रतिपादित सामान्य इच्छा की विशेषताएँ हैं :-
- सामान्य इच्छा सम्प्रभुता सम्पन्न है : सामान्य इच्छा सर्वोच्च और सम्प्रभु होती है। इस
पर किसी प्रकार के दैवी और प्राकृतिक नियमों का प्रतिबन्ध नहीं होता। यह कानून का निर्माण करती है, धर्म का निरूपण करती है, एवं नैतिक और सामाजिक जीवन को संचालित करती है। जो सामान्य इच्छा की अवज्ञा करता है, उसे इसका पालन करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। यह जनवाणी होती है, इसलिए कोई अवहेलना नहीं कर सकता। सामान्य इच्छा सभी की शक्ति, अधिकार और हितों का योग है। अतएव सामान्य इच्छा सम्प्रभु है। यह कल्याणकारी निर्णय लेती है और निर्णयों को क्रियान्वित करती है। इसमें बाध्यता की शक्ति है। सामान्य इच्छा समुदाय की प्रभुसत्ता की अभिव्यक्ति
है जिसे टाला नहीं जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति सामान्य इच्छा के आदेशों के पालन के लिए बाध्य है। सामान्य इच्छा व्यक्ति पर दबाव डाल सकती है। अत: सामान्य इच्छा ही सम्प्रभु है। - अविभाज्य : रूसो का मानना है कि सामान्य इच्छा को सम्प्रभुत से अलग नहीं किया जा सकता। सामान्य इच्छा सम्प्रभु होती है और सम्पूर्ण समाज में निवास करती है। आधुनिक बहुलवादियों की तरह रूसो की सामान्य इच्छा छोटे-छोटे भागों में नहीं बँट सकती। यहाँ रूसो सर्वसत्ताधिकारवादी राज्य का समर्थक है। विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका सम्प्रभु के आदेशों का पालन करती है, लेकिन स्वयं सम्प्रभु नहीं बन सकती। वे सरकार का अंग मात्र है, सम्प्रभु नहीं। अत: सामान्य इच्छा अविभाज्य है।
- प्रतिनिधियों द्वारा अभिव्यक्ति नहीं : रूसो के अनुसार जनता अपनी सम्प्रभुता को किसी एक
व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के सामने समर्पित नहीं कर सकता। अर्थात् सामान्य इच्छा प्रतिनिधियों द्वारा अभिव्यक्त किये जाने योग्य नहीं है। रूसो ने कहा है- “जब कोई राष्ट्र प्रतिनिधियों को नियुक्त करता है तब स्वतन्त्र नहीं रह जाता, अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता। संसद के सदस्यों के केवल निर्वाचन के समय ही इंगलैण्ड की जनता स्वतन्त्र होती है। निर्वाचनों के बाद जनता दास और नगण्य बन जाती है।” - सामान्य इच्छा एकता स्थापित करती है : सामान्य इच्छा सदैव युक्तिसंगत होती है। सामान्य
इच्छा विभिन्नता में एकता स्थापित करती है, क्योंकि राज्य के व्यक्तिगत स्वार्थ उसमें विलीन हो जाते हैं। लार्ड के अनुसार- “यह राष्ट्रीय चरित्र की एकता को उत्पन्न और स्थिर करती है और उन समान गुणों में प्रकाशित होती है जिनके किसी राज्य के नागरिकों में होने की आशा की जाती है। व्यक्तियों की स्वार्थमयी इच्छाएँ परस्पर एक-दूसरे की इच्छाओं को समाप्त कर देती हैं जिससे सामान्य इच्छा का उदय होता है। सभी व्यक्ति सार्वजनिक हित में ही अपने निजी हितों का दर्शन करते हैं। - सामान्य इच्छा अदेय है : रूसो की सामान्य इच्छा अदेय है। इसे हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। यह समाज का प्राण होती है। शक्ति तो किसी को दी जा सकती है, इच्छा नहीं। सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति सम्पूर्ण समाज ही कर सकता है। सामान्य इच्छा को दूसरे को सौंपने का अर्थ उसे नष्ट करना है। रूसो ने लिखा है- “जिस समय वहाँ कोई स्वामी नहीं होता है, उसी क्षण सम्प्रभु का अस्तित्व नष्ट हो जाता है और राजनीतिक समुदाय नष्ट होता है।”
- सामान्य इच्छा स्थायी है : रूसो के अनुसार- “सामान्य इच्छा का कभी अन्त नहीं होता, यह कभी भ्रष्ट नहीं होती। यह अपरिवर्तनशील तथा पवित्र होती है।” सार्वजनिक हित का मार्ग एक ही हो सकता है,
इसलिए सामान्य इच्छा स्थिर और निश्चित है। ज्ञान और विवेक पर आधारित होने के कारण यह स्थायी है। यह किसी प्रकार के भावात्मक आवेगों का परिणाम नहीं है अपितु मानव के जन-कल्याण की स्थायी प्रवृत्ति और विवेक का परिणाम है। अत: इसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। - सामान्य इच्छा का सम्बन्ध जनहित से होता है : रूसो की सामान्य इच्छा लोक कल्याण से सम्बन्ध रखती है। सामान्य इच्छा का उद्देश्य समाज के किसी एक अंग का विकास करना न होकर,
सम्पूर्ण समाज का कल्याण करना है, रूसो का यह विचार सर्वसत्ताधिकारवादी विचार का पोषक हैं। - सामान्य इच्छा में बाध्यता की शक्ति है : रूसो की सामान्य इच्छा सम्प्रभु होने के कारण बाध्यता
की शक्ति रखती है। उसका उद्देश्य सभी का कल्याण है, इसलिए कोई उसके विरुद्ध कदम नहीं उठा सकता। उसके पास कानून बनाने तथा दण्ड देने की शक्ति होती है। यदि यह शक्ति न हो तो कोई उसका पालन नहीं करेगा। - सामान्य इच्छा और सदैव न्यायशील है : सामान्य इच्छा सदैव न्यायशील होती है क्योंकि उसका उद्देश्य
सदैव सामान्य होता है। रूसो के अनुसार- “सामान्य इच्छा सदैव ही विवेकपूर्ण एवं न्यायसंगत होती है क्योंकि जनता की वाणी वास्तव में देववाणी होती है। यह सभी की सामूहिक सदिच्छा है। इसमें कोई सदस्य अन्यायपूर्ण कार्य नहीं कर सकता। - सामान्य इच्छा स्वतन्त्रता और समानता की पोषक है : रूसो के अनुसार- “सामाजिक संविदा में यह बात निहित है कि जो कोई भी सामान्य इच्छा की अवज्ञा करेगा तो उसे सम्पूर्ण समाज द्वारा ऐसा करने के लिए विवश किया जाएगा।”
इसका अर्थ है कि उसे स्वतन्त्र होने के लिए बाध्य किया जाएगा क्योंकि यह वही शर्त है जो कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके देश को देकर उसकी समस्त व्यक्तिगत अधीनता को सुरक्षित करती है। सामान्य इच्छा ही सभ्य समाज में स्वतन्त्रता को स्थापित करने का उपाय है। राज्य की अधीनता में सभी को समान अधिकार होते हैं और सभी को समान कानूनों का पालन करना पड़ता है, इसलिए सम्प्रभु समानता का पोषक है। - सामान्य इच्छा अचूक होती है : रूसो के अनुसार सामान्य इच्छा कोई गलती नहीं करती। “यह सदैव न्यायोचित होती है और सदैव सार्वजनिक हित के लिए प्रयत्नशील रहती है।” यह सभी व्यक्तियों की आदर्श इच्छाओं का योग होने के कारण न्यायसंगत व उचित होती है।
- सामान्य इच्छा अपन को कानून द्वारा अभिव्यक्त करती है : रूसो सिर्फ उन्ही मौलिक कानून को कानून मानता है जिनसे संविधान का निर्माण होता है। मौलिक कानूनों की उत्पत्ति सामान्य इच्छा से होती है। सामान्य इच्छा का कार्य कानून बनाना है, उन्हें लागू करना नहीं। कानून का उद्देश्य किसी विशेष व्यक्ति या वर्ग का हित न होकर सार्वजनिक कल्याण होता है। अत: रूसो की इच्छा की अभिव्यक्ति का माध्यम कानून ही है।
- सामान्य इच्छा का स्वरूप अवैयैयक्तिक और निस्वार्थ है : रूसो के अनुसार सामान्य हित के लिए सामान्य इच्छा का जन्म होता है। अत: वह सामान्य हित के मार्ग से हटकर कार्य नहीं कर सकती। वह सदैव जनकल्याण और जन-सेवा की भावना से प्रेरित होती है। अत: यह निस्वार्थ और अवैयक्तिक है।
- सामान्य इच्छा कार्यपालिका की इच्छा नहीं हो सकती : सामान्य इच्छा का कार्य केवल कानून बनाना है, उसे लागू करना नहीं। कानून को लागू करना सरकार का काम है। रूसो समुदाय और सरकार में भेद करते हुए कहता है कि कानून को लागू करना सम्प्रभु सत्ताधारी राजनीतिक समुदाय का काम नहीं है, यह तो सरकार का है। जिस समय सामान्य इच्छा सरकार के कार्य अर्थात् कानून को लागू करने का प्रयास करेगी, सामान्य इच्छा कहलाने से वंचित हो जाएगी। अत: सामान्य इच्छा कार्यपालिका की इच्छा नहीं हो सकती।
सामान्य इच्छा के निहितार्थ :- रूसो के अनुसार सामान्य इच्छा के निहितार्थ हैं :-
- सामान्य इच्छा सभी कानूनों का स्रोत है। इसका कार्य कानून बनाना है।
- सामान्य इच्छा हमेशा जनकल्याण के लिए होती है। प्रत्येक व्यक्ति उसकी आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य होता है।
- न्याय का निर्धारण सामान्य इच्छा से होता है। सामान्य इच्छा जितनी अधिक सामान्य होती है, उतनी ही न्यायपूर्ण होती है।
- राज्य में मनुष्यों की सावयविक एकता सामान्य इच्छा का महत्त्वपूर्ण परिणाम है।
- सामान्य इच्छा का लक्ष्य सदैव सामान्य हित होता है। अत: सामान्य इच्छा सम्पूर्ण समाज के कल्याण के लिए सदैव प्रयत्नशील रहती है।
- यह सदैव सार्वजनिक हित का पोषण करने वाली होती है।
- सामान्य इच्छा सदैव न्यायपूर्ण होती है।
सामान्य इच्छा सिद्धान्त का महत्त्व :- रूसो के सामान्य इच्छा सिद्धान्त का महत्त्व निम्न तथ्यों के आधार पर आँका जा सकता है :-
- आदर्शवादी विचारधारा पर प्रभाव : रूसो के इस सिद्धान्त ने हीगल, काण्ट और ग्रीन जैसे आदर्शवादियों पर गहरा प्रभाव डाला है। काण्ट ने रूसो की तरह सामान्य इच्छा को कानून का स्रोत माना है। काण्ट की ‘शुभ इच्छा’, विवेक का आदेश’ का सिद्धान्त रूसो से प्रेरित है। हीगल का विश्वात्मा का विचार भी रूसो की सामान्य इच्छा के समान है। ग्रीन भी राज्य का आधार इच्छा को मानता है। अत: रूसो के सामान्य इच्छा सिद्धान्त के आदर्शवाद को प्रभावित किया।
2. राष्ट्रवाद के प्रेरक : रूसो की सामान्य इच्छा में राष्ट्रवाद के प्रेरक तत्त्व – एकता, समता, समपर्ण् , आत्मीयता तथा सम्मान की भावना आदि का समोवश है। अत: यह राष्ट्रवाद का प्रेरक है।
3. लोकतन्त्रीय व्यवस्था का समर्थक : रूसो की सामान्य इच्छा बहुमत द्वारा व्यक्त होती है और बहुमत ही लोकतन्त्र का आधार है। रूसो के इस सिद्धान्त ने लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए एक आदर्श प्रस् किया है। उसने सार्वजनिक हित को प्रधानता देकर लोकतन्त्र का समर्थन किया है।
4. राज्य का आधार जनसमूह की इच्छा है शक्ति नहीं : रूसो ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्य का आधार जनसमूह की इच्छा है, शक्ति नहीं। यह राज्य के आंगिक सिद्धान्त का बोध कराता है। सार्वजनिक हित को व्यक्तिगत हितों से ऊपर रखता है। यह स्वार्थ की जगह परमार्थ की सीख देता है। यह व्यक्ति को पाशविक स्तर से उठाकर नैतिक स्तर पर प्रतिष्ठित करना चाहता है। अत: राज्य की प्रमुख शक्ति जन-इच्छा है, बल नहीं।
5. राज्य का उद्देश्य जनकल्याण है : रूसो के इस सिद्धान्त के अनुसार आधुनिक कल्याणकारी राज्य का जन्म होता है। इस सिद्धान्त ने राज्य का उद्देश्य जन-कल्याण है। राज्य किसी वर्ग-विशेष का प्रतिनिधि न होकर सार्वजनिक हित के लिए है।